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Wednesday, 6 November, 2024
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‘कोई रिमोट कंट्रोल या हेडमास्टर नहीं’, लेकिन MVA के एक साल में शरद पवार की ताक़त में इज़ाफा ही हुआ है

राजनीतिज्ञों और विश्लेषकों का कहना है, कि उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली एमवीए सरकार, शरद पवार की मर्ज़ी पर टिकी है, और इसकी वजह से उनकी एनसीपी के दिन पलट गए हैं.

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मुम्बई: ‘क्या आप रिमोट कंट्रोल या हेडमास्टर हैं, महाराष्ट्र सरकार के?’ शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत ने, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) अध्यक्ष शरद पवार से, जुलाई में अपनी पार्टी के मुखपत्र सामना के लिए, एक इंटरव्यू में ये सवाल पूछा था, जिसके राउत संपादक हैं.

पवार ने फौरन जवाब दिया: ‘ दोनों में से कुछ नहीं हूं’.

उन्होंने कहा कि अगर हेडमास्टर हूंगा, तो मुझे स्कूल का हिस्सा होना पड़ेगा. और लोकतंत्र में रिमोट कंट्रोल की कोई अवधारणा नहीं होती.

राउत या शरद पवार में से किसी ने, कोई उपयुक्त वैकल्पिक विवरण नहीं दिया, कि महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार के लिए, पवार के क्या मायने हैं. लेकिन राजनीति पर नज़र रखने वालों में एक आमराय है, कि तीन दलों की सरकार न सिर्फ एनसीपी प्रमुख की इच्छा से बनी, बल्कि टिकी भी उन्हीं की मर्ज़ी पर है.

शनिवार को शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस सरकार का एक वर्ष पूरा हो गया, जिस दौरान शरद पवार की पहले से ही मज़बूत, राजनीतिक ताक़त में ज़बर्दस्त इज़ाफा हुआ है, जिसने परेशानी में घिरी एनसीपी में एक नई जान फूंक दी है.


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‘मार्गदर्शक, संकटमोचक, पीछे की ताक़त

पिछले साल नवंबर में, साउथ मुम्बई के महंगे भूलाभाई देसाई मार्ग पर, पवार का पुराने ढंग का बंगला, नंबर 2 सिल्वर ओक, मुम्बई स्थित राजनीतिक पत्रकारों का एक स्थाई अड्डा बन गया था, क्योंकि विधान सभा चुनावों से एक त्रिशंकु सदन सामने आया था, और सभी पार्टियां गठजोड़ बनाने में जुटीं थीं.

पवार को एमवीए के आर्किटेक्ट के तौर पर देखा गया, और वो उस भूमिका को निभा रहे थे जिसमें वो हमेशा माहिर रहे थे- मुख्य वार्ताकार बनना, मुश्किल दिख रहे गठबंधन को एक रूप देना, और हमेशा एक ऐसे लीडर के तौर पर उभरना, जिसे इस सारे काम से सबसे ज़्यादा सियासी फायदा पहुंचता हो.

राजनीतिक विश्लेषक प्रकाश बाल ने दिप्रिंट से कहा: ‘सरकार सिर्फ पवार की वजह से चल रही है. वही इसे अपनी ताक़त से चला रहे हैं. वो इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ, एक सफल प्रयोग के तौर पर दिखाना चाहते हैं. ये सरकार जितनी लंबी चलेगी, बीजेपी की छटपटाहट उतनी ही बढ़ेगी’.

राउत के साथ जुलाई के इंटरव्यू में, पवार ने एमवीए को एक ‘सफल प्रयोग’ क़रार दिया था. 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले, उन्होंने केंद्र में भी इसी तरह की व्यवस्था करने की कोशिश की थी. वो एक ऐसे नेता हैं जिनके लगभग सभी क्षेत्रीय दलों, और राजनीतिक विरोधियों के साथ सौहार्दपूर्ण रिश्ते हैं. लेकिन चुनावों में बीजेपी की ज़बर्दस्त जीत, और अपने गृह राज्य में 19 में से (कांग्रेस के साथ यूपीए के अंग के तौर पर) 15 सीटों पर एनसीपी की पराजय ने, उनकी उम्मीदों के साथ साथ, उनकी राष्ट्रीय आकांक्षाओं पर भी पानी फेर दिया.

पवार, जो दिसंबर में 80 वर्ष के हो जाएंगे, सरकार के पहले साल में मुख्यमंत्री और शिवसेना प्रमुख ऊधव ठाकरे के साथ, नियमित रूप से बैठकें करते रहे हैं. जुलाई में हुई एक ऐसी ही मीटिंग, गठबंधन के भीतर मतभेदों को लेकर थी, जो लॉकडाउन और मंत्रियों की शिकायतों से संबंधित थे, कि सीएम नौकरशाही पर कुछ ज़्यादा ही भरोसा कर रहे थे.

बाल ने कहा: ‘एमवीए में पवार ही मार्गदर्शक शक्ति हैं. जब भी कोई संकट पैदा होता है, तो वही आकर सुलझाते हैं. यही कारण है कि एमवीए में कोई नीतिगत समस्याएं नहीं रही हैं. मसलन, उन्होंने तब हस्तक्षेप किया जब मंत्रीगण शिकायत कर रहे थे, कि लॉकडाउन के दौरान नौकरशाही ज़्यादा ताक़तवर हो रही थी’.

आवास मंत्री और एनसीपी नेता जितेंद्र औहद ने कहा, कि पवार एमवीए सरकार के लिए ‘पिता समान’ हैं.

औहद ने कहा, ‘रोज-रोज़ के आधार पर, वो सरकार के मार्गदर्शक हैं. ये भूमिका बहुत अहम है, चूंकि ये एक मुश्किल गठबंधन है. जब भी कोई मसला खड़ा होता, वो उसे सुलझा देते हैं. ये देखते हुए कि वो पूरे परिवार के मुखिया है, बहुत कुछ उनपर, उनकी मर्ज़ी पर, और उनकी विचारधारा पर निर्भर करता है’.

एक शिवसेना विधायक ने, जो कभी एनसीपी के साथ हुआ करते थे, नाम छिपाने की इच्छा के साथ कहा: ‘आज जो ये सरकार चल रही है, वो उनके अनुभव और समझ की वजह से चल रही है, और उनके इस सिद्धांत पर चल रही है, कि किसी रिश्ते पर तब तक दबाव नहीं बनाना चाहिए, जब तक वो टूटने की कगार पर न आ जाए. वो एक बहुत चतुर राजनीतिज्ञ हैं. वो भांप लेते हैं कि हवा का रुख़ क्या है, और उसी हिसाब से अपनी दिशा बदल लेते हैं’.

पवार की ताक़त

दशकों तक, पवार एक ऐसे राजनेता रहे हैं जिन्हें कोई- न तो महाराष्ट्र और न राष्ट्रीय स्तर पर- नज़रअंदाज़ नहीं कर सका. लेकिन एक के बाद एक पराजय से, उनकी ताक़त कम हो गई थी.

2014 के लोकसभा और महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव, एनसीपी के लिए सख़्त रहे थे, जब पार्टी के पास केवल चार सांसद, और 41 विधायक रह गए थे. 2019 में, न सिर्फ एनसीपी प्रमुख का मोदी के खिलाफ विपक्षी गठबंधन बनाने का प्रयास विफल हुआ, बल्कि पवार के राज्य भर में 78 रैलियां संबोधित करने के बावजूद, एनसीपी की हार का सिलसिला जारी रहा, और वो फिर से केवल चार सीटें जीत पाई.

इसी के साथ केंद्र में एक मुख्य भूमिका निभाने की, पवार की महत्वाकांक्षाओं को भी विराम लग गया.

लेकिन 2019 के विधान सभा चुनाव एक नया मोड़ लेकर आए- पवार की राजनीतिक साख फिर बढ़ गई, जब एनसीपी अकेली पार्टी बनी जिसने 2014 के अपने प्रदर्शन में सुधार किया, और 54 सीटें जीत लीं. पूरे प्रचार का भार 78 वर्षीय पवार के कांधों पर था, और उनके सामने बड़े पैमाने पर दल-बदल व हतोत्साहित काडर की चुनौती थी, और साथ ही भ्रष्टाचार के आरोप थे, जिनमें प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की एक जांच भी शामिल थी.

महाराष्ट्र स्टेट को-ऑपरेटिव बैंक में अनियमितताओं से जुड़े मामले में, पवार, उनके भतीजे (अब डिप्टी सीएम) अजित पवार, और अन्य पार्टियों के क़रीब 70 लोगों के खिलाफ, सितंबर 2019 का ईडी का कथित धन शोधन केस, इस सीनियर राजनेता के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था.

अन्य सभी लोग जिनके खिलाफ मुक़दमा दर्ज था, वो 2011 तक बैंक के निदेशक या पदाधिकारी रहे थे, लेकिन शरद पवार का बैंक या इस केस से कोई सीधा संबंध नहीं था. इससे ऐसा लगा कि सत्ताधारी बीजेपी, विधान सभा चुनावों से मुश्किल से एक महीना पहले, जानबूझ कर मराठा नेता को निशाना बना रही थी. एनसीपी काडर पवार के समर्थन में सड़कों पर उतर आया, और इस क़दम से पवार को युवाओं की काफी हमदर्दी हासिल हुई, ख़ासकर उनके गढ़ पश्चिम महाराष्ट्र में, जहां मराठा समुदाय का दबदबा है.

राजनीतिक विश्लेषक प्रताप एसबे ने कहा: ‘अब, पवार सिर्फ उस जगह वापस नहीं हैं जहां थे, बल्कि अब वो राज्य में पहले से ज़्यादा ताक़तवर हैं. लेकिन वो रिमोट कंट्रोल नहीं हैं; उन्हें ये सिस्टम पसंद नहीं है.

‘वो पीछे बैठकर ड्राइविंग नहीं करते, न ही बारीकियों में पड़ते हैं. वो अपने मंत्रियों को पूरी आज़ादी देते हैं, लेकिन नीतियों को लेकर उनके मज़बूत विचार हैं, जिन्हें वो समय समय पर व्यक्त करते हैं. एमवीए सरकार में भी वो यही कर रहे हैं, और यही वजह है कि उन्हें, इतनी ताक़त और सम्मान हासिल है’.

एसबे ने कहा कि सीएम ठाकरे और पवार के बीच, जब भी कोई मतभेद हुए हैं, तो ज़्यादातर ठाकरे ही भारी पड़े हैं.

मसलन, आर्थिक संकट की वजह से पवार नहीं चाहते थे, कि लॉकडाउन को जून से आगे बढ़ाया जाए, और वो चाहते थे कि सरकार उसे तेज़ी से खोले, लेकिन ठाकरे ज़्यादा सावधानी से चलना चाहते थे. आख़िरकार, सीएम की ही चली.

एनसीपी का विकास

एनसीपी का गठन तब हुआ जब पवार, और दूसरे सीनियर नेता पीए संगमा तथा तारिक़ अनवर, 1999 में पार्टी से अलग हुए, लेकिन जल्द ही वो मूल पार्टी की सहयोगी बन गई. साथ मिलकर इन्होंने अगले 10 साल तक महाराष्ट्र में राज किया, लेकिन 2009 में एनसीपी की, अपने राज्य में पकड़ ढीली पड़ने लगी.

अजित पवार, सुनील ततकारे, प्रफुल पटेल और थगन भुजबल को भ्रष्टाचार के बहुत से आरोपों से जूझना पड़ा है, जो बीजेपी ने उस समय लगाए थे जब वो विपक्ष में थी. इन आरोपों ने पार्टी की साख को काफी नुक़सान पहुंचाया है.

2019 के लोकसभा और विधान सभा चुनावों से पहले, बीजेपी और शिवसेना ने एनसीपी को सीनियर नेतृत्व से लगभग ख़ाली कर दिया, और जयदत्त क्षीरसागर, सचिन अहीर, भास्कर जाधव, धनंजय महादिक, उदयनराजे भोसले, गणेश नायक, मधुकर पिचाड़ जैसे बहुत से प्रमुख नेताओं को अपने पाले में ले लिया.

लेकिन, एक ऐसी सरकार का हिस्सा होने से, जिसके सरपरस्त शरद पवार हैं, जो इस अवसर का फायदा उठाकर, निरंतर पार्टी को आगे बढ़ाने में लगे हैं, एनसीपी काडर में एक नई जान आ गई है. इसके अलावा, एनसीपी नेतृत्व को बार बार ‘भ्रष्ट’ बताने के बाद, उसी के सहयोग से सरकार बनाने के बीजेपी के नाकाम प्रयास से भी, एनसीपी का महत्व फिर से बढ़ा है.

एक एनसीपी विधायक ने, नाम न बताने की शर्त पर कहा: ‘भ्रष्टाचार के लिए हमारे सीनियर नेताओं पर निरंतर हमले करके, बीजेपी एनसीपी को बैकफुट पर ले आई थी. हम बस सफाई देते ही दिख रहे थे, जिन्हें फिर बीजेपी झूठ बता देती थी. शिवसेना के साथ सहयोग करके एनसीपी को फिर से सत्ता में लाकर, पवार साहब ने राजनीतिक चतुराई का परिचय दिया, और पार्टी की तरक़्क़ी के लिए, वो इस मौक़े का पूरा फायदा उठा रहे हैं’.

विधायक ने कहा कि पवार ने हर मंत्री के लिए दिन आवंटित कर दिए हैं, जब वो पार्टी ऑफिस में बैठकर ‘जनता दरबार’ लगाएंगे, और समय समय पर अलग ज़िलों का दौरा करेंगे. उन्होंने कहा कि ‘महामारी और अपनी उम्र की वजह से इसके ख़तरे के बावजूद, वो ख़ुद महाराष्ट्र का दौरा कर रहे हैं’.

राजनीतिक विश्लेषक एसबे ने ये भी कहा, कि एनसीपी को एमवीए से फायदा हुआ है, चूंकि उसे शिवसेना के बराबरी के साझीदार के तौर पर देखा जा रहा है- इसके पास 54 सीटें हैं, जबकि ऊधव ठाकरे की पार्टी के पास 56 सीटें हैं.

उन्होंने कहा, ‘शिवसेना के पास अनुभव की भारी कमी है. उस कमी को एनसीपी और पवार पूरा करते हैं’.

उत्तराधिकार का सवाल बरक़रार

लेकिन, पवार के बाद के दौर में, एनसीपी के भविष्य के सवाल का अभी तक जवाब नहीं मिला है. अभी तक स्पष्ट नहीं है कि एनसीपी का अगला प्रमुख कौन हो सकता है- उनकी बेटी सुप्रिया सुले, भतीजे अजित पवार, या किसी असंभावित स्थिति में, कोई ग़ैर-पवार लीडर.

लेकिन राजनीतिक विश्लेषक बाल ने कहा कि ये ‘विरोधाभासों और तनावों का एक अंदरूनी मसला है’.

उन्होंने कहा, ‘अभी के लिए, गठबंधन का किंग-मेकर बनकर, और अपनी पार्टी को सत्ता, और एक राजनीतिक भविष्य देकर, पवार ने कम से कम बाहरी अनिश्चितताओं को तो स्थिर कर ही दिया है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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