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Thursday, 19 December, 2024
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क्या नीतीश ‘चुपचाप’ आनंद मोहन की वापसी का रास्ता साफ कर रहे हैं ? जेल मैनुअल में बदलाव से बढ़ा विवाद

पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह को जेल से बाहर लाने से जद (यू) और राजद, दोनों को ‘पावरफुल’ राजपूत जाति के वोट को अपने पक्ष में लाने और राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के खिलाफ एक माहौल बनाने में मदद मिलेगी.

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पटना: बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार ने 1994 में एक आईएएस अधिकारी की हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहे पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह की रिहाई का रास्ता ‘चुपचाप’ साफ कर दिया है.

10 अप्रैल को, बिहार सरकार ने बिहार जेल नियमावली में एक संशोधन किया. जिसमें उस खंड को हटाया गया, जो सरकारी अधिकारियों की हत्या करने वाले को ‘अच्छे व्यवहार’ के तहत रिहाई से रोकता था.

राज्य के गृह विभाग ने एक अधिसूचना जारी कर कहा कि बिहार जेल नियमावली, 2012, नियम 481 (1)ए में उल्लिखित वाक्यांश ‘लोक सेवक की हत्या को हटा दिया जाएगा.’

हालांकि, संशोधन पर पूर्व आईपीएस अधिकारी अमिताभ दास से तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की. उन्होंने आरोप लगाया कि यह कदम विशेष रूप से आनंद मोहन की सहायता के लिए तैयार किया गया, जिसे 1994 में आईएएस अधिकारी जी कृष्णय्या की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया. कृष्णय्या, जो उस वक्त गोपालगंज के जिला मजिस्ट्रेट थे, को मुजफ्फरपुर के बाहरी इलाके में इस नेता द्वारा कथित तौर पर उकसाने पर भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार डाला गया था.

उन्होंने कहा, ‘राज्य सरकार ने एक हत्यारे की मदद के लिए कानून में बदलाव किया है. दलित आईएएस अधिकारी कृष्णय्या को 5 दिसंबर, 1994 को गोपालगंज से हाजीपुर जाने के दौरान ड्यूटी के दौरान पीट-पीट कर मार डाला गया था.’

उन्होंने कहा कि उन्होंने शनिवार को बिहार के राज्यपाल राजेंद्र अर्लेकर को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने संशोधन में हस्तक्षेप करने का आग्रह किया था. उन्होंने कहा, ‘इससे बिहार में सरकारी कर्मचारियों का मनोबल गिरेगा.’

आनंद मोहन सिंह फिलहाल अपने बेटे और राष्ट्रीय जनता दल के विधायक चेतन आनंद की सगाई के लिए पैरोल पर हैं. वह दो बार पैरोल पर बाहर आ चुके हैं. इससे पहले पिछले साल अपनी बेटी की शादी के लिए वह पैरोल पर बाहर आए थे.

संयोग से, पिछले साल अगस्त में महागठबंधन सरकार बनने के बाद से सिंह को जेल से बाहर निकालने के लिए बार-बार प्रयास किए गए हैं. दबाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले साल विधानसभा में जनता दल (युनाइटेड) के वरिष्ठ मंत्री बिजेंद्र यादव ने रिहाई के बारे में बोलते हुए उसी धारा का हवाला दिया था, जो ‘ड्यूटी पर सरकारी कर्मचारियों को मारने वालों को रिहाई’ से रोकती है. इसमें ‘अच्छे व्यवहार के आधार’ पर जेल से छोड़ने की अनुमति नहीं थी. 

जद (यू) के सूत्रों के अनुसार, सिंह को जेल से बाहर लाने से जद (यू) और आरजेडी दोनों को एक ‘शक्तिशाली’ राजपूत जाति को अपने पक्ष में लाने में मदद मिलेगी. साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ आनंद मोहन के वक्तृत्व कौशल का भी उपयोग किया जा सकेगा. जेल जाने से पहले सिंह की छवि ‘क्षत्रिय समाज’ के बड़े नेता के रूप में थी.

1930 के दशक में जाति जनगणना के मुताबिक बिहार में राजपूतों के वोटों का हिस्सा कुल वोट का 4 प्रतिशत था. इसलिए पार्टियों का उद्देश्य भाजपा से लड़ने के लिए आनंद मोहन के प्रभाव को भुनाना है.

2014 के बाद यह और महत्वपूर्ण हो जाता है, जब बाकी उच्च जातियों की तरह, राजपूतों ने बड़े पैमाने पर बीजेपी के प्रति अपनी वफादारी दिखाई है. और पिछले साल अगस्त में नीतीश के एनडीए छोड़ने के बाद नीतीश के लिए यह और भी जरूरी हो गया है.

पूर्व विधायक अख़लाक़ अहमद, जो कृष्णैया हत्याकांड में सह-आरोपी थे, लेकिन बाद में बरी हो गए, कहते हैं, ‘आनंद मोहन की खासियत है कि वह एक अच्छे वक्ता थे और बिहार को जानते हैं. साथ ही वह एक महान पाठक हैं और उन्होंने जेल से किताबें लिखी हैं.’

दिप्रिंट से बात करते हुए, अहमद ने कहा, ‘1990 के दशक की शुरुआत में हम लालू द्वारा शुरू की गई जाति की राजनीति का विरोध कर रहे थे और बिहार के विनाश के खिलाफ लड़ रहे थे. लोगों में सरकार के खिलाफ भारी रोष था. और फिर आनंद मोहन, जो उच्च जाति का एक बड़ा चेहरा थे और लालू विरोधी लड़ाई के खिलाफ एक बड़ी ताकत थे.’


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कौन हैं आनंद मोहन सिंह?

सहरसा जिले में स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार में जन्मे आनंद मोहन सिंह ‘पिछड़ी जातियों की बढ़ती ताकत’ के खिलाफ उच्च जाति के प्रतिरोध में सबसे आगे थे.

हालांकि उन्होंने अपना राजनीतिक सफर जेपी आंदोलन से शुरू किया था, लेकिन 1990 तक उनके खिलाफ कोसी क्षेत्र में हत्या, अपहरण और फिरौती सहित कई मामले दर्ज किए गए थे.

1990 के विधानसभा चुनाव में वह दिवंगत पूर्व पीएम चंद्रशेखर के टिकट पर महिषी विधानसभा सीट से चुनाव जीतकर पहली बार विधानसभा पहुंचे. उसी साल पप्पू यादव ने लालू प्रसाद के प्रति निष्ठा की शपथ लेते हुए सिंहेश्वर विधानसभा सीट से निर्दलीय जीतकर विधानसभा पहुंचे.

उच्च जाति के चेहरे आनंद मोहन और पिछड़ी जाति के चेहरे के रूप में पप्पू यादव की जीत के साथ, 90 के दशक की शुरुआत में बिहार के कोसी- सहरसा, पूर्णिया, सुपौल, मधेपुरा इलाकें में कई जाति-आधारित संघर्ष हुए.

1990-1995 तक, लालू प्रसाद के खिलाफ अपना खुद का राजनीतिक संगठन, बिहार पीपुल्स पार्टी स्थापित करने के बाद सिंह का रुख आक्रामक था. उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव तब आया जब वैशाली लोकसभा उपचुनाव में उनकी पत्नी लवली आनंद ने राजद उम्मीदवार को हरा दिया.

यह पहली बार था जब लालू विरोधी ताकत ने हाथ मिला लिया था और साबित कर दिया था कि लालू को भी हराया जा सकता है. अपने सार्वजनिक भाषणों में, सिंह लालू पर निशाना साधते थे और उन्हें सार्वजनिक रूप से धमकी भी देते थे. आनंद मोहन एक कुशल वक्ता थे जिसकी उच्च जाति, खासकर, राजपूतों के युवाओं में काफी लोकप्रियता थी.

‘मेरा पहला लक्ष्य युवाओं को जोड़ना है’, उन्होंने उस वक्त इस संवाददाता से कहा था.

हालांकि, 1995 के विधानसभा चुनावों में हार के बाद उनके जीवन में कई राजनीतिक उतार-चढ़ाव आए.

1996 में, सिंह समता पार्टी में शामिल हो गए और शिवहर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीते. वह 1999 में वह फिर से जीते, लेकिन इस बार वह लालू के समर्थन से जीते थे. 

2008 में, पटना उच्च न्यायालय ने पहली बार कृष्णैया की हत्या के लिए सिंह को फांसी की सजा सुनाई. लेकिन उसी वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने पटना उच्च न्यायालय के फैसले को बदलते हुए फांसी को आजीवन कारावास में बदल दिया गया. पहले ही इस मामले के छह अन्य सह-अभियुक्तों को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया गया था. हालांकि, उस वक्त निचली अदालत के आदेश के खिलाफ सिंह की अपील को उच्च न्यायालय के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय ने भी खारिज कर दिया था.

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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