नई दिल्ली: रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (R&AW) के पूर्व अधिकारी बी. रमन की 2007 की एक किताब में दावा किया गया था कि भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को खुश करने के लिए पाकिस्तान के जनरल जिया-उल-हक पूछते थे, “एक्सीलेंसी, यूरीन दिन में कितनी बार पीना चाहिए? क्या यह सुबह की पहला यूरीन होनी चाहिए या दिन में कभी भी पिया जा सकती है?”
किताब रॉ एंड एडब्लू के काओबॉयज़: डाउन मेमोरी लेन के अनुसार, इसी तरह की चापलूसी और दोस्ती के चलते देसाई ने यह खुलासा कर दिया था कि भारत को पाकिस्तान की गुप्त रूप से सैन्य परमाणु क्षमता विकसित करने की कोशिशों की जानकारी है.
यह कथित घटना देसाई के प्रधानमंत्री रहने के समय की है, जब वे 1977 से 1979 के बीच जनता पार्टी की सरकार का नेतृत्व कर रहे थे, जो इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के बाद बनी थी.
इन आरोपों ने अब फिर से जोर पकड़ा है, खासकर ऐसे समय में जब भारत और पाकिस्तान के बीच हाल ही में तनातनी हुई है. कांग्रेस की केरल इकाई ने एक्स (पहले ट्विटर) पर भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर पर “मोरारजी जैसा ही कुछ करने” का आरोप लगाया है और इन्हीं किताब के हवाले से यह दावा किया है कि देसाई की जानकारी देने के बाद “कई रॉ एजेंट पकड़े गए, मारे गए या गायब हो गए.” हालांकि, बी. रमन की किताब में ऐसे किसी परिणाम का उल्लेख नहीं है.
इन आरोपों पर प्रतिक्रिया देते हुए, मोरारजी देसाई के पड़पोते और भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, अधिवक्ता मधुकेश्वर देसाई ने कहा कि मोरारजी देसाई भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे और उन्होंने इंदिरा गांधी को कई बार चुनौती दी. उन्होंने कहा कि यह कांग्रेस पार्टी के लिए “एक ऐतिहासिक चुभन” है, जिसने लंबे समय से प्रधानमंत्री पद को एक ही परिवार की जागीर समझा है.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “जो भी नेता उस वंश के बाहर से आता है—चाहे मोरारजी देसाई हों, लाल बहादुर शास्त्री, पी.वी. नरसिम्हा राव या फिर मनमोहन सिंह—उनकी विरासत को कांग्रेस के नेताओं द्वारा या तो छोटा कर दिया जाता है, नजरअंदाज किया जाता है या फिर उसे बदनाम कर दिया जाता है.”
‘देशद्रोह’
इस विवाद के केंद्र में विदेश मंत्री जयशंकर के वो बयान हैं, जिनमें उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर की शुरुआत में नई दिल्ली द्वारा इस्लामाबाद को एक “संदेश” भेजने की बात कही थी कि इसका लक्ष्य आतंकवादी ढांचे को निशाना बनाना था, सैन्य ठिकानों को नहीं. इन बातों का हवाला देते हुए कांग्रेस ने इस सप्ताह की शुरुआत में मंत्री पर “देशद्रोह” का आरोप लगाया और कहा कि उन्होंने पाकिस्तान के लिए “सूचना देने वाले” की भूमिका निभाई.
विदेश मंत्रालय ने इसे “तथ्यों का गलत प्रस्तुतिकरण” बताया है. हालांकि, कांग्रेस के मीडिया और प्रचार विभाग के अध्यक्ष पवन खेड़ा ने तुलना करते हुए कहा कि पाकिस्तान के साथ ऐसे “जासूसी इतिहास” भी हैं.
“इतिहास के पन्ने पलटिए और देखिए कि मोरारजी देसाई, जिन्हें जनता पार्टी और जन संघ ने प्रधानमंत्री बनाया था, ने क्या किया था. दर्ज इतिहास बताता है कि पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जिया-उल-हक के साथ एक फोन कॉल में देसाई ने भारत की खुफिया एजेंसी रॉ की पाकिस्तान में मौजूद संरचना की जानकारी दी थी. यही दशकों की मेहनत का बर्बाद होना था,” खेड़ा ने कहा. “जो उन्होंने किया वह पाप था, अपराध था. जयशंकर का किया भी पाप है. और प्रधानमंत्री की चुप्पी भी पाप है.”
हालांकि, मधुकेश्वर कहते हैं कि ये आरोप “बिना किसी ठोस आधार के और पूरी तरह राजनीतिक प्रेरणा से उठाए गए हैं.”
“ये आरोप, जो 2007 की एक किताब के गलत व्याख्या से फिर से उठाए गए हैं, कभी किसी विश्वसनीय सबूत से साबित नहीं हुए,” उन्होंने कहा और जोड़ा कि किसी भी आधिकारिक जांच या स्वतंत्र मूल्यांकन ने कभी यह साबित नहीं किया कि पूर्व प्रधानमंत्री ने भारतीय खुफिया या राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता किया.
‘समझदारी से दूर राजनीतिक नेता’
इस दावे के बारे में ज्यादा सरकारी कागजात तो नहीं हैं, लेकिन रमन की किताब में बताया गया है कि वह पहले आर एंड ए डब्ल्यू के काउंटर-टेररिज्म डिवीजन के प्रमुख थे. उन्होंने बताया है कि उनकी एजेंसी के साइंस और टेक्नोलॉजी डिवीजन ने पाकिस्तान के छुपे हुए परमाणु कार्यक्रम के बारे में जानकारी जुटाने की कोशिशें की थीं.
इस साइंस एंड टेक्नोलॉजी डिवीजन ने सबसे पहले पता लगाया था कि पाकिस्तान खै़ता में सिक्रेटली यूरेनियम बढ़ाने का प्लांट और प्लूटोनियम फिर से इस्तेमाल करने का संयंत्र बना रहा है. यह जानकारी उन्होंने एजेंसी के निगरानी डिवीजन से मिली तकनीकी खुफिया जानकारी का गहराई से विश्लेषण करके हासिल की थी.
रमन के अनुसार, देसाई ने जिया को बताया था कि वह पाकिस्तान के छुपे हुए परमाणु विकास प्रयासों से अवगत हैं, ऐसा उन्होंने एक बातचीत में कहा था. किताब में लिखा है, “अविवेकपूर्ण राजनीतिक नेता खुफिया पेशे के अनिवार्य खतरे होते हैं.”
कुछ टिप्पणीकारों का दावा है कि इस कारण आर एंड ए डब्ल्यू के कई स्रोत पाकिस्तान में खतरे में आ गए. हालांकि, इस पर कोई आधिकारिक दस्तावेज़ या जांच नहीं हुई है.
देसाई अक्सर जनरल जिया के साथ दोस्ताना संबंध बनाए रखने की कोशिशों के बारे में बात करते थे. 1991 में निशान-ए-पाकिस्तान—जो पाकिस्तान का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है—स्वीकार करते हुए उन्होंने एक बातचीत का जिक्र किया. एक उस समय के अखबार की रिपोर्ट के अनुसार, देसाई ने याद किया था कि जब वह प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने जिया से कहा था, “अगर तुम्हें कोई परेशानी हो तो तुम मुझसे आना, और जब मुझे कोई परेशानी होगी तो मैं तुमसे आऊंगा—हमें सेना के पास जाने की जरूरत नहीं है.”
निशान-ए-पाकिस्तान
‘निशान-ए-पाकिस्तान’ ने देसाई के खिलाफ साजिश के सिद्धांतों को और उलझा दिया. यह पुरस्कार, जिसका मतलब है ‘पाकिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान’, 14 अगस्त 1988 को, जो पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस है, देने की घोषणा हुई थी.
हालांकि, इसे कई कारणों से रोक दिया गया था—भारत में पैदा हुई विवादों से लेकर, पुरस्कार की घोषणा के कुछ दिन बाद राष्ट्रपति जिया की विमान दुर्घटना में मौत तक, जैसा कि उस समय की रिपोर्ट्स में बताया गया है.
देसाई ने इसे भारत के लोगों के प्रति पाकिस्तान के लोगों की एक सद्भावना की भावना माना. लेकिन उस समय कांग्रेस ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया दी थी.
17 अगस्त 1988 को ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी-आई ने कहा था कि देसाई का यह पुरस्कार स्वीकार करना संविधान के खिलाफ है. उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 18(2) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है, “भारत का कोई भी नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा.”
तब एआईसीसी-आई के महासचिव के.एन. सिंह और सांसद आर.एल. भाटिया ने कहा था कि उम्मीद की जाती है कि देसाई इस उपाधि को “उस अपमान के साथ अस्वीकार करेंगे जो इसे मिलना चाहिए.” उन्होंने यह भी कहा कि पाकिस्तान का राष्ट्रपति पंजाब में आतंकवादियों की मदद कर रहा था और शत्रुता बढ़ा रहा था.
रिपोर्ट में कहा गया, “श्री सिंह और श्री भाटिया ने कहा कि देसाई का पुरस्कार स्वीकार करना इस ‘संदेह’ को साबित करता है कि यह देरी से दिया गया प्रस्ताव पाकिस्तान के अंदरूनी संकट और भारत में फिर से एक अवसरवादी, कांग्रेस-विरोधी जनता गठबंधन के उभरने से जुड़ा था.”
यह पुरस्कार देसाई को औपचारिक रूप से 1991 में बॉम्बे में एक साधारण समारोह में दिया गया था. तब के पाकिस्तान उच्चायुक्त अब्दुल सत्तार ने कहा था कि यह पुरस्कार भारत और पाकिस्तान के बीच अच्छे पड़ोसी संबंधों को बढ़ावा देने में देसाई के योगदान के लिए दिया गया है.
‘विश्वास से परे अप्रिय’
हालांकि, देसाई के कार्यों को समर्थन भी मिला.
के.आर. मल्कानी, जो ऑर्गेनाइजर के पूर्व संपादक और भाजपा एवं आरएसएस के वरिष्ठ नेता थे, ने द टाइम्स ऑफ इंडिया को लिखा था कि पाकिस्तान ने देसाई को सम्मानित करके “खुद को सम्मानित किया” और देसाई की विदेश नीति की “महान सफलता” के रूप में तारीफ की. उन्होंने यह भी लिखा था, “हमें उम्मीद करनी चाहिए कि हम रैडक्लिफ़ लाइन के उस पार और भी नेताओं पर ज्यादा भरोसा करें.”
यह बात टी.सी.ए. राघवन की किताब द पीपल नेक्स्ट डोर: द क्यूरियस हिस्ट्री ऑफ इंडियाज़ रिलेशनशिप विद पाकिस्तान में दर्ज है, जो पाकिस्तान के पूर्व हाय कमीशनर हैं.
20 अगस्त 1988 के द इंडियन एक्सप्रेस के एक संपादकीय ‘विश्वास से परे क्षुद्र’ ने उस समय कांग्रेस की प्रतिक्रिया की आलोचना की थी. इसमें इस पुरस्कार को एक तरह की ‘टिट फॉर टैट’ कार्रवाई बताया गया और पुरस्कार देने के पीछे के कारणों पर अनुमान लगाए गए.
“सबसे बुरी बात यह है कि जनरल जिया ने भारतीय पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित पाकिस्तानी विपक्षी नेता खान अब्दुल गफ्फार खान को लेकर खफा थे और उन्होंने केवल नई दिल्ली को इसी तरह का जवाब देने की कोशिश की,” इसमें कहा गया, साथ ही कांग्रेस (आई) नेताओं द्वारा जारी बयान जिसमें “देसाई की देशभक्ति पर संदेह जताया गया, वह विश्वास से परे क्षुद्र है.”
देसाई के परपोते मधुकेश्वर का कहना है कि यह पुरस्कार उन्हें उनकी “अडिग शांति के प्रति प्रतिबद्धता” के लिए दिया गया था.
“मोरारजी भाई एक जीवनभर गांधीवादी थे, जो सत्य, अहिंसा और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में गहरा विश्वास रखते थे. ये मूल्य न केवल उनके निजी जीवन में बल्कि उनकी राजनीति में भी झलकते थे. पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने के उनके प्रयास इसी प्रतिबद्धता का हिस्सा थे,” उन्होंने दिप्रिंट से कहा.
“यह किसी आरोप से दूर, उनकी गांधीवादी कूटनीति और उस समय राजनीतिक रूप से अप्रचलित संवाद के साहसपूर्ण प्रयास को दर्शाता है. इसे धोखाधड़ी का आरोप बनाने की कोशिश बहुत ही कपटी है.”
उन्होंने कहा कि देसाई जैसे नेताओं का योगदान, “जिन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखा, नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए संघर्ष किया, और ईमानदारी से शासन किया, उन्हें सम्मान मिलना चाहिए, सस्ते हमले नहीं.”
‘सीआईए मुखबिर’
हालांकि, देसाई पर यह एकमात्र आरोप नहीं था. 1983 में पुलित्जर पुरस्कार विजेता पत्रकार सीमोर हर्श की एक किताब में देसाई को “पेड सीआईए इंफॉर्मेंट” यानी पैसे लेकर सीआईए को जानकारी देने वाला बताया गया था.
यह किताब द प्राइज ऑफ पावर: किसिंजर इन द निक्सन व्हाइट हाउस नाम से प्रकाशित हुई थी. इसमें दावा किया गया था कि देसाई को सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) की तरफ से हर साल 20,000 डॉलर दिए जाते थे, और उन्हें लिंडन जॉनसन और रिचर्ड निक्सन के शासनकाल में अमेरिका के लिए एक अहम “एसेट” माना जाता था.
देसाई ने इन आरोपों को “पूरी तरह पागलपन” और “बदनीयती से भरा हुआ झूठ” बताया था और हर्श को अमेरिकी कोर्ट में घसीटा था. उस समय की रिपोर्टों के मुताबिक, यह मानहानि का मुकदमा 5 मिलियन डॉलर से लेकर 100 मिलियन डॉलर तक का बताया गया था.
अगस्त 1983 में, देसाई ने बॉम्बे हाई कोर्ट में यह मांग की कि किताब की भारत में बिक्री रोकी जाए, लेकिन अदालत ने केवल इतना कहा कि हर प्रति की कवर पेज पर एक डिस्क्लेमर जोड़ा जाए, जिसमें लिखा हो कि वितरकों को ऐसा कोई कारण नहीं है जिससे लगे कि देसाई से जुड़े ये बयान सच हैं.
इसी बीच, अमेरिका में चले मुकदमे में देसाई के वकीलों ने पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी ए. किसिंजर को कोर्ट में बुलाया. किसिंजर ने गवाही दी कि “मेरी जानकारी के अनुसार” देसाई सीआईए एजेंट नहीं थे.
पुरानी रिपोर्टों के अनुसार, हर्श के वकील का कहना था कि यह दावा छह “उच्च स्तर के” सरकारी सूत्रों से लगातार मिली जानकारी पर आधारित था. मानहानि के इस मुकदमे में देसाई को यह साबित करना था कि हर्श का दावा झूठा था और या तो उन्हें इसका पता था या फिर उन्होंने सच को नजरअंदाज कर के यह लिखा.
अक्टूबर 1989 में, शिकागो की एक जूरी ने छह साल लंबे चले मुकदमे में हर्श के पक्ष में फैसला सुनाया.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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