लखनऊ: जब हर कोई उन्हें खारिज करने के लिए तैयार था, तब बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) प्रमुख मायावती वापस आ गई हैं. कुछ समय तक शांत रहने के बाद, 68 वर्षीय उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री अपनी राजनीतिक किस्मत को फिर से चमकाने और खुद को दलित और पिछड़े समुदायों की असली रक्षक के रूप में पेश करने की कोशिश कर रही हैं.
पार्टी की लगातार चुनावी असफलताओं के बाद अब वह पिछड़े समुदायों से संबंधित मुद्दों को उठाकर, उपचुनाव लड़ने के बारे में अपनी मान्यताओं को छोड़कर, पार्टी संगठन को नया रूप देकर, प्रेस कॉन्फ्रेंस करके और एक्स पर सक्रिय होकर अपना मूल राजनीतिक आधार फिर से हासिल करने की कोशिश कर रही हैं.
जाति और लिंग को चुनौती देते हुए भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य की मुखिया बनने का गौरव हासिल करने वाली दलित नेता मायावती ने सोमवार को राजनीति से संन्यास लेने की अटकलों को खारिज कर दिया. उन्होंने कहा कि वह अपनी आखिरी सांस तक बीएसपी के आत्मसम्मान आंदोलन के लिए प्रतिबद्ध हैं.
उनका यह बयान तब आया जब उनकी पार्टी ने 21 अगस्त को दलित संगठनों द्वारा “क्रीमी लेयर” और अनुसूचित जाति (एससी) व अनुसूचित जनजाति (एसटी) आरक्षण के उप-वर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ बुलाए गए भारत बंद में भाग लिया.
लोगों द्वारा प्यार से बहन जी कही जाने वाली मायावती सिविल सेवा पदों के लिए विवादास्पद लैटेरल एंट्री स्कीम को केंद्र सरकार द्वारा वापस लिए जाने का श्रेय भी खुद को देती हैं.
मंगलवार को लखनऊ मुख्यालय में बसपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मायावती को सर्वसम्मति से पांच साल के लिए पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया.
राजनेताओं और विश्लेषकों ने दिप्रिंट से बातचीत में उनके हालिया कदमों को इस बात का संकेत माना कि बसपा अस्तित्व के संकट से जूझ रही है, क्योंकि उसका पहले से ही घटता वोट बैंक समाजवादी पार्टी (सपा) की ओर जा रहा है और आजाद समाज पार्टी (एएसपी) के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद बसपा के विकल्प के रूप में उभर रहे हैं.
आजाद नगीना से पहली बार सांसद बने हैं, जिन्होंने सपा और बसपा दोनों उम्मीदवारों को हराया है.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि गैर-जाटवों का एक वर्ग पहले ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की ओर जा रहा है, ऐसे में बसपा को सपा और एएसपी से बड़ा खतरा है, क्योंकि जाटवों और मुसलमानों के बीच उनकी पैठ बेहतर है. पिछले लोकसभा चुनाव में बीएसपी को एक भी सीट नहीं मिली और कुल प्रतिशत भी 2.04 प्रतिशत ही रहा जबकि 2019 में वोट प्रतिशत 3.66 था.
बीएसपी नेताओं के अनुसार, मायावती को सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के बाद फिर से उभरने का मौका मिला है, जिसमें कोर्ट ने एससी/एसटी के उप-वर्गीकरण किए जाने की बात कही थी और एससी/एसटी आरक्षण से “क्रीमी लेयर” को बाहर रखने का सुझाव दिया गया था.
बीएसपी- जो पार्टी के संस्थापक कांशीराम द्वारा डी.के. खापर्डे और दीना भाना के साथ मिलकर स्थापित अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी महासंघ (बामसेफ) की राजनीतिक शाखा के रूप में उभरी- ने आरक्षण के मुद्दे को उठाया है और मायावती खुद को पिछड़ों और दलितों का “असली हितैषी” बता रही हैं.
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द करने और एससी/एसटी/ओबीसी आरक्षण को संविधान की 9वीं अनुसूची में डालने के लिए संविधान संशोधन की मांग करने के लिए बार-बार एक्स का सहारा लिया है, जिसमें उन कानूनों की सूची है, जिन्हें अदालतों में चुनौती नहीं दी जा सकती.
उन्होंने 4 अगस्त को इस मुद्दे पर अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में सुप्रीम कोर्ट से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने की अपील की. मायावती ने कहा, “जो हुआ है, बहुत बुरा हुआ है. मुश्किल से 10-11 प्रतिशत लोग (एससी/एसटी) (आरक्षण के कारण) मजबूत हुए होंगे; बाकी 90 प्रतिशत अभी भी खस्ताहाल हैं.”
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने बीएसपी कार्यकर्ताओं को भी उत्साहित किया है, जो लगातार चुनाव हारने, खासकर 2024 के लोकसभा चुनावों में अपने प्रदर्शन के बाद हतोत्साहित हो गए थे.
द हिंदू द्वारा रिपोर्ट किए गए सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के एक सर्वेक्षण के अनुसार, लोकसभा चुनाव में 56 प्रतिशत गैर-जाटव दलितों ने सपा-कांग्रेस गठबंधन को वोट दिया, जबकि 25 प्रतिशत जाटव दलितों ने गठबंधन को वोट दिया.
आठ साल के लंबे अंतराल के बाद फैसले के खिलाफ भारत बंद के दौरान कई बीएसपी कार्यकर्ता सड़कों पर उतरे.
बसपा नेता एम.एच. खान ने कहा कि बहन जी ने हमेशा दलितों और बहुजनों के हित के लिए राजनीति की है. “यह 85 प्रतिशत (बहुजन) और 15 प्रतिशत (उच्च जातियों) के बीच की लड़ाई है. अगर बहन जी बहुजनों के अधिकारों के बारे में बात नहीं करेंगी, तो क्या आरएसएस इस बारे में बात करेगा?”
एक अन्य बसपा नेता ने कहा कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा खुद को पिछड़ों के मसीहा के रूप में पेश किए जाने और सपा प्रमुख अखिलेश यादव द्वारा लोकसभा चुनावों में दलित और पिछड़े समुदायों के वोट हासिल करने में सफल होने के बाद, बसपा प्रमुख सुप्रीम कोर्ट के फैसले को खुद को “समुदायों का असली हितैषी” के रूप में पेश करने के अवसर के रूप में देखती हैं.
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अधिक OBC-मुस्लिम चेहरे और उप-चुनावों पर ध्यान
मायावती और बीएसपी लोकसभा में हार के बाद अपनी राजनीतिक किस्मत को फिर से चमकाने के लिए हरसंभव प्रयास कर रही हैं. अपने मतदाताओं को वापस पाने के प्रयासों के तहत, पार्टी ने उपचुनावों पर अपना रुख बदल दिया है और आगामी विधानसभा उपचुनावों में सभी 10 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी.
उपचुनावों की तारीखों की घोषणा अभी नहीं की गई है. लेकिन बीएसपी ने पहले ही अपनी जिला और विधानसभा स्तर की समितियों में फेरबदल कर दिया है और उपचुनावों को ध्यान में रखते हुए अधिक ओबीसी और मुस्लिम चेहरों को शामिल कर रही हैं. इसने सदस्यता शुल्क भी 200 रुपये से घटाकर 50 रुपये कर दिया है.
हालांकि बीएसपी ने अभी तक आधिकारिक तौर पर उपचुनाव के लिए अपने उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है, लेकिन राज्य बीएसपी अध्यक्ष विश्वनाथ पाल ने दिप्रिंट को बताया कि पार्टी ने मझवां, फूलपुर, कटेहरी, मिल्कीपुर और मीरापुर सीटों के लिए पांच उम्मीदवारों के नाम तय कर लिए हैं. “हमने उन्हें विधानसभा प्रभारी घोषित किया है. बीएसपी में, जो प्रभारी घोषित किए जाते हैं, वे चुनाव लड़ते हैं.”
सीटों के बंटवारे का उद्देश्य जातिगत संतुलन सुनिश्चित करना है. बीएसपी के एक को-ऑर्डिनेटर ने कहा कि दो प्रभारी दलित समुदाय से आते हैं और तीन अन्य में एक मुस्लिम, एक पिछड़ा और एक ब्राह्मण हैं.
दलित रामगोपाल कोरी को मिल्कीपुर की आरक्षित विधानसभा सीट के लिए पार्टी का प्रभारी घोषित किया गया है. आजाद समाज पार्टी के पूर्व नेता शाह नजर को एएसपी अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद का करीबी माना जाता है. उन्हें मीरापुर विधानसभा सीट के लिए पार्टी का प्रभारी घोषित किया गया है. पाल ने पुष्टि की कि इनके अलावा पार्टी ने दलित समुदाय से शिवबरन पासी, पिछड़ी जाति से अमित वर्मा और ब्राह्मण दीपू तिवारी को तीनों विधानसभा सीटों का प्रभारी बनाया है.
बसपा के एक अन्य को-ऑर्डिनेटर ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया कि पार्टी ने जातिगत संतुलन बनाए रखने के लिए सभी आरक्षित विधानसभा क्षेत्रों में ओबीसी प्रभारी रखने पर ध्यान केंद्रित किया है. बसपा ने सामान्य मझवां सीट के लिए भी दलित को अपना प्रभारी नियुक्त किया है, जिससे यह संदेश जा रहा है कि वह सपा से पीछे नहीं है. सपा इस बात पर रोशनी डालती रही है कि उसने लोकसभा चुनाव में दो सामान्य सीटों- अयोध्या और मेरठ- पर दलितों को टिकट दिया.
पाल ने कहा, “बसपा ही एक मात्र ऐसी पार्टी है जो दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के बारे में सोचती है, बाकी सब दिखावा है.”
उन्होंने कहा, “पीडीए (समाजवादी पार्टी का नारा पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक) केवल एक बहाना है और वास्तव में यह सपा परिवार के कुछ सदस्यों का गठबंधन है. एससी/एसटी/ओबीसी को उन्हें अपना नहीं समझना चाहिए.”
अपने प्रभारियों के चयन के ज़रिए बीएसपी न सिर्फ़ दलितों और पिछड़ों को संदेश दे रही है, बल्कि आज़ाद समाज पार्टी को भी संदेश देने की कोशिश कर रही है. एएसपी प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद के नगीना सीट से लोकसभा सदस्य बनने के बाद पार्टी ने अपना खाता खोला है.
मायावती किस तरह बदलाव को स्वीकार कर रही हैं
राजनीतिक कदमों के अलावा, बीएसपी प्रमुख मीडिया के सामने भी खुलकर आ रही हैं, जबकि पहले वे मीडिया की काफ़ी आलोचना करती रही हैं. मायावती ने पिछले साल सिर्फ़ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी, लेकिन चुनाव हारने के बाद इस महीने वे दो प्रेस कॉन्फ्रेंस कर चुकी हैं. अपनी सामान्य शैली से हटकर उन्होंने इन कॉन्फ्रेंस में मीडिया के सवालों के जवाब भी दिए. एक ज़िला अध्यक्ष ने कहा, “बहन जी पिछले कुछ सालों से सभी बड़े मुद्दों पर ट्वीट कर रही हैं.”
बसपा पदाधिकारी ने कहा, “यह सच है कि बहन जी अन्य पार्टियों की तरह मुख्यधारा की मीडिया के लिए खुली नहीं रही हैं और हमारी पार्टी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है. आज की दुनिया में, कोई कुछ भी कर सकता है लेकिन अगर मीडिया आपको नहीं दिखाता है, तो आप कुछ भी नहीं हैं.”
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर मिर्जा असमर बेग ने दिप्रिंट से कहा कि पार्टी के अस्तित्व के संकट ने मायावती को अपनी कार्यशैली बदलने के लिए मजबूर कर दिया है.
उन्होंने कहा कि बीएसपी ने दलितों को हल्के में लेना शुरू कर दिया था, लेकिन मायावती को अब एहसास हो गया है कि उनके मतदाता सपा की ओर चले गए हैं. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि उनके मुख्य निर्वाचन क्षेत्र जाटवों का एक वर्ग भी उन्हें वोट नहीं देता.
बेग ने कहा, “बीजेपी ने उनके मतदाताओं को अपने पाले में कर लिया है, लेकिन बीएसपी के लिए उसका वोट बीजेपी के पक्ष में जाना उतना खतरनाक नहीं है, जितना कि एसपी के पक्ष में जाना, जो कि खुद एक जाति आधारित पिछड़ों की क्षेत्रीय पार्टी है. यही कारण है कि वह कई तरह से अखिलेश यादव की नकल करती दिख रही हैं, जैसे कि सामान्य टिकट पर दलित नेता को आगे बढ़ाना और उपचुनावों को गंभीरता से लेना.”
बेग ने कहा कि हालांकि यह देखना अभी बाकी है कि ये कदम बीएसपी को फिर से खड़ा करने में कितनी मदद करेंगे, क्योंकि चंद्रशेखर आज़ाद तेज़ी से दलितों की एक वैकल्पिक आवाज़ के रूप में उभर रहे हैं और अखिलेश यादव उनके जाटव वोटों को भी अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं.
बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय (बीबीएयू) में राजनीति विज्ञान विभाग के पूर्व प्रमुख शशिकांत पाण्डेय ने कहा कि लोकसभा में हार के बाद मायावती की शैली में बदलाव देर से आया, लेकिन बेहतर है कि आया. पाण्डेय ने कहा, “हालांकि यह अहसास बहुत देर से हुआ है, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें आखिरकार एहसास हो गया है कि अगर उनकी पार्टी को यूपी में मुकाबले में बने रहना है, तो उन्हें अपनी कार्यशैली बदलनी होगी. मायावती को अहसास है कि सपा को न केवल इसलिए फायदा हुआ क्योंकि उसने ज़मीन पर काम किया, बल्कि इसलिए भी कि उसने अपनी कार्यशैली बदली.”
उन्होंने कहा, “लोकसभा चुनावों में बीएसपी को मिली करारी हार के कारण ही पार्टी में यह बदलाव आया है और ऐसा लगता है कि उनके करीबी लोगों ने उन्हें यह बदलाव अपनाने की सलाह दी है, क्योंकि बीएसपी में पार्टी लोकतंत्र बहुत कम है. हालांकि उन्होंने कभी इस बात को स्वीकार नहीं किया, लेकिन आखिरकार उन्हें इस बात का अहसास हो गया होगा कि 2019 के आम चुनावों में उन्हें जो 10 सीटें मिलीं, वह एसपी की वजह से थीं, जिसके साथ बीएसपी ने तब गठबंधन किया था.”
पाण्डेय ने कहा कि मायावती जल्द ही जनता के बीच अपनी पहुंच भी बढ़ा सकती हैं. “मायावती को अभी भी दलित समुदाय में सम्मान प्राप्त है. केवल समय ही बताएगा कि उनके प्रयास कितने सफल होंगे, क्योंकि मतदाता भी परिपक्व हो गए हैं.”
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