नई दिल्ली: हिमाचल प्रदेश ने अपना फैसला सुना दिया है. कांग्रेस को 40 और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को 25 सीटें देकर मतदाताओं ने 1985 के बाद से हर पांच साल में सरकार बदलने का ‘रिवाज’ तोड़ने की जयराम ठाकुर के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार की कोशिशों को नाकाम कर दिया है.
एक ‘एक्सीडेंटल मुख्यमंत्री’ रहे ठाकुर ने गुरुवार को तभी अपना इस्तीफा दे दिया था, जब वोटों की गिनती चल ही रही थी. पार्टी के दिग्गज नेता प्रेम कुमार धूमल के 2017 में चुनाव हार जाने के बाद ठाकुर को इस पद पर नियुक्त किया गया था, जब भाजपा ने 48.8 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 68 में से 44 सीटें जीती थीं.
लेकिन हिमाचल की हार के लिए ठाकुर से ज्यादा भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को जिम्मेदार माना जा रहा है, जिन्होंने अपने गृह राज्य में पार्टी की चुनावी रणनीति को आकार देने में काफी समय और ऊर्जा लगाई.
लोकतंत्र में जनादेश सर्वोपरि होता है। देवभूमि की जनता के जनादेश का हम सम्मान करते हैं।
भाजपा हिमाचल की जनता के कल्याण के लिए समर्पित भाव से कार्य करती रहेगी।
— Jagat Prakash Nadda (@JPNadda) December 8, 2022
यह स्वीकारते हुए कि भाजपा का अभियान ‘इस बार हिमाचल के लोगों की समस्याओं और उनकी भावनाओं को ध्यान में रखने के अनरूप नहीं था, राज्य के एक वरिष्ठ पार्टी नेता ने दिप्रिंट को बताया, ‘यह पहला चुनाव था जहां पार्टी अध्यक्ष ने पूरे अभियान को माइक्रो-मैनेज किया लेकिन उनकी रणनीति उल्टी पड़ गई.’
उक्त नेता ने आगे कहा, ‘उन्होंने (नड्डा ने) जयराम ठाकुर सरकार की कमियों को नजरअंदाज किया और कोई दखल नहीं दिया, जैसे मोदी और शाह ने गुजरात में सर्जरी (आशय सीएम और मंत्रिमंडल में बदलाव से है) की थी. उन्होंने स्थानीय मुद्दों को प्रभावी ढंग से हल करने की दिशा में भी कोई उपयुक्त कदम नहीं उठाया. एक वरिष्ठ मंत्री ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठाया, जबकि कांग्रेस ने चुनाव में स्थानीय मुद्दों पर ज्यादा फोकस किया.’
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उपचुनाव में नुकसान और टिकट बंटवारा
पहाड़ी राज्य में सत्तारूढ़ दल के प्रति घटते समर्थन का संकेत पहली बार अक्टूबर 2021 में तब मिला जब कांग्रेस ने तीन विधानसभा सीटों पर उपचुनाव में जीत हासिल की. कांग्रेस ने अरकी और फतेहपुर सीट को बरकरार रखा और जुब्बल-कोटखाई को भाजपा से छीन भी लिया.
यदि इसे पर्याप्त न भी माना जाए तो नवंबर 2021 में मंडी लोकसभा उपचुनाव के परिणाम ने यह पूरी तरह साफ कर दिया था कि कुछ क्षेत्रों में भाजपा ने मतदाताओं का समर्थन गंवा दिया है, जिसमें मंडी भी शामिल है और जो मुख्यमंत्री का गृह जिला है. यहां पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी और कांग्रेस नेता प्रतिभा सिंह ने संसदीय उपचुनाव जीता था.
मंडी उपचुनाव में कांग्रेस का अभियान काफी हद तक महंगाई पर केंद्रित था, जिसे भाजपा ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि सहानुभूति वोटों ने उनकी जीत को पक्का किया.
बहरहाल, हिमाचल भाजपा के सूत्रों ने कहा कि पार्टी उम्मीदवारों का चयन उसके एक के बाद एक उपचुनाव हारने का असली कारण रहा.
उदाहरण के तौर पर, चेतन बरागटा को जुब्बल-कोटखाई विधानसभा उपचुनाव में टिकट से वंचित कर दिया गया. ऐसा उनकी हिमाचल से ही आने वाले केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर से नजदीकी और बरागटा के पिता और धूमल के बीच रिश्तों की वजह से किया गया. बरागटा ने निर्दलीय चुनाव लड़ा लेकिन कांग्रेस के रोहित ठाकुर से हार गए, जबकि भाजपा के आधिकारिक उम्मीदवार की तो जमानत तक जब्त हो गई.
उपचुनावों में हार के बाद नड्डा— जिनका सितंबर में बतौर भाजपा अध्यक्ष कार्यकाल बढ़ गया था— ने हिमाचल में डेरा डाल दिया, जिसका मतलब था कि उनके गृह राज्य में चुनाव ‘प्रतिष्ठा का मुद्दा’ है.
यद्यपि प्रचार अभियान शुरू होने से पहले ही नड्डा ने हिमाचल में 30 से अधिक दिन बिताए लेकिन केंद्रीय नेतृत्व स्थानीय मुद्दों पर गंभीरता से ध्यान देने में विफल रहा. इसके बजाये उसने लगभग पूरी तरह पीएम नरेंद्र मोदी के करिश्मे पर भरोसा करते हुए पहाड़ी राज्य में मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की. पार्टी ने अपने निर्वाचन क्षेत्रों को पर्याप्त समय न देने वाले मंत्रियों के खिलाफ बड़े पैमाने पर सत्ता विरोधी लहर को भी नजरअंदाज कर दिया.
चुनाव के दौरान, आंतरिक सर्वेक्षणों और हिमाचल भाजपा की सिफारिशों के बावजूद पार्टी के टिकट बंटवारे पर किसी आम सहमति तक पहुंचने में नाकाम रहने के बाद खुद मोदी को ही दखल देना पड़ा, इसके बाद पार्टी की केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक में जीत की संभावना वाले उम्मीदवारों का पता लगाने के लिए तीसरे सर्वेक्षण का फैसला किया गया.
इसके बाद सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार चुनने के भाजपा के प्रयासों के तहत बैलेट बॉक्स से भरे हेलीकाप्टरों को फिर नई दिल्ली से शिमला भेजा गया. हालांकि, ऐसा लगता है कि पार्टी टिकट बंटवारे में कहीं न कहीं बुरी तरह चूक गई क्योंकि चुनाव मैदान में जयराम ठाकुर सरकार के 10 में से 8 मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा है.
हम जनादेश को विनम्रता के साथ स्वीकार करते है।
पाँच वर्षों में आदरणीय प्रधानमंत्री जी एवं केन्द्र सरकार द्वारा दिए गए बहुमूल्य सहयोग के लिए उनका विशेष आभार।
प्रदेश की जनता द्वारा सेवा के लिए दिए पांच साल के लिए धन्यवाद।
हिमाचल के सर्वांगीण विकास के लिए हम हमेशा तत्पर रहेंगे।
— Jairam Thakur (@jairamthakurbjp) December 8, 2022
उदाहरण के तौर पर, मंत्री सुरेश भारद्वाज को शिमला ग्रामीण में कांग्रेस विधायक विक्रमादित्य सिंह के खिलाफ उतारा गया जो कि दिवंगत नेता वीरभद्र सिंह के पुत्र हैं और भारद्वाज के लिए ‘सुरक्षित’ मानी जाने वाली शिमला शहरी सीट से एक नए उम्मीदवार संजय सूद को टिकट दिया गया. शिमला ग्रामीण कांग्रेस का गढ़ है और भाजपा के अपने सर्वेक्षणों में भी माना गया था कि यहां कड़ी टक्कर हो सकती है. ऐसे में माना जा रहा है कि इस जोखिम से बचा जा सकता था.
भारद्वाज और सूद दोनों कांग्रेस उम्मीदवारों से हार गए. प्रचार के दौरान भारद्वाज ने ऑन रिकॉर्ड कहा था कि केवल स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता ही शिमला ग्रामीण सीट पर उनकी जीत सुनिश्चित कर सकते हैं.
ठाकुर के बाद नंबर दो की हैसियत रखने वाले भारद्वाज के अलावा राम लाल मारकंडा, राजीव सैजल, सरवीन चौधरी, गोविंद सिंह ठाकुर, वीरेंद्र कंवर, राकेश पठानिया और राजिंदर गर्ग आदि अन्य मंत्री भी चुनाव हार गए.
फतेहपुर सीट पर राकेश पठानिया के कांग्रेस के भवानी सिंह पठानिया से हार जाने के पीछे मुख्यत: बागी भाजपा उम्मीदवार कृपाल परमार को जिम्मेदार माना जा रहा है. परमार ने तब सुर्खियां बटोरी थीं जब उन्होंने दावा किया कि मोदी ने खुद उन्हें फोन करके कहा था कि भाजपा की जीत की संभावनाओं को नुकसान न पहुंचाएं.
हालांकि, परमार फतेहपुर में कुल मतदान का केवल 4 प्रतिशत वोट ही हासिल कर पाए लेकिन बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले भाजपा के तीन अन्य बागी उम्मीदवारों ने पार्टी की तरफ से धुआंधार प्रचार के बावजूद जीत हासिल की है.
इसके विपरीत, 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के पांच मंत्री हारे थे. वहीं 2012 में भाजपा के चार मंत्रियों को हार का मुंह देखना पड़ा था.
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‘डबल इंजन’ नहीं आया पसंद?
मोदी की रैलियों और रोड शो के अलावा भाजपा ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और अन्य स्टार प्रचारकों को भी प्रचार अभियान में उतारा, जिन्होंने जनसभाओं में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) जैसे मुद्दे जोर-शोर से उठाए, खासकर यह देखते हुए कि इस पहाड़ी राज्य में मुस्लिम आबादी केवल 2 प्रतिशत ही है.
अग्निवीर योजना, पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) और सिलेंडरों और पेट्रोलियम उत्पादों के बढ़ते दामों को लेकर मतदाताओं में बढ़ती नाराजगी को नजरअंदाज कर भाजपा ने अपने चुनाव अभियान को केंद्र सरकार की उपलब्धियों और ‘डबल इंजन सरकार’ के वादे के इर्द-गिर्द केंद्रित रखा.
वहीं, कांग्रेस ने पहली कैबिनेट बैठक में ओपीएस को बहाल करने, 18-60 वर्ष की सभी महिलाओं को 1,500 रुपये देने और एक लाख सरकारी रिक्तियों को भरने का निर्णय लेने का वादा करके लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा.
भाजपा के लिए हार का एक और कारण केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की तरफ से माइक्रो-मैनेजमेंट का अभाव भी रहा है. इसके अलावा पार्टी की तरफ से कई प्रभारियों और सह-प्रभारियों को नियुक्त करने के फैसले से भ्रम की स्थिति पैदा हो गई.
गुजरात के उलट, जहां भाजपा ने चुनाव पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूपाणी और उनकी पूरी कैबिनेट में फेरबदल कर दिया और राज्य के पार्टी प्रमुख सी.आर. पाटिल के नेतृत्व में संगठन में भी बदलाव किए, हिमाचल में भाजपा ने इस तरह का कोई हस्तक्षेप नहीं किया. एक पूर्व राज्य भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि हिमाचल में पार्टी एक ‘गैर-प्रभावशाली मुख्यमंत्री और राज्य अध्यक्ष’ के साथ स्थानीय भावनाओं का आकलन किए बिना मोदी की लोकप्रियता पर बहुत अधिक निर्भर रही.
एक वरिष्ठ केंद्रीय भाजपा पदाधिकारी की राय है, ‘2014 में अमित शाह के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद संगठनात्मक पदों पर ऐसे लोग भरे पड़े थे जो अगले चुनाव में टिकट पाने की चिंता किए बिना अपना सारा समय पार्टी को समर्पित कर सकते थे.’
उक्त पदाधिकारी ने कहा, ‘ऐसे लोगों को वरीयता दी गई जब पार्टी ने राष्ट्रीय महासचिवों की नियुक्ति की लेकिन हिमाचल में ऐसे महासचिवों की नियुक्तियों और टिकट बंटवारे में नड्डा के करीबियों को प्राथमिकता दी गई. ऐसे में केंद्रीय इकाई की तरफ से तय संगठनात्मक ब्लूप्रिंट के तहत चुनाव प्रबंधन के लिए जमीनी स्तर पर कोई था ही नहीं. लेकिन दोष केवल नड्डा पर नहीं डाला जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) बी.एल. संतोष ने भी हिमाचल की रणनीति तय करने में अहम भूमिका निभाई.’
भाजपा परंपरागत रूप से निचले हिमाचल में मजबूत रही है— शांता कुमार कांगड़ा से, धूमल हमीरपुर से और ठाकुर मंडी से आते हैं. हालांकि इस बार, ऊपरी हिमाचल के शिमला क्षेत्र में ‘सेब बेल्ट’ ने पहाड़ी राज्य में भाजपा का खेल बिगाड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है, जहां हर परिवार या तो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सेब के कारोबार से जुड़ा है.
हिमाचल भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि दिवंगत नरिंदर बरागटा के विपरीत जयराम ठाकुर सरकार में बागवानी मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर सेब उत्पादकों के साथ नियमित रूप से मुलाकातें नहीं करते थे. उन्होंने कहा, ‘यहां तक कि सीएम के हस्तक्षेप के बावजूद नौकरशाही ने उनकी तरफ से नाराजगी दूर करने के लिए जताई गई प्रतिबद्धता पर कोई अमल सुनिश्चित नहीं किया.’
नतीजा यह रहा कि ‘सेब बेल्ट’ की 17 विधानसभा सीटों में से 14 पर पर भाजपा को हार का सामना करना पड़ा.
इसके अलावा सोलन की पांच सीटों पर भाजपा का सफाया हो गया और कांगड़ा की 15 में से उसे सिर्फ चार पर ही जीत मिली. मंडी और कांगड़ा ने 2017 में भाजपा की सत्ता में वापसी सुनिश्चित की थी. 2022 में, भाजपा केवल जयराम ठाकुर के गृह जिले मंडी पर अपनी पकड़ बनाए रखने में सफल रही, जहां उसने 10 में से नौ विधानसभा सीटें जीतीं.
एक अन्य फैक्टर भाजपा को नुकसान पहुंचाने वाला साबित हुआ, वो यह है कि नौकरशाहों के प्रति सीएम का रवैया उदार था. अपनी साफ-सुथरी छवि के बावजूद, यह धारणा ठाकुर पर भारी पड़ गई कि उनके पास अपने पूर्ववर्तियों शांता कुमार, धूमल और वीरभद्र की तरह प्रभावशाली नेतृत्व क्षमता का अभाव है. पुलिस भर्ती में कथित अनियमितताओं के अलावा, मुख्य सचिव की नियुक्ति में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की तरफ से दिए गए दखल ने ठाकुर की साख को और भी ज्यादा प्रभावित किया.
जयराम ठाकुर सरकार के एक पूर्व मंत्री ने दिप्रिंट को बताया कि हिमाचल के लोगों का शांता कुमार, वीरभद्र और धूमल के साथ एक ‘भावनात्मक जुड़ाव’ रहा है.
पूर्व मंत्री ने कहा, ‘धूमल अपना आखिरी विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने उनकी उम्मीदवारी को मंजूरी नहीं दी. इससे भावुक पहाड़ियों में नाराजगी बढ़ गई. टिकट को लेकर धूमल की सिफारिशें भी नजरअंदाज कर दी गईं.’ साथ ही जोड़ा कि नतीजतन, धूमल के गढ़ हमीरपुर में पार्टी सभी पांच सीटों पर हारी है.
पूर्व मंत्री ने कहा कि पार्टी के अंदरूनी सूत्रों को ऐसा संदेह है कि हिमाचल भाजपा के महासचिव (संगठन) पवन राणा ने टिकट बंटवारे से पहले मांगे गए फीडबैक पर केंद्रीय नेतृत्व को गुमराह किया होगा.
(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादन: कृष्ण मुरारी)
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