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Sunday, 22 December, 2024
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मध्य प्रदेश में कुपोषण से मरते बच्चे क्यों चुनावी मुद्दा नहीं बन रहे?

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इस साल जून में मध्य प्रदेश सरकार ने विधानसभा में बताया था कि फरवरी से मई 2018 तक 120 दिनों में कुल 7,332 बच्चों की मौत हो गई. पर अब राज्य विधानसभा चुनाव में इसकी चर्चा बहुत कम हो रही है.

नई दिल्ली: मध्य प्रदेश में चुनावी घमासान अपने चरम पर है. राज्य के प्रमुख राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस चुनावी प्रचार में जोर-शोर से लगे हुए हैं. राहुल मंदिर-मंदिर घूम रहे हैं, शिवराज सरकार भी साधु संतों को कैबिनेट दर्जा देने जैसे कदमों में उलझी दिखी. यानि प्रचार के शोर में राज्य की असल समस्याएं जैसे कुपोषण लगभग नदारद दिख रहा है.

भारत सरकार के नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे– 4 ( 2015-16) के बाल स्वास्थ्य संबंधित आकड़े के अनुसार मध्य प्रदेश में 5 साल से कम उम्र वाले कम वज़न के बच्चों की संख्या 42.8 प्रतिशत है. केवल 6.6 प्रतिशत (6-23 महीने के बीच) बच्चे ऐसे हैं जिनको पूरा पोषण मिला है! आकड़े जो उंचाई और वजन का अनुपात मापते हैं वो भी चौंकाने वाले हैं.
ऐसे में ये हैरान करने वाली बात है कि प्रचार में ये मुद्दा एक पैने हथियार के रूप में इस्तेमाल नहीं हो रहा.

एक हल्की सी आहट कांग्रेस ज़रूर पैदा कर रही है. मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ’40 दिन, 40 सवाल’ पूछ कर राज्य की सत्तारूढ़ भाजपा सरकार को घेर रही है.


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इसी अभियान के दूसरे सवाल के तहत पिछले दिनों मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर शिवराज सरकार को घेरा था.

सोशल साइट ट्विटर पर साझा किए गए इस सवाल में दावा किया गया था, ‘पूरे देश में मध्य प्रदेश में सर्वाधिक 42.8 प्रतिशत अर्थात 48 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. मध्य प्रदेश के 68.9 प्रतिशत बच्चे खून की कमी के शिकार और 15 से 49 साल की 52.4 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी की शिकार हैं. मध्य प्रदेश में एक साल तक के बच्चों की मृत्यु दर देश में सबसे अधिक 47 अर्थात 90 हज़ार बच्चे अपना पहला जन्मदिन भी नहीं मना पाते और मौत की आगोश में समा जाते हैं. मध्य प्रदेश में 46 प्रतिशत बच्चों का सम्पूर्ण टीकाकरण नहीं होता.’ इस ट्वीट में इन का आंकड़ों का स्रोत (सोर्स :- NFHS – 4, NHP – 2018 केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय) भी बताया गया है.

आंकड़े सिर्फ इतने ही नहीं हैं. इसी साल जून महीने में मध्य प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस विधायक रामनिवास रावत ने महिला बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनीस से पूछा था कि फरवरी 2018 से मई तक 120 दिनों में कुल कितने बच्चे कम वज़न के पाए गए और उनमें से कितने की मौत हुई.

चिटनीस की ओर से दिए गए जवाब में कहा गया है कि कम वज़न के 1,183,985 बच्चे पाए गए, वहीं अति कम वज़न के 103,083 बच्चे पाए गए. मंत्री ने अपने जवाब में बताया है कि शून्य से एक वर्ष की आयु के 6,024 बच्चे काल के गाल में समा गए, वहीं एक से पांच वर्ष आयु के 1,308 बच्चों की मौत हुई है. इस तरह कुल 7,332 बच्चों की मौत हुई है. यानी हर दिन करीब 61 बच्चों की मौत हुई है. बच्चों की मौत का कारण विभिन्न बीमारियां बताई गई हैं.


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इतना ही नहीं दैनिक भास्कर अखबार के मुताबिक प्रदेश के महिला एवं बाल विकास विभाग के आंकड़े ही बताते हैं कि जनवरी 2016 से जनवरी 2018 के बीच प्रदेश में 57,000 बच्चों ने कुपोषण से दम तोड़ा था .

गौरतलब है कि ये सभी सरकारी आंकड़े हैं. आम तौर पर माना यह जाता है कि सरकारी आंकड़ों में पीड़ितों की संख्या कम दर्शाई जाती हैं. यानी अगर हम वास्तविक आंकड़ों पर जाएंगे तो निसंदेह यह संख्या ज़्यादा होगी.

अब सवाल यह है कि जो मध्य प्रदेश शिशु मृत्यु दर के मामले में देश में अव्वल बना हुआ है और जहां कुपोषण से इस साल के 4 महीनों में हर दिन 61 बच्चों की मौत हुई है, वहां ये चुनावी मुद्दा क्यों नहीं है? क्यों मध्य प्रदेश के राजनीतिक दल और वहां की जनता बच्चों की मौत पर संवेदनहीन बनी हुई है? क्यों मध्य प्रदेश में बच्चों की मौत राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्र में विस्तार से जगह नहीं पाती है?

वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, ‘यह हमारे लोकतंत्र का दुर्भाग्यर्पूण अध्याय है कि जो भी मूल मुद्दे जैसे स्वच्छ पानी, शिक्षा, कुपोषण, स्वास्थ्य सुविधाएं हैं, चुनावी मुद्दे नहीं होते हैं. इसके लिए सिर्फ एक राजनीतिक दल ज़िम्मेदार नहीं है. इसमें सभी दल शामिल होते हैं. अगर हम कहें कि सिर्फ भाजपा शासित राज्यों में ऐसा है तो गलत है. कांग्रेस शासित राज्यों में भी ऐसा होता रहा है. दरअसल शासन करने वाला दल हो या विपक्षी दल इनमें से किसी के पास ऐसा कोई मॉडल नहीं है कि वह इन सुविधाओं में बेहतरी के लिए काम करें तो सबसे बेहतर यही होता है कि हिंदू मुस्लिम या दूसरी भावनात्मक बातों के आधार पर चुनाव लड़ लिया जाता है और चुनावी घोषणा में दो चार लाइनों में इन सारी बातों का जिक्र भर कर दिया जाता है.’


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वो आगे कहते हैं, ‘इसके लिए हमारे समाचार माध्यम और शहरी जनता भी जिम्मेदार है. अखबारों या चैनलों में कुपोषण से मौतें रिपोर्ट तो होती हैं लेकिन उस प्रमुखता से नहीं जैसे की जानी चाहिए. शहरी वर्ग इसे सिर्फ पढ़कर भुला देता है. यह सभ्य समाज के लिए कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि बच्चे भुखमरी से मर रहे होते हैं और इस पर प्रमुखता से बात नहीं हो रही है.’

फिलहाल अगर हम मध्य प्रदेश की बात करें तो यहां श्योपुर, गुना, विदिशा, शिवपुरी जैसे बहुत सारे ज़िले कुपोषण की चपेट में हैं. यहां से भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों के बड़े नेता चुनाव लड़ते या जीतते रहे हैं लेकिन चुनावों पर इनकी चर्चा सिर्फ इतनी ही करते हैं जितने से काम चल जाय.

कुपोषण को चुनावी मुद्दा बनाने के सवाल पर कांग्रेस प्रवक्ता रवि सक्सेना कहते हैं, ‘कांग्रेस इस मुद्दे को हर प्लेटफॉर्म से उठा रही है लेकिन सरकार चिकना घड़ा हो गई है. इसको किसी भी बात से फर्क नहीं पड़ता है. अगर हम सामाजिक सूचकांकों की बात करें तो यह सरकार पूरी तरह से विफल हो गई है. कुपोषण से होने वाली मौतों में मध्य प्रदेश सरकार पिछले पांच सालों से नंबर वन पर कायम है. हम यह सवाल उठा रहे हैं लेकिन सरकार कोई जवाब नहीं दे रही है.’

हालांकि कुपोषण के मुद्दे पर कांग्रेस की चुनावी ज़िम्मेदारी सिर्फ सवाल पूछने और प्रेस कांफ्रेंस में हल्के फुल्के ढंग से उठाने के अलावा कुछ और नहीं दिखाई देता है. अभी तक पार्टी ने प्रदेश में अपना चुनावी घोषणापत्र भी नहीं जारी किया है जिससे यह पता चल सके कि अपने चुनावी अभियान में कांग्रेस ने कितनी जगह कुपोषण को दी है.


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वहीं, अगर हम सत्तारूढ़ भाजपा की बात करें तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 14 सितंबर, 2016 को समीक्षा बैठक में कुपोषण पर श्वेत-पत्र जारी करने की बात कही थी. इसके लिए समिति का गठन किया जा चुका है, मगर दो साल बीत जाने के बावजूद समीक्षा के बिंदुओं का निर्धारण नहीं हो पाया है और श्वेत-पत्र के लिए समिति की बैठक भी नहीं हुई.

श्वेत पत्र का अर्थ होता है कि राज्य सरकार कुपोषण के मुद्दे के हर पहलू पर बात करेगी. अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन की विधियां गिनाती, अपनी उपलब्धियां और सफलता बताती, विफलताएं और कुपोषण से आगे कैसे लड़ना है, यह नीति बनाती और समस्या से संबंधित विभिन्न आंकड़ें पेश करती.

मध्य प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता रवि सक्सेना कहते हैं, ‘मध्य प्रदेश में कुपोषण, शिशु मृत्यु या मातृ मृत्यु दर जैसे सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर भाजपा सरकार ने तेज़ी से काम किया है. इसमें कमी आई है. हमारे लिए यह अभी चुनौती बनी है लेकिन हमारे प्रयास सार्थक और सफल होते हैं इसलिए जनता हम पर विश्वास करती है. इसलिए ये मुद्दे चुनावी मुद्दे नहीं बन पा रहे हैं.’

हालांकि वहीं मध्य प्रदेश में काम करने वाले कुछ गैर सरकारी संगठनों का दावा है कि प्रदेश का महिला एवं बाल विकास विभाग और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग अपना आवंटित बजट ही ख़र्च नहीं करते हैं.


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राजनीतिक विश्लेषक लोकेंद्र सिंह कहते हैं, ‘जहां तक मध्य प्रदेश में कुपोषण और मातृ मृत्यु दर जैसे सूचकांकों का चुनावी मुद्दा नहीं बन पाने की बात है तो इसके लिए निसंदेह विपक्ष के रूप में कांग्रेस की भूमिका ज़िम्मेदार है. आपको याद होगा कि कैसे गोरखपुर में बच्चों की मौत का मामला सुर्खियों में आ गया था लेकिन मध्य प्रदेश में कुपोषण से बड़ी संख्या में बच्चों की मौत को कांग्रेस उन इलाकों में चुनावी मुद्दा नहीं बना पा रही है जहां पर यह सर्वाधिक है.’

वहीं, मध्य प्रदेश के सामाजिक कार्यकर्ता सचिन कुमार जैन कहते हैं, ‘हमारे यहां बच्चों से जुड़ी समस्याएं राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित नहीं करती हैं. इसका कारण हमारा सामाजिक ढांचा है. अभी भी बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य या नौकरी की बातों पर अलग से बात नहीं होती है. समाज में मान्यता है कि परिवार के किसी सदस्य को नौकरी मिल गई तो अब बच्चों को कोई समस्या नहीं होगी.’

वो आगे कहते हैं, ‘कुपोषण, बच्चों के स्वास्थ्य और बाल सुरक्षा जैसे मुद्दों पर बात होनी अभी बस शुरू हुई है. राजनीतिक दल मुद्दों का चयन समाज के बीच से ही करते हैं. तो पहली ज़िम्मेदारी समाज की है कि वह इन मुद्दों पर गौर करे और राजनीतिक दलों को इन मुद्दों पर बातचीत करने के लिए मजबूर करे. अभी व्यवहारिक रूप से स्थिति यह है कि अगर कोई राजनीतिक दल यह दावा भी कर दे कि मध्य प्रदेश को वह कुपोषण से मुक्त कर देगा तब भी शायद ही उसे जीत मिल पाए. दूसरी ज़िम्मेदारी राजनीतिक दलों की है. वे इन मुद्दों पर लोगों को जागरूक करें और जनकल्याणी योजनाएं बनाएं.’

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