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Friday, 29 March, 2024
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मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा की क्या भूमिका रहेगी?

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आंकड़ों पर गौर करें तो कांग्रेस और भाजपा के सीधे मुकाबले वाले मध्य प्रदेश में बसपा की स्थिति वोटकटवा से ज़्यादा कुछ नहीं है.

नई दिल्ली: इस बार मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बसपा के बीच गठबंधन होने की चर्चाएं ज़ोरों पर रहीं. प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ की ओर से कई बार यह दावा किया गया कि कांग्रेस और बसपा के बीच गठबंधन अंतिम चरण में है. लेकिन, इस पर विराम तब लगा जब 20 सितंबर को बसपा की तरफ से चुनाव लड़ने वाले 22 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी गई. साथ ही पार्टी की मुखिया मायावती ने बयान दिया कि मध्य प्रदेश में बसपा अकेले ही चुनाव लड़ेगी. इसके कुछ दिनों बाद 03 अक्टूबर को मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस कर कांग्रेस पर तीखा हमला भी बोला. उन्होंने गठबंधन न होने के लिए कांग्रेस और उसके अहंकार को ज़िम्मेदार ठहराया. इस दौरान उन्होंने कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को भाजपा का एजेंट बताया.

कांग्रेस और बसपा का गठबंधन नहीं होने का प्रभाव

बसपा के साथ कांग्रेस का गठबंधन नहीं हो पाने के अलग-अलग कारण बताए गए. मायावती के प्रेस कांफ्रेंस के बाद 04 अक्टूबर को एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ कहते हैं कि मायावती उन सीटों की मांग कर रही थीं जहां से बसपा जीत ही नहीं सकती थी. उन्होंने कहा, ‘जिन सीटों की सूची बसपा की ओर से दी गई थी, उन सीटों पर उसकी जीत की कोई संभावना ही नहीं थी. बसपा 45 सीटों की मांग कर रही थी.’

उन्होंने आगे कहा, ‘हमारे लिए बात संख्या की नहीं थी. हम देख रहे थे कि सीटें वे हों जिन पर बसपा भाजपा को हरा दे. अब संख्या की बात हो और वे भाजपा को न हरा सकें तो इसका कोई मतलब नहीं. ये तो भाजपा को सीटें गिफ्ट करना हुआ.’

अब यह ठीक है कि कई सीटों पर बसपा के चुनाव न लड़ने से कांग्रेस को लाभ हो सकता था. लेकिन, 2013 के आंकड़े बताते हैं कि ऐसी महज 40 सीटें ही होतीं जहां दोनों दल मिलकर भाजपा को हरा सकते थे.

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ग्वालियर में रहने वाले स्वतंत्र पत्रकार दीपक गोस्वामी कहते हैं, ‘विशेषज्ञों का यह कहना कि 2013 में यदि कांग्रेस और बसपा का गठबंधन होता तो प्रदेश में पक्ष और विपक्ष की तस्वीर विपरीत होती, तो यह भी कुतर्क है क्योंकि 116 सीटों के बहुमत वाली विधानसभा में 58 सीटें कांग्रेस को मिलीं और 4 बसपा को. यदि गठबंधन होता तो महज 40 सीटों पर ही तब अतिरिक्त लाभ मिलता. जिससे कि संख्या 102 पर पहुंचती. यह सरकार बनाने के लिए नाकाफी है.’

वो आगे कहते हैं, ‘बसपा के साथ गठबंधन न होने की स्थिति में कांग्रेस को बहुत नुकसान नहीं है. पहली बार ज़्यादा सीट मांगे जाने की तो है ही. ऊपर से इस बार प्रदेश में सवर्ण भाजपा से नाराज़ दिख रहा है. सवर्ण सरकार के खिलाफ आंदोलन चला रहा है. चुनावों में भाजपा से नाराज़ सवर्ण के सामने कांग्रेस ही एक विकल्प होगा. लेकिन बसपा और कांग्रेस के गठबंधन की स्थिति में उसके कांग्रेस से भी मुंह मोड़ने की संभावना बनती. क्योंकि प्रदेश का सवर्ण बसपा को लेकर सकारात्मक सोच नहीं रखता है. इसलिए कांग्रेस को यहां भी कहीं न कहीं नुकसान उठाना पड़ता.’


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फिलहाल अगर हम बसपा के पक्ष से भी देखें तो उसे भी बहुत नुकसान नहीं है. 230 सीटों पर लड़ने वाली पार्टी का 15-20 सीटें पाकर संतुष्ट हो जाना संभव ही नहीं है. ऐसा करके तो प्रदेश में वह अपना अस्तित्व ही दांव पर लगा देती. अभी उसके कार्यकर्ता कम या ज़्यादा पूरे राज्य में फैले हैं. लेकिन गठबंधन हो जाने की स्थिति में वह सिमट जाते.

क्या है बसपा की अहमियत?

आखिर मध्य प्रदेश में बसपा की अहमियत कितनी है? वह किसको नुकसान पहुंचाएगी और कांग्रेस उससे गठबंधन को लेकर इतनी बेकरार क्यों दिखी? इसे सबसे पहले आंकड़ों में समझते हैं. 2013 में हुए विधानसभा चुनाव में बसपा ने सभी 230 सीटों पर चुनाव लड़कर 4 सीटों पर जीत दर्ज की. इसके अलावा वह 11 विधानसभा सीटों पर दूसरे स्थान पर रही. इन 11 सीटों पर उसे 40,000 से अधिक मत प्राप्त हुए. 21 सीटों पर उसे तीस हज़ार से अधिक मत मिले तो 64 सीटों पर उसे दस हज़ार से ज़्यादा वोट मिले.

मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने वैसे तो 58 सीटों पर जीत हासिल की थी लेकिन ऐसी सीटों की संख्या पर्याप्त है जहां उसके प्रत्याशियों को नज़दीकी मुकाबलों में हार का सामना करना पड़ा. ऐसी सीटों पर हार और जीत का अंतर 10 हज़ार से कम रहा है. कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता था कि यदि बसपा से गठबंधन हो जाता तो निसंदेह उनकी स्थिति मज़बूत होती.

कितनी मज़बूत है बसपा?

बसपा ने संयुक्त मध्य प्रदेश (मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) में पहली बार 1990 में विधानसभा चुनावों में दो सीटें जीतकर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई थी. उस समय मध्य प्रदेश की विधानसभा में 320 सीटें थी. हालांकि अगर आज के मध्य प्रदेश की बात की जाए तो बसपा ने केवल एक- देवतालाब की सीट जीती थी. लेकिन इसके अगले ही साल यानी 1991 में हुए लोकसभा चुनाव में बसपा ने रीवा सीट जीत ली थी. रीवा सामान्य सीट थी और बसपा के भीम सिंह ने भाजपा व कांग्रेस उम्मीदवारों का हराकर यह जीत हासिल की थी. इसके बाद 1993 में बसपा का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा. वर्तमान मध्य प्रदेश की बात की जाए तो बसपा ने 10 सीटों पर जीत दर्ज की.

इसी तरह साल 1996 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने मध्य प्रदेश से दो सीटें जीत ली थीं- रीवा और सतना. बाद में 1998 में यह संख्या घटकर आठ रह गई. बाद के विधानसभा चुनावों में उसकी सीटें सिमटती गई. 2003 में वो जहां दो सीटों पर जीत हासिल कर पाई तो 2008 में उसे 7 सीटों पर सफलता मिली. इस दौरान बसपा ने मध्य प्रदेश के लगभग सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारा था. 2013 में उसने 227 सीटों पर चुनाव लड़ा था. हालांकि, 194 सीटों पर उसकी जमानत ज़ब्त हो गई थी.


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अगर हम बसपा के कुल मत प्रतिशत की बात करें तो 2013 में वह 6.29 प्रतिशत, 2008 में 8.72 प्रतिशत, 2003 में 7.26 प्रतिशत और 1998 में 6.04 प्रतिशत, 1993 में 7.02 प्रतिशत मत ही प्राप्त कर सकी.

यही नहीं पिछले छह विधानसभा चुनावों के दौरान प्रदेश की लगभग सभी सीटों के चुनाव लड़ने के बावजूद वह अब तक केवल 32 सीटें ही जीत सकी है. यह सफलता उसे प्रदेश की अलग-अलग 24 सीटों पर मिली है. वैसे विंध्य, मालवा-निमाड़, बुंदेलखंड, ग्वालियर-चंबल, मध्य भारत और महाकौशल छह हिस्सों में बंटे मध्य प्रदेश में बसपा का दबदबा केवल विंध्य और ग्वालियर-चंबल तक ही सीमित रहा है. छह विधानसभा चुनावों में जिन 24 सीटों पर बसपा जीती है उनमें 10 विंध्य क्षेत्र की और 14 ग्वालियर-चंबल की रही हैं.

फिलहाल अभी की स्थिति में कांग्रेस और भाजपा के सीधे मुकाबले वाले मध्य प्रदेश में बसपा की स्थिति वोटकटवा से ज़्यादा कुछ नहीं है.

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