मुंबई: शिवसेना के कार्यकर्त्ताओं की एक भीड़ शनिवार को खार में अमरावती सांसद नवनीत राणा और उनके विधायक पति रवि राणा के मुंबई आवास के बाहर जमा हो गई. ये भीड़ बैरिकेड्स तोड़कर उनके घर में घुसने की कोशिश कर रही थी.
उसी समय बड़ी संख्या में शिव सैनिक उपनगर बांद्रा में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के आवास मातोश्री के बाहर भी इकठ्ठा हो गए और राणा परिवार के खिलाफ नारेबाज़ी करने लगे.
इन आक्रामक प्रदर्शनों की चिंगारी दरअसल राणा दंपत्ति के उस ऐलान के बाद भड़की, जिसमें उन्होंने कहा था कि वो मातोश्री के बाहर ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करेंगे. इस विवाद के बाद राणा दंपत्ति को, जिन्होंने 2019 में बीजेपी को समर्थन का ऐलान कर दिया था, देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया है.
बीजेपी ने नवनीत और रवि राणा की गिरफ्तारी की आलोचना की है और पूछा है कि क्या ठाकरे की अगुवाई वाली महाराष्ट्र सरकार हनुमान चालीसा को देशद्रोह के समान मानती है, जबकि विपक्षी नेता देवेंद्र फड़णवीस ने भजन गाने के लिए सोमवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और सरकार से कहा कि अगर उसमें हिम्मत है तो उनपर देशद्रोह का मुक़दमा करे.
विवाद की जड़ें महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) अध्यक्ष राज ठाकरे की उस आपत्ति में है, जो उन्होंने इसी महीने मस्जिदों में लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल के खिलाफ जताई थी और ठाकरे की महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार को इस बारे में कार्रवाई करने के लिए 3 मई तक का अल्टीमेटम दिया था.
एमएनएस के इस ऐलान के बाद (जिसका बीजेपी ने समर्थन किया) महाराष्ट्र में एक राजनीतिक खींचतान शुरू हो गई है, जिसमें एमएनएस, बीजेपी और शिवसेना सब अपने हिंदुत्व एजेण्डा पर ज़ोर देते नज़र आ रहे हैं.
लेकिन महाराष्ट्र की राजनीतिक चर्चा में ये मोड़ कोई नया नहीं है.
पिछले चार दशकों में शिवसेना और बीजेपी दोनों ने सहयोगी और विरोधी दोनों हैसियतों से अपनी हिंदुत्व प्रतिबद्धता को आगे बढ़ाने के लिए बार-बार मंदिर-मस्जिद राजनीति का सहारा लिया है.
राजनीतिक विश्लेषक प्रकाश बाल ने कहा, ‘अब हो ये रहा है कि बीजेपी और शिवसेना के बीच इस बात को लेकर मुक़ाबला है कि किसका हिंदुत्व ज़्यादा वास्तविक है. ये सिर्फ सुविधा की सियासत है’.
महाराष्ट्र राजनीति में हिंदुत्व
सभी राजनीतिक दलों के नेताओं ने दिप्रिंट से कहा कि मस्जिदों में लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल एक ऐसा मुद्दा है, जो या तो चुनावों से पहले आता था या फिर उसे बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) जैसे हिंदुत्व संगठन उठाते थे.
केवल 1990 के दशक में आकर ही इस मुद्दे को राजनीतिक संरक्षण मिला, जब शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे ने पार्टी को एक नए अंदाज़ में फिर से खड़ा करने के लिए इस मुद्दे को उठा लिया.
ये लगभग वही समया था जब शिवसेना ने एक बड़े हिंदुत्व एजेंडा को अपना लिया और सिर्फ ‘मिट्टी के बेटों’ के लिए एक संगठन की अपनी पहचान को पीछे छोड़ दिया.
शिवसेना की परिकल्पना जून 1966 में एक राष्ट्रवादी आंदोलन के रूप में की गई थी, लेकिन 1980 के दशक तक आते-आते बाल ठाकरे की समझ में आ गया कि मुम्बई से बाहर विस्तार करने के लिए पार्टी को और अधिक वैचारिक गोलाबारूद की ज़रूरत थी. यही कारण है कि 1985 में सेना ने कोंकण क्षेत्र के महाड़ में आयोजित पार्टी के दूसरे अधिवेशन में, अधिकारिक रूप से हिंदुत्व को एक एजेण्डा के तौर पर अपना लिया.
एक तेज़ तर्रार वक्ता लेखक और इलस्ट्रेटर बाल ठाकरे ने अपने भाषणों और कॉलमों के ज़रिए, अपनी तमाम सलाहियतों को शिवसेना के हाल ही में खोजे गए हिंदुत्व एजेण्डा को आगे बढ़ाने में लगा दिया.
उसके बाद जल्द ही पार्टी ने भगवा रंग में अपना पहला चुनाव लड़ा. (मुम्बई की विले पार्ले असेम्बली सीट पर एक उप-चुनाव). सेना के रमेश प्रभु ने ये सीट जीत ली और 1990 में फिर से इस पर क़ब्ज़ा किया. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि 1980 के दशक का विले पार्ले उप-चुनाव वो चुनावी लड़ाई थी, जिसने हिंदुत्व को महाराष्ट्र राजनीति की मुख्यधारा में पहुंचा दिया.
इसी की परिणति 1989 में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन के रूप में हुई.
बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव विनोद तावड़े ने बताया, ‘जब बालासाहेब और प्रमोद महाजन (बीजेपी नेता जो सेना-बीजेपी गठबंधन के प्रमुख आर्किटेक्ट थे) 1989 में चुनाव से पहले मिले, तो प्रमोद जी ने कहा कि अगला दशक किसानों का दशक होगा. उस समय बालासाहेब ने कहा था कि अगला दशक हिंदुत्व का दशक होगा’.
तावड़े ने आगे कहा, ‘1990 के पूरे दशक में जब हिंदुत्व पहली बार राजनीति का हिस्सा बना, तो बाला साहेब अकेले हिंदुत्व आईकॉन थे, जब तक नरेंद्र मोदी उभरकर नहीं आए थे.’
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बाल ठाकरे की ‘महा आरतियां’
राजनीतिक विश्लेषक बाल ने शिवसेना-बीजेपी गठबंधन पर कहा, ‘शिवसेना हिंदुत्ववादी पार्टी नहीं थी. वो बीजेपी थी. लेकिन बीजेपी का महाराष्ट्र में कोई वजूद नहीं था इसलिए वो शिवसेना की पीठ पर सवार हो गई और ‘हिंदू ह्रदय सम्राट’ के तौर पर बाल ठाकरे की छवि को हवा दी, क्योंकि उससे बीजेपी को भी मज़बूत होने में मदद मिली. ये प्रमोद महाजन की सियासत थी’.
1980 के दशक के मध्य के बाद, मस्जिदों के बाहर नमाज़ पढ़ने की मुसलमानों की प्रथा और अज़ान के लिए लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल के जवाब में हिंदुत्व संगठनों ने मंदिरों में ‘महा आरतियां’ आयोजित करनी शुरू कर दीं.
बाल ठाकरे और उनकी शिवसेना ने 1992-93 के दंगों के आसपास ऐसी ‘महा आरतियां’ विशेष रूप से भव्य स्तर पर आयोजित कराईं.
1992-93 के दंगों पर अपनी रिपोर्ट में श्रीकृष्णा आयोग ने महा आरतियों को उन कारकों में से एक बताया, जिनसे मुम्बई में हिंसा को उकसावा मिला.
हालांकि, बहुत से शिवसेना नेता सार्वजनिक सड़कों पर नमाज़ पढ़े जाने पर ऐतराज़ करने में गर्व महसूस करते हैं, लेकिन कुछ लोग हवाला देते हैं कि वो शिवसेना की अगुवाई वाली सरकार ही थी (1995-1999), जिसने मुम्बई के फ्लोर स्पेस इंडेक्स (एफएसआई) को बढ़ाया था- वो अनुपात जो किसी प्लॉट पर निर्माण की सीमा को परिभाषित करता है.
कुछ पार्टी नेताओं का कहना है कि इस क़दम से मुसलमानों को फायदा हुआ, जिन्हें अब मस्जिद के बाहर सड़कों पर नमाज़ पढ़ने की ज़रूरत नहीं थी.
1990 का दशक वो समय भी था जब बाल ठाकरे ने पहली बार मस्जिदों में लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल पर सवाल खड़ा किया.
बीजेपी सांसद मनोज कोटक ने दिप्रिंट से कहा, ‘1990 के दशक में ये बाला साहेब ही थे जिन्होंने सबसे पहले लाउडस्पीकरों पर राजनीतिक बहस शुरू की थी, लेकिन शिवसेना अब हिंदुत्व से बहुत दूर है. वो काफी हद तक इस विषय पर इसलिए ख़ामोश है, क्योंकि उसने अब अपने आपको तथाकथित सेक्युलर पार्टियों के साथ जोड़ लिया है और अब डरी हुई है.’
शिवसेना सांसद विनायक राउत ने जवाब दिया, ‘बाला साहेब कहते थे कि किसी भी उपासना स्थल को विकास की राह में आड़े नहीं आना चाहिए, चाहे वो मस्जिदें हों या मंदिर हों. बाला साहेब ने उस समय लाउडस्पीकरों के बारे में भी बात की थी. आज भी शिवसेना बालासाहेब की विचारधारा से डिगी नहीं है. हम बस ये कह रहे हैं कि ये विषय एक राष्ट्रीय मुद्दा है और इस पर केंद्र को कोई निर्णय लेना चाहिए.’
मंदिर-मस्जिद सियासत, तब और अब
1993 के मुम्बई धमाकों से पहले हिंदुत्व की मज़बूत भवानाएं उभरने को याद करते हुए, एक बीजेपी सांसद, जिन्होंने नाम न बताने की शर्त पर दिप्रिंट से बात की, कहा, ‘जिस तरह से मुसलमान अपने धर्म को लेकर एक चरम सीमा पर थे, ज़ोर-ज़ोर से अज़ान देते थे और नमाज़ के समय सड़कों को ब्लॉक कर देते थे, उसे लेकर लोगों में एक तरह की नाराज़गी थी.’
बीजेपी नेता ने आगे कहा कि धमाकों के बाद कहीं जाकर एक ज़्यादा परिपक्व भावना क़ायम हुई- जिसमें हर मुसलमान को राष्ट्र-विरोधी नहीं समझा जाता था- और दशक के अंत तक आते आते हिंदुत्व राजनीति की मज़बूत अभिव्यक्ति का ज्वार ठंडा पड़ गया.
लेकिन ‘मंदिर-मस्जिद’ की राजनीति रह-रहकर सर उठाती रहती थी, जब उसे उठाने वाली राजनीतिक पार्टियों को कुछ साबित करना होता था.
मसलन, 2003 में, 10 दिन के गणेश उत्सव के दौरान बीजेपी और शिवसेना ने पूरे मुम्बई और उसके सेटेलाइट शहरों में ‘महा आरतियों’ का आयोजन किया. ये आयोजन गेटवे ऑफ इंडिया और झावेरी बाज़ार पर हुए बम धमाकों के दो सप्ताह के भीतर किए गए थे.
तत्कालीन महाराष्ट्र बीजेपी अध्यक्ष गोपीनाथ मुंडे ने कहा था कि ‘महा आरतियां’ राज्य में आतंकवाद को ख़त्म करने में, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) सरकार की विफलता के विरोध में की जा रहीं थीं.
2010 में, शिवसेना ने वार्षिक दशहरा उत्सव में प्रदूषण नियमों का उल्लंघन करने की आलोचना के जवाब में,सामना में बहुत कड़े शब्दों में एक संपादकीय लिखा, जिसमें कहा गया था कि मस्जिदों में लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल से भी ध्वनि प्रदूषण फैलता है.
2019 में जब से बीजेपी और शिवसेना ने अपने रिश्ते तोड़े और सेना ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ हाथ मिलाकर महाराष्ट्र में सरकार बनाई, तब से शिवसेना का रुख़ यही रहा है कि बीजेपी-शासित केंद्र को इस मुद्दे को सुलझाना चाहिए.
2020 में, एक मुम्बई शिवसेना पदाधिकारी के एक अज़ान प्रतियोगिता को प्रोत्साहन देने पर उठे विवाद के बीच, सेना ने सामना में एक संपादकीय छापा, जिसमें केंद्र से मस्जिदों में लाउडस्पीकर के इस्तेमाल को कम करने का आग्रह किया गया था.
शिवसेना सांसद विनायक राउत ने कहा कि लाउडस्पीकर पर चल रहा विवाद एमएनएस ने ही महाराष्ट्र सरकार को परेशानी में डालने के लिए फिर से खड़ा किया है. राउत ने कहा, ‘वो (एमएनएस) 100 प्रतिशत बीजेपी के हाथ का मोहरा है’.
लेकिन बीजेपी नेता विनोद तावड़े ने इस आरोप को ख़ारिज कर दिया. उन्होंने कहा, ‘एमएनएस हिंदुत्व की उस जगह को भरना चाहती है जिसे शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ हाथ मिलाकर ख़ाली किया है. ये बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए नहीं है’.
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