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Sunday, 22 December, 2024
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कौन है कन्हैया? कांग्रेस में शामिल किए गए JNU के पूर्व छात्र नेता की क्यों अनदेखी करेगी RJD

कन्हैया कुमार 28 सितंबर को दिल्ली में कांग्रेस में शामिल हो गए. पहले वो सीपीआई के सदस्य थे और 2019 में बेगूसराय से अपना पहला चुनाव हार गए थे.

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पटना: 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में महागठबंधन की एक प्रमुख पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने पूर्व जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को- जो उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के सदस्य थे- अपने उम्मीदवारों के प्रचार के लिए नहीं बुलाया था.

कन्हैया ने महागठबंधन के परचम तले चुनाव लड़ रहे, केवल तीन सीपीआई उम्मीदवारों के लिए प्रचार किया. पूर्व छात्र नेता के अब कांग्रेस में आने के बाद, जो महागठबंधन की दूसरी सहयोगी है, आरजेडी का कोई इरादा नहीं है कि 2024 लोकसभा चुनावों में, वो इस बेगूसराय वासी के प्रति अपने रुख में कोई बदलाव करेगा.

आरजेडी सदस्यों का कहना है कि वो केवल पूर्व उपमुख्यमंत्री और पार्टी प्रमुख लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव के साथ काम करना चाहते हैं.

2020 के प्रचार का उल्लेख करते हुए आरजेडी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी ने दिप्रिंट से कहा, ‘आरजेडी उम्मीदवार और यहां तक कि कांग्रेस उम्मीदवार भी चाहते थे कि उनके लिए कन्हैया कुमार नहीं बल्कि तेजस्वी यादव प्रचार करें.’

उन्होंने आगे कहा, ‘तेजस्वी और कन्हैया के बीच कोई मुकाबला नहीं है. कांग्रेस कन्हैया के साथ क्या करती है, ये उसकी समस्या है’.

मंगलवार को कांग्रेस में शामिल होने के दौरान कन्हैया ने कहा था कि छोटे जहाज़ों को बचाने के लिए पार्टी को बचाने की जरूरत है. उन्होंने कहा देश में केवल कांग्रेस पार्टी है, जो वैचारिक युद्ध लड़ सकती है और उसकी अगुवाई कर सकती है. ‘मेरे कंधों पर ये एक ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी है, जिससे मैं इनकार नहीं कर सकता’.

तिवारी ने उसके बाद कन्हैया का मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि चूंकि कांग्रेस को बचाना उनकी ‘ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी’ है, इसलिए वयोवृद्ध पार्टी को उन्हें अपना अध्यक्ष बना लेना चाहिए.

34 वर्षीय कन्हैया कुमार का ये स्पष्ट तिरस्कार, दूसरे आरजेडी नेताओं के द्वारा भी सुना जा सकता है.

तेजस्वी के एक करीबी सहयोगी और आरजेडी विधायक भाई वीरेंद्र ने कहा, ‘कन्हैया कुमार कौन है? कभी सुना नहीं उसके बारे में. हमारे लिए तो बस तेजस्वी यादव हैं’.


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‘कन्हैया को लेकर फूट’

कन्हैया कुमार 2016 में राष्ट्रीय मंच पर तब उभरकर आए, जब संसद हमले के दोषी अफज़ल गुरु की फांसी की तीसरी बरसी पर जेएनयू में एक विरोध मार्च का आयोजन किया गया. उसके बाद कन्हैया और कुछ अन्य छात्रों पर मार्च में कथित रूप से ‘राष्ट्र-विरोधी’ नारे लगाने के आरोप में राजद्रोह का मुकदमा दर्ज कर दिया गया.

राजनीति में उनका पदार्पण 2019 लोकसभा चुनावों में बेगूसराय से सीपीआई उम्मीदवार के तौर पर हुआ, जहां वो बीजेपी उम्मीदवार केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह से हार गए. सीपीआई ने कन्हैया को बेगूसराय से तब मैदान में उतारा, जब महागठबंधन के सीट बंटवारे की गणना में उसे बाहर कर दिया गया था.

समस्या सिर्फ यही नहीं है कि एक राष्ट्रव्यापी नरेंद्र मोदी-विरोधी छवि के रूप में कन्हैया कुमार तेजस्वी पर भारी पड़ जाते हैं. आरजेडी उन्हें 2019 चुनावों में मुस्लिम वोटों को बांटने का जिम्मेवार मानती है. उसका मानना है कि इसी वजह से उसके उम्मीदवार तनवीर हसन की हार हुई, जो एक एमएलसी हैं.

जहां कन्हैया ये चुनाव 4.2 लाख से अधिक मतों के अंतर से हारे, वहीं आरजेडी का हिस्सा इससे भी कम था. आरजेडी को मोदी लहर में अपनी हार से नहीं बल्कि इस बात से धक्का लगा कि कन्हैया ने करीब 50 प्रतिशत मुसलमान वोटों को तोड़ लिया जबकि उनकी खुद की जाति- भूमिहार- मजबूती से गिरिराज सिंह के पीछे खड़ी रही.

एक आरजेडी नेता ने कहा, ‘लेकिन चुनावों के बाद कन्हैया ने जो किया, उसने खतरे के संकेत दे दिए. जब सीएए-विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था, तो उसने बिहार के पूर्वी चंपारण, किशनगंज और पूर्णिया जैसे मुस्लिम-बहुत इलाकों का दौरा किया और अपने आपको मुसलमानों के रक्षक के तौर पर पेश किया लेकिन उसने एक बार भी तेजस्वी यादव का जिक्र नहीं किया’.

‘इसके नतीजे में तेजस्वी भी उन जगहों पर गए और मुस्लिम-बहुल इलाकों में सीएए के विरोध में सभाएं करके मुसलमानों के साथ एकजुटता दिखाई. हमारे सूत्रों के अनुसार, कन्हैया का दौरा कांग्रेस द्वारा प्रायोजित था और उसका लक्ष्य मुसलमानों के प्रति प्रेम दिखाना था’.

आरजेडी कांग्रेस के साथ गठबंधन की इच्छुक रही है क्योंकि उसे लगता है कि अकेले लड़ने की स्थिति में कांग्रेस उसके मुस्लिम वोट में सेंध लगा सकती है. ये एक ऐसा सबक है जो लालू ने 2009 लोकसभा चुनावों में बड़ी मुश्किलों के बाद सीखा था, जब उन्होंने लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और कांग्रेस को अकेले लड़ने के लिए छोड़ दिया.

लालू सूबे की 40 में से सिर्फ 4 सीटों पर जीत हासिल कर पाए और बहुत सारी सीटों पर वोट बट जाने की वजह से कांग्रेस ने आरजेडी उम्मीदवारों की हार सुनिश्चित की.

लेकिन आरजेडी वो सीटें कांग्रेस के लिए जरूर छोड़ देती है, जहां ऊंची जातियों का प्रभाव है. अतीत में ऊंची जातियों के बहुत से कांग्रेसी नेताओं ने मांग की है कि पार्टी को अकेले लड़ना चाहिए.

एक वरिष्ठ आरजेडी नेता ने कहा, ‘कन्हैया कुमार के मामले में हमने देखा है कि वो ऊंची जातियों के वोट काटने में सक्षम नहीं हैं लेकिन मुस्लिम मतों को जरूर अशांत कर देते हैं’. नेता ने जोर देकर कहा कि वो कन्हैया की अनदेखी करते रहेंगे.

आरजेडी नेताओं का कहना है कि कन्हैया की टुकड़े-टुकड़े गैंग वाली छवि उन पर चिपक गई है और मतदाताओं को इसके खिलाफ यकीन दिलाना आसान नहीं होगा.

नेता ने कहा, ‘कन्हैया तेजस्वी से बेहतर वक्ता और उनसे अधिक पढ़े-लिखे हो सकते हैं. अपने भाषणों के लिए उन्हें प्रशंसा मिल सकती है. लेकिन जब वोट हासिल करने की बात आती है, तो तेजस्वी उनसे बहुत आगे हैं’.


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सीपीआई ‘चिंता मुक्त’

इस बीच, बिहार कांग्रेस नेताओं का मानना है कि कन्हैया के आने से पार्टी को फायदा होगा. कांग्रेस नेता मदन मोहन झा ने कहा, ‘वो एक युवा आइकन हैं और उनके आने से कांग्रेस को फायदा होगा लेकिन ये कांग्रेस आलाकमान को तय करना है कि वो उन्हें क्या भूमिका देना चाहते हैं’.

जहां तक बिहार सीपीआई नेताओं का सवाल है, ऐसा लगता है कि कन्हैया के जाने से वो राहत की सांस ले रहे हैं. पार्टी नेताओं ने पहले कन्हैया पर आरोप लगाया था कि वो पारंपरिक पार्टी नेताओं की अनदेखी करके अपने जेएनयू मित्रों पर ज्यादा निर्भर हो रहे हैं.

सीपीआई प्रदेश सचिव राम नरेश पाण्डेय ने कहा, ‘बिहार बीजेपी कन्हैया कुमार से पहले भी वजूद में थी, कन्हैया के बिना भी उसका वजूद बना रहेगा. दायित्व अब कन्हैया पर है. उन्होंने नारा लगाया था ‘पूंजीवाद से आज़ादी ’. आज वो जाकर पूंजीवाद के साथ ही बैठ गए हैं’.

(इस खबर को अंग्रेज़ में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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