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Tuesday, 19 November, 2024
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शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे के ‘सामना’ का सफर- दैनिक न्यूज़पेपर से न्यूज़मेकर तक

तीन दशकों में, शिवसेना के बारे में खबरें प्रकाशित करने का एक माध्यम बनने से लेकर अपने आप में न्यूज़मेकर बनने तक का सफर सामना ने तय किया है.

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मुंबई: यही कोई 1988 का साल था जब शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे को एक दैनिक अखबार निकालने की जरूरत महसूस हुई. ठाकरे इस कवरेज़ से नाखुश थे कि उनकी पार्टी की गतिविधियां मौजूदा मराठी दैनिक समाचार पत्रों में हो रही थीं. हालांकि उनके पास मार्मिक था, जो कि साप्ताहिक निकलता था.

जिसके बाद मुंबई के प्रसिद्ध शिवाजी पार्क के पास स्थित एक ऑडिटोरियम में ठाकरे के 63वें जन्मदिन के मौके पर 23 जनवरी 1989 को सामना की शुरुआत की गई.

तीन दशकों में, शिवसेना के बारे में खबरें प्रकाशित करने का एक माध्यम बनने से लेकर अपने आप में न्यूज़मेकर बनने तक का सफर सामना ने तय किया है.

ज्यादातर न्यूज़ रूम में, ‘सामना बीट’ पर रिपोर्टर होते हैं, जो अक्सर शिवसेना की राजनीतिक गतिविधियों को कवर करते हैं. यह रिपोर्टर आमतौर पर सामना के कार्यकारी संपादक संजय राउत द्वारा लिखे जाने वाले संपादकीय को स्कैन करते हैं. जो कि असल में पार्टी अध्यक्ष का मत होता है. वो हर सुबह अपने प्रकाशन के पाठकों के लिए इसे पुन: पेश करते हैं, जो न्यूज एजेंडा का हिस्सा बनता है.

शिवसेना पर नज़र रखने वाले मुंबई के एक राजनीतिक पत्रकार ने कहा कि पार्टी की संस्कृति ऐसी है कि सब कुछ गुप्त रहता है और यह संस्कृति महाराष्ट्र में शिवसेना के सत्ता में आने के बाद से मजबूत ही हुई है.

उन्होंने कहा, ‘पत्रकारों से बातचीत शुरू करने और उनपर भरोसा करने में शिवसेना नेताओं को बहुत समय लगता है. बेशक, कुछ अपवाद भी हैं. एक बात जो निश्चित है, वो ये है कि अगर पार्टी नहीं चाहती कि भीतर के घेरे में क्या हुआ है, तो यह बात बाहर नहीं निकलती है.’

पत्रकार ने कहा, ‘पार्टी की योजना क्या है, संपादकीय उसे बताती है. सामना प्रमुख घटनाओं पर पार्टी के भीतर के घटनाक्रम की जानकारी देता है.’ ‘इसके अलावा, संपादकीय की टोन और भाषा अच्छी सुर्खियां बनती हैं.’


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‘पेपर टाइगर’

लेखक और वरिष्ठ संपादक वैभव पुरंदरे ने अपनी पुस्तक बाल ठाकरे एंड द राइज़ ऑफ़ द शिवसेना में सामना के लॉन्च को ठाकरे के खुद को ‘पेपर टाइगर’ के रुप में दिए तोहफे के तौर पर बताया.

पुरंदरे ने लिखा, ‘सामना का जन्म कांग्रेस के शासन को खारिज करने के लिए पार्टी की अपील को बलपूर्वक शक्तिशाली बनाने के लिए हुआ था. सेना के कार्यकर्ता पेपर के आगमन के महीनों पहले से ही माहौल बना रहे थे. मुंबई में दीवारों को बैनर और रंग-बिरंगे हाथ से बनाए गए विज्ञापनों के साथ आकर्षक रूप से सजाया गया था, ‘दैनिक नवहे, सैनिक’ (दैनिक सैनिक नहीं, बल्कि एक सैनिक, जैसा शिवसेना के सदस्य कह रहे थे).’

सामना उस वर्ष लॉन्च किया गया था जब शिवसेना ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन किया और हिंदुत्व विचारधारा के लिए अपने राजनीतिक एजेंडे का विस्तार किया, बजाय इसके कि वह मूल मराठी आबादी पर अपना ध्यान केंद्रित करे. ठाकरे अखबार के मुख्य संपादक थे, जबकि अशोक पदबिद्री ने कार्यकारी संपादक के रूप में कार्यभार संभाला.

1993 में, शिवसेना ने मराठी मानुष से परे अपने मतदाता आधार का विस्तार करने के लिए, पेपर का हिंदी संस्करण दोपहर का सामना भी लॉन्च किया. मुंबई की जनसांख्यिकी बदल रही थी और शिवसेना राजनीतिक रूप से अपने प्रवासी-विरोधी रवैया बरकरार रखने का जोखिम नहीं उठा सकती थी.

1990 के दशक की शुरुआत में, ठाकरे ने पदबिद्री की मृत्यु के बाद राउत को, जो कि अब राज्य सभा सांसद हैं, कार्यकारी संपादक के रूप में नियुक्त किया. राउत ने लगातार ठाकरे के तेवर में लिखा और अखबार को लोकप्रियता मिलती रही.

राजनीतिक विश्लेषक हेमंत देसाई ने कहा, ‘दंगों, बम विस्फोटों, श्रीकृष्ण आयोग की जांच और अंततः शिवसेना के पहली बार सत्ता में आने के साथ ही 1990 के सांप्रदायिक रूप से गर्म माहौल के बीच लेखन की प्रतिकारक शैली के साथ सामना तुरंत लोकप्रिय हो गया.’

देसाई ने कहा, ‘विद्रोह करना, पाकिस्तान और मुसलमानों के बारे में बयानबाजी करना, लोगों का नाम लेना… सामना ने ऐसे समय में सुर्खियां बटोरीं जब टेलीविजन चैनल आ ही रहे थे.’

सामना ने कुछ नेताओं के उपनाम रखे हुए थे- जैसे एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार के लिए ‘मैदाचा पोटा’, शिवसेना से अलग होकर एनसीपी से जुड़ने वाले छगन भुजबल के लिए ‘लखोबा’.

राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि भड़काऊ लेखनी के अलावा जिस चीज़ ने इसे लोकप्रिय बनाया उसमें इसके बाकी अखबारों की तरह काम करने के तरीके जिसमें सरकारी नीतियों, फैसलों, स्पोर्ट्स, कला, सिनेमा और संस्कृति पर न्यूज लिखना शामिल है. जो कि आरएसएस की तरुण भारती और नेशनल हेराल्ड (कांग्रेस) नहीं करती.


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उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में सामना

आज, जबकि शिवसेना खुद मुख्यमंत्री और पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे और उनके बेटे, महाराष्ट्र के कैबिनेट मंत्री आदित्य ठाकरे के नेतृत्व में नरम हो गई है लेकिन सामना के चरित्र में बदलाव नहीं आया है. वर्तमान में उद्धव की पत्नी रश्मि ठाकरे इसकी प्रमुख संपादक है.

राजनीतिक विशेषज्ञ प्रकाश बल कहते हैं, ‘उद्धव ठाकरे के राजनीतिक रुख वास्तव में बाल ठाकरे से भिन्न होते हैं जो कि सामना में दिखता भी है. लेकिन उसकी भाषा वैसी ही है.’

सामना के संपादकीय भी सीएम ठाकरे को अपनी पार्टी के दो वोट बैंकों का प्रबंधन करने में मदद करता है- वह नए मतदाता को प्रसन्न करता है, जो शिवसेना की हालिया उदारवादी राजनीति से अधिक आकर्षित है, व्यक्तिगत रूप से संवेदनशील मुद्दों पर कोई आक्रामक बयान नहीं देकर और पुराने कट्टर दक्षिणपंथी धड़े से सामना  के माध्यम से संवाद बनाकर.

शिवसेना के एक नेता ने कहा, ‘उद्धवसाहेब की भाषा शैली बाला साहेब से अलग है लेकिन राउत अपनी लेखनी से उस अंतर को पाटते हैं और सामना अब भी सुर्खियां बटोरती है. बालासाहेब के समय के विपरीत पार्टी ने विस्तार किया है और इस बीच सामना के प्रबंधन का भार राउत ने उठाया है.’

नेता ने हालांकि ये कहा कि उद्धव के मुकाबले शिवसैनिकों को साधने में बालासाहेब ज्यादा माइक्रो मैनेजर थे. ‘बालासाहेब किसी भी नागरिक मुद्दों के बारे में खबरों के लिए हर सुबह सामना के साथ-साथ अन्य समाचार पत्रों को पढ़ते थे, लेखों को चिह्नित करते थे और विशिष्ट नगरसेवक या विधायक को इसे फॉलो करने के लिए कहते थे. अब हम ऐसा होते नहीं देखते हैं.’


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पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए आदेश

शिवसेना के 75 वर्षीय वरिष्ठ नेता सूर्यकांत महादिक जो 1966 में स्थापना के बाद से पार्टी के साथ हैं, ने कहा, ‘शिवसेना एक ऐसी पार्टी है जो आदेश पर चलती है.’ बालासाहेब ने कहा था कि हर सैनिक को सामना खरीदना चाहिए. जब तक हम इसे सामना में नहीं पढ़ लेते, तब तक हम इस खबर को सही नहीं मान सकते. पेपर सैनिकों के बीच प्रेरणा और उत्साह का स्रोत था.’

उदाहरण के लिए, 1993 के मुंबई दंगों के दौरान, शिवसेना ने अपने कैडर को मुस्लिमों के खिलाफ आक्रामक तरीके से सड़कों पर उतारा. दंगों की जांच कर रहे श्रीकृष्ण आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया कि कैसे सामना और नवकाल जैसे अखबारों में सांप्रदायिक लिखावट ने हिंसा भड़काई.

महादिक ने कहा, ‘पार्टी अब बड़ी हो गई है और इसका रूप बदल गया है. हमारे जैसे पुराने शिवसैनिकों के अब भी मार्मिक और सामना से संबंध हैं लेकिन नए लोग व्हाट्सएप पर निर्भर रहते हैं.’

हालांकि 33 वर्षीय शिवसेना सांसद श्रीकांत शिंदे जो कि महाराष्ट्र के मंत्री एकनाथ शिंदे के बेटे हैं, ने कहा कि सामना अभी भी पार्टी के लिए उतनी ही प्रासंगिक है.

उन्होंने कहा, ‘बालासाहेब के समय से लेकर अब उद्धवसाहेब तक, जब कुछ भी सामना में प्रकाशित होता है, तो इसे शीर्ष नेता का बयान माना जाता है. यहां तक ​​कि व्हाट्सएप और ट्विटर के युग में, शिवसैनिकों की पार्टी के पदाधिकारियों तक सीधी पहुंच है लेकिन बातचीत की सीमाएं हैं.’

सामना में जो प्रकाशित हुआ है, उसे अंतिम शब्द माना जाता है, विशेष रूप से जमीनी स्तर के कैडरों के लिए, जिनकी पहुंच सिर्फ शाखा प्रमुख या जिला प्रमुख तक होती है लेकिन वरिष्ठ नेतृत्व तक नहीं.’

शिंदे ने कहा कि सामना का प्रभाव अब राष्ट्रीय है. उन्होंने कहा, ‘जब मैं संसद जाता हूं, तो पाता हूं कि अन्य सांसदों ने पहले ही सामना को पढ़ लिया है और इस पर चर्चा कर रहे हैं कि क्या प्रकाशित हुआ है.’ ‘एक तरह से सामना आज पार्टी का सबसे मजबूत प्रवक्ता है.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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