पटना: झारखंड चुनाव के बाद राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के लिए रांची में न्यायिक हिरासत वाली ज़िंदगी ज्यादा आरामदेह हो गई है. नियम-कायदों को परे रखकर वे मेहमानों से लगातार मिल रहे हैं जबकि जेल मैनुअल उन्हें केवल तीन मुलाकातियों से मिलने की इजाजत देता है, वह भी केवल शनिवार को.
शुक्रवार को उनके पुत्र तेजस्वी यादव उनसे मिले और उनके बाद नये मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन मिले. शनिवार को 15 आगंतुकों को उनसे मिलने दिया गया, जिनमें बिहार के पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह भी थे, जिन्होंने कहा कि ‘मैं केवल लालूजी के स्वास्थ्य के बारे में जानकारी लेने गया था.’
अस्पताल में पड़े लालू के लिए आराम तो बढ़ गया है मगर झारखंड और बिहार, दोनों जगह उनकी राजनीतिक समस्याएं बनी हुई हैं.
झारखंड में राजद का अस्तित्व सरस्वती नदी जैसा
राजद झारखंड में कांग्रेस तथा झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) वाले नये सत्ताधारी गठबंधन में शामिल है और ताज़ा विधानसभा चुनाव में सात सीटों पर लड़ कर केवल एक सीट जीत पाया. इसके एकमात्र विजयी उम्मीदवार एस. भोक्ता चतरा से जीते लेकिन वे पूर्व भाजपा विधायक हैं और अपना खासा असर रखते हैं.
बहरहाल, एक सीट भी राजद के लिए राहत की बात है क्योंकि 2014 के चुनाव में वह 60 सीटों पर लड़ा था और एक भी जीत नहीं सका था. जाहिर है, हेमंत सोरेन सरकार पर राजद का प्रभाव मामूली ही रहेगा. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी छोड़ने वाले, झारखंड राजद के पूर्व अध्यक्ष गौतम सागर राणा कहते हैं, ‘झारखंड में राजद का अस्तित्व वैसा ही है जैसा पौराणिक त्रिवेणी में सरस्वती नदी का है. वह दिखता नहीं है मगर है, खासकर बिहार के सीमावर्ती जिलों में, जिनमें यादवों और मुसलमानों की अच्छी-ख़ासी आबादी है.’
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राणा का कहना है कि ‘पार्टी अपने संगठन की कमजोरी के कारण रघुबर दास विरोधी लहर का फायदा नहीं उठा सकी.’
बिहार का जब 2000 में विभाजन हुआ था तब झारखंड में एलजेपी और जदयू के विपरीत राजद का अस्तित्व था और यहां के पहले विधानसभा चुनाव में उसने 11 सीटें जीती थी. लेकिन इधर के वर्षों में उसकी हैसियत एक छोटे खिलाड़ी वाली हो गई है. राणा कहते हैं, ‘आप पटना में बैठकर झारखंड में पार्टी नहीं चला सकते. बिहार और झारखंड की राजनीति और गति एकदम अलग-अलग है. झारखंड में पत्ते आदिवासी आबादी के हाथ में हैं. आप यहां किसी बिहारी को पार्टी का नेता बनाकर नहीं जीत सकते. इसके अलावा, राजद ने यहां संगठन की या किसी तरह की कोई सामाजिक गतिविधि चलाई ही नहीं.’
राणा ने कहा कि झारखंड के पार्टी नेताओं के लिए लालू यादव के सरकारी आवास 10, सर्कुलर रोड में पहुंच बनाना एक समस्या रही है. उन्होंने कहा कि तेजस्वी यादव की चुनावी सभाओं में भीड़ तो जुटी ‘मगर संगठन उसे वोटों में नहीं बदल पाया.’
बिहार एक अलग पिच है
जब झारखंड चुनाव के नतीजे आए तो बिहार में राजद बहुत खुश हुआ. तेजस्वी यादव ने ट्वीट किया— ‘अब बिहार की बारी है.’ राजद विधायक आलोक मेहता ने कहा, ‘झारखंड के नतीजे उत्साह बढ़ाने वाले हैं.’ लेकिन पार्टी के नेताओं ने कबूल किया कि बिहार एक अलग पिच है. एक पूर्व राजद मंत्री ने कहा, ‘1995 में, जब बिहार बंटा नहीं था और लालू यादव का राजनीतिक ग्राफ बुलंदी पर था तब भी भाजपा ने झारखंड वाले क्षेत्रों में सबसे ज्यादा सीटें जीती थी.’
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भाजपा ने भी राजद के जोश को खारिज किया. उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का कहना है, ‘बिहार और झारखंड के राजनीतिक, भौगोलिक और सामाजिक समीकरण एकदम अलग-अलग हैं. ऐसा न होता तो विभाजन की जरूरत ही नहीं पड़ती. बिहार में एनडीए का नेतृत्व नीतीश कुमार सरीखे अनुभवी नेता करेंगे. दूसरी ओर, हमारे यहां विपक्ष का नेतृत्व ऐसा आदमी कर रहा है जिसमें हेमंत सोरेन जैसी मानवीयता और नेतृत्व क्षमता भी नहीं है.’
राजद की दिक्कतें
राजद को कई बड़ी समस्याओं से निबटना है. पिछले महीने इसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में घोषणा की गई कि बिहार में महागठबंधन तेजस्वी यादव के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगा और वे ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे.
इसके अगले ही दिन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मदन मोहन झा ने कहा कि नेतृत्व के मसले पर राजद नहीं बल्कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व फैसला करेगा. पूर्व मुख्यमंत्री और हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतन राम मांझी ने घोषणा की कि वे तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं मानेंगे. मांझी ने एआइएमआइएम के असदुद्दीन ओवैसी के साथ एक गठजोड़ किया है, जो 2020 में बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ सकता है.
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