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Tuesday, 21 May, 2024
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शिवसेना के किसान आंदोलन के समर्थन के पीछे अपनी शहरी छवि हटाने की एक सोची-समझी रणनीति है

शिवसेना जिसकी मुंबई-केंद्रित शहरी छवि है, ने पिछले कुछ सालों में पार्टी ने राज्य और देश भर में हुए तकरीबन हर किसान आंदोलन का समर्थन किया है.

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मुंबई: सितंबर में जब तीन विवादास्पद कानूनों पर, जो उस समय बिल थे, लोकसभा में चर्चा हो रही थी तो शिवसेना सांसद अरविंद सावंत ने उनका स्वागत किया लेकिन कुछ स्पष्टीकरण मांगे.

लेकिन पार्टी अब ज़ोरदार तरीके से उन्हीं कानूनों के खिलाफ, किसान आंदोलन की हिमायत कर रही है. शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत ने तो इस बात से ही इनकार कर दिया कि पार्टी ने कभी कृषि कानूनों का लोकसभा में समर्थन किया था.

ये शिवसेना के लिए कोई नई बात नहीं है जिसकी हमेशा से एक मज़बूत शहरी छवि रही है और जो ग्रामीण इलाकों में अपना आधार मज़बूत करने की कोशिश कर रही है. पिछले कुछ सालों में पार्टी ने राज्य और देश भर में हुए तकरीबन हर किसान आंदोलन का समर्थन किया है.

राजनीतिक टीकाकार हेमंत देसाई ने कहा, ‘शिवसेना ने पिछले 15 सालों में ग्रामीण इलाकों में अपनी पैठ बढ़ाने के प्रयास तेज़ किए हैं. मुंबई, ठाणे और कोंकण के अपने गढ़ से आगे बढ़ते हुए, उन्हें मराठवाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र में भी चुनावी सफलताएं मिली हैं’.

उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन आज भी, पार्टी की एक बहुत मुंबई-केंद्रित शहरी छवि है. अवधारणा ये है कि पार्टी सियासी रूप से भी मुंबई से आगे नहीं सोच रही है. पार्टी महामारी को दोष दे सकती है लेकिन उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली सरकार ने ग्रामीण इलाकों के लिए कोई बड़ी योजना घोषित नहीं की है. और मुंबई के बाहर ज़्यादा दौरे भी नहीं किए’.

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शिवसेना का शुरू में ग्रामीण जुड़ाव

शिवसेना 1966 में इस मुद्दे को लेकर शुरू हुई थी कि महाराष्ट्र के शहरों में प्रवासी लोग नौकरियां और अवसर चुरा रहे हैं. लेकिन इस एजेंडा ने मुंबई से बाहर, मतदाताओं को ज़्यादा प्रभावित नहीं किया. ठाणे और कोंकण के मतदाताओं में, कुछ हद तक इसकी गूंज रही क्योंकि वो मुंबई के करीब थे.

इन क्षेत्रों में हमेशा मराठी युवाओं की एक अच्छी खासी आबादी रही, जो काम की तलाश में प्रदेश की राजधानी आती रही और उस समय वो शिवसेना के ‘माटी पुत्र’ के एजेंडा से आकर्षित हो गए.

पार्टी ने अपना पहला औपचारिक अधिवेशन, 1984 में मुंबई में किया, जब उसने तय किया कि उसे मुंबई और ठाणे से आगे बढ़कर, पूरे प्रदेश के लिए काम करना है. उसके अगले साल पार्टी ने अपना सालाना अधिवेशन, कोंकण क्षेत्र के महाड़ में किया, जहां उसने पूरे महाराष्ट्र में अपने विस्तार के एंजेंडे को दोहराया और इस उद्देश्य के लिए एक व्यापक हिंदुत्व एजेंडा अपनाने का फैसला किया.

औरंगाबाद पश्चिम सीट से शिवसेना विधायक संजय शिरसत ने कहा, ‘उसी साल (1985) हमने अपनी पहली शाखा मराठवाड़ा में स्थापित की. 1988 में हम वहां पहली बार नगर निकाय चुनाव लड़े और भारी कामयाबी हासिल की. मराठवाड़ा के ग्रामीण लोग औरंगाबाद को अपनी राजधानी की तरह देखते थे इसलिए हमने धीरे-धीरे और शाखाएं खोलीं, और बीद, लातूर, परभानी, उस्मानाबाद जैसी जगहों पर अपनी जगह कायम की’.

उन्होंने आगे कहा, ‘उस इलाके में कांग्रेस का वर्चस्व था लेकिन युवा आबादी जो एक विकल्प चाहती थी, उसने शिवसेना को चुना. उनमें से अधिकतर किसानों के बच्चे हैं. शुरू में हमारे आलोचक हमें मकड़-सेना और वानर-सेना कहा करते थे, लेकिन फिर जब हमें सफलता मिलने लगी तो वो हमें गंभीरता से लेने लगे’.

मराठवाड़ा में शिवसेना को कुछ जगह मिली, जो अब एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने 1986 में अपनी कांग्रेस (एस) का विलय करके, कांग्रेस में लौटकर खाली की थी. पश्चिमी महाराष्ट्र, उत्तरी महाराष्ट्र और विदर्भ जैसे अन्य क्षेत्रों में शिवसेना उतनी तेज़ी से चुनावी फायदे नहीं उठा पाई.

एक वरिष्ठ शिवसेना नेता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘हर क्षेत्र की एक अलग मानसिकता होती है और हर क्षेत्र में हम बहुत आगे आ गए हैं. अब हमारे पास पूरे महाराष्ट्र से विधायक हैं और हमारे पास शाखाओं का एक प्रशासनिक नेटवर्क है. भविष्य में, पार्टी को इन इलाकों में भी चुनावी सफलता मिलेगी’.

वर्तमान में पार्टी के 56 विधायकों में से 20 मुंबई मेट्रोपोलिटन रीजन से हैं, आठ कोंकण से, 12 मराठवाड़ा से, छह-छह उत्तरी महाराष्ट्र और पश्चिमी महाराष्ट्र से और चार विदर्भ से हैं.

पार्टी नेताओं और राजनीति पर नज़र रखने वालों ने कहा, कि शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे ने ग्रामीण इलाकों में, भावनात्मक मुद्दे उठाकर फायदा लेने की कोशिश की जबकि मौजूदा प्रमुख उद्धव ठाकरे ने, जो अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं, 2000 के दशक में बिजली किल्लत और गन्ना किसानों के बकाया भुगतान जैसे मुद्दों का समर्थन करके, इस तरीके को बदलने की कोशिश की.

एक शिवसेना पदाधिकारी रवींद्र मिरलेकर ने कहा, ‘पिछले 15 सालों में कई किसान-केंद्रित आंदोलन रहे हैं, जिनमें उद्धव साहेब ने समय-समय पर संपूर्ण ऋण माफी के लिए संघर्ष किया है. किसान उद्धव ठाकरे की शिवसेना के केंद्र में है. किसान पूरे देश का पेट भरता है लेकिन हमेशा तकलीफों और समस्याओं में घिरा रहता है जिसके नतीजे में अक्सर वो अपनी जान भी ले लेता है. ये उद्धव साहेब की इच्छा ही है जो वो किसान को खुश और संतुष्ट करने के उपाय करने में लगे रहते हैं’.


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ग्रामीण आधार का विस्तार राजनीतिक रूप से लाज़िमी

2009 तक, ग्रामीण महाराष्ट्र का अधिकतर हिस्सा, कांग्रेस और एनसीपी के प्रभाव में था. लेकिन 1999 से 2014 के बीच अपने 15 वर्ष के कार्यकाल के अंत तक उनकी पकड़ कमज़ोर पड़ने लगी थी.

2014 के बाद बीजेपी और शिवसेना के बीच रिश्तों में रूखापन आया, तो दोनों पार्टियां महाराष्ट्र के शहरी क्षेत्रों में हिंदू वोट बैंक पर नज़र रखते हुए सीधे एक दूसरे के सामने आ गईं.

इस बीच, बीजेपी भी महाराष्ट्र में आक्रामक ढंग से अपना विस्तार करने लगी, जिसकी नज़र कांग्रेस और एनसीपी के कमज़ोर पड़ने से खाली हुए स्थान पर थी. इसकी वजह से शिवसेना के लिए अपनी शहरी छवि को पीछे करते हुए ग्रामीण क्षेत्रों पर फोकस करना ज़रूरी हो गया.

2019 के चुनाव अकेले दम पर लड़ने की चाह में, शिवसेना ने 2018 में ग्रामीण महाराष्ट्र में अपना घर दुरुस्त करने की कोशिश की और पुराने शिव सैनिकों को ‘समन्वयकों’ के तौर पर नियुक्त किया, जिनका काम तालुका लेवल से लेकर, नीचे शाखा लेवल और उससे भी नीचे अपने पैदल सैनिकों तक, अपनी ज़मीनी ताकत की निगरानी करना था.

शिवसेना ने 2019 में दूसरी पार्टियों से जिन राजनेताओं को अपने पाले में लिया, वो वही थे जो ग्रामीण महाराष्ट्र के इलाकों में वज़न रखते थे, जैसे कि बीद से जयदत्त क्षीरसागर, अहमदनगर ज़िले के अकोले से वैभव पिचाड़, ठाणे ज़िले के शाहपुर से पांडुरंग बरोड़ा और औरंगाबाद ज़िले के सिलोड़ से अब्दुल सत्तार.

पिछले साल, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए, अपना प्रचार डिज़ाइन करने के लिए, शिवसेना ने राजनीतिक रणनीतिज्ञ प्रशांत किशोर की सहायता ली, जो उस समय जनता दल (युनाइटेड) से जुड़े हुए थे.

एक पार्टी सूत्र ने बताया कि किशोर ने शिवसेना को सलाह दी थी कि उसे एक शहरी नेतृत्व वाली शहरी पार्टी की अपनी छवि को बदलना चाहिए. इसके लिए उन्होंने सुझाव दिया कि ठाकरे वंशज आदित्य ठाकरे को, जो अब एक राज्य मंत्री हैं, ग्रामीण महाराष्ट्र का दौरा करना चाहिए और शायद किसी ग्रामीण सीट से लड़ना भी चाहिए.

तीस वर्षीय ठाकरे ने अंत में चुनाव लड़ा और मुंबई की वर्ली सीट से विजयी हुए. लेकिन आदित्य ने वो दौरा ज़रूर किया.


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पिछले कुछ वर्षों से किसानों के मुद्दे आगे रहे

जुलाई 2019 में आदित्य ने पूरे ग्रामीण महाराष्ट्र का दौरा किया, मंदिरों में गए, रैलियां कीं और किसानों तथा युवाओं पर फोकस किया. रैलियों का उद्देश्य उन्हें एक ऐसे जन नेता के तौर पर लोकप्रिय बनाना था, जो ग्रामीण इलाकों की अगुवाई करने में भी सक्षम था.

इस बीच, शिवसेना ने एक मुखर अभियान भी शुरू किया कि कैसे किसानों को फसल बीमा नहीं मिल रहा है.

पिछले साल जुलाई में शिवसेना ने, उद्धव ठाकरे की अगुवाई में मुंबई के बांद्रा-कुर्ला कॉम्प्लेक्स पर, फसल बीमा कंपनियों के खिलाफ एक विरोध मार्च आयोजित किया. इन कंपनियों के प्रतिनिधियों ने ठाकरे से मुलाकात कर, उन्हें समझाया कि राज्य सरकार उन्हें अपने हिस्से की अदाएगी नहीं कर रही है.

उसी महीने, राज्य सरकार ने शिवसेना जिसका हिस्सा थी, अपनी हिस्सेदारी के तौर पर, तीन फसल बीमा कंपनियों को, 271.54 करोड़ का भुगतान किया. ज़मीनी स्तर पर, फसल बीमों के दावे भरने में शिवसेना सदस्य किसानों की सहायता कर रहे थे.

मार्च 2018 में, शिवसेना ने आदिवासी किसानों का समर्थन किया, जो नाशिक ज़िले के देहात से, मुंबई तक लंबा पैदल मार्च कर रहे थे. इस विरोध मार्च का आयोजन, एक कम्यूनिस्ट मंच अखिल भारतीय किसान सभा ने किया था, जिसकी वजह से सियासी हलकों में भौंहें तनीं कि शिवसेना एक कम्यूनिस्ट प्लेटफॉर्म को अपना समर्थन दे रही थी.

लेकिन पार्टी ने स्पष्ट किया कि उसका समर्थन आंदोलनकारी किसानों को था, आयोजकों को नहीं.

जब ये विरोध मार्च मुंबई पहुंचा तो आदित्य ने व्यक्तिगत रूप से किसानों से मुलाकात की.

मई 2017 में, शिवसेना ने एक ‘संपर्क यात्रा’ शुरू की जिससे पहले विपक्षी पार्टियां (कांग्रेस, एनसीपी व अन्य), इसी तरह की संघर्ष यात्रा शुरू कर चुकीं थीं.

शिवसेना की यात्रा में, पार्टी विधायकों से कहा गया कि मराठवाड़ा के सूखा-संभावित चुनावी वार्ड्स का दौरा करें और वहां के किसानों से बातचीत करें. उद्धव ठाकरे और उनके बेटे आदित्य भी किसानों से मिले.

उसी साल, बीजेपी की अगुवाई वाली राज्य सरकार का हिस्सा होने के बावजूद, शिवसेना किसानों के विरोध में शामिल हुई, जो ऋण माफी की मांग कर रहे थे और उसने अनिच्छुक देवेंद्र फड़णवीस पर, जो तब मुख्यमंत्री थे, ज़ोर डालकर उनसे ऋण माफी स्कीम का ऐलान करा दिया.

इस साल, महा विकास अघाड़ी सरकार के हिस्से के तौर पर, सत्ता में आने के बाद पार्टी ने ये दावा करते हुए अपनी कर्ज़-माफी योजना शुरू की कि पिछली स्कीम एक मुकम्मल कर्ज़ माफी नहीं थी और उससे किसानों को फायदा नहीं हुआ था.

2017 में शिवसेना ने फड़णवीस के पसंदीदा मुंबई-नागपुर हाईवे परियोजना के लिए ज़मीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों का समर्थन किया, हालांकि वो प्रोजेक्ट शिवसेना की अगुवाई में पीडब्ल्यूडी विभाग द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा था.

पार्टी ने 2015 में संसद के भीतर विवादास्पद भूमि अधिग्रहण बिल का भी जमकर विरोध किया था, जबकि उस समय वो सत्तारूढ़ नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस का हिस्सा थी.

सेना पदाधिकारी मिरलेकर ने कहा: ‘उद्धव साहेब ने हमेशा कहा है कि उनकी प्रतिबद्धता किसानों के लिए है, भले ही शिवसेना सरकार का हिस्सा हो. अगर सरकार उनके मसले नहीं सुलझा पाती, तो हम इसके लिए आंदोलन का सहारा लेंगे’.

लेकिन राजनीतिक विश्लेषक देसाई ने कहा कि उद्धव ठाकरे के तरीकों से कभी-कभी लगता है कि वैचारिक स्तर पर पार्टी ढुलमुल रवैया अपना रही है.

उन्होंने कहा, ‘उद्धव ठाकरे हमेशा कहते हैं कि हम लोगों की भावनाओं के साथ हैं. लेकिन, एक राजनीतिक पार्टी को आगे आकर लोगों को बताना चाहिए कि क्या उचित है’. उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन लोगों की भावनाओं के साथ चलने का मतलब, हवा के रुख के साथ बहना है’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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