नई दिल्ली: बिहार में सीट बंटवारे को लेकर 2020 जैसा ही माहौल बन गया है. विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के प्रमुख मुकेश सहनी एक बार फिर अपनी शर्तों पर अड़े हैं, लेकिन इस बार राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) झुकने के मूड में नहीं है.
नाराज़ सहनी ने शुक्रवार को ऐलान किया कि वह न तो चुनाव लड़ेंगे और न ही कांग्रेस की ओर से दी गई राज्यसभा सीट लेंगे. दो साल पहले भी उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को सीट बंटवारे में खूब मुश्किल दी थी.
असल में, सहनी की मांगें उस बड़े ट्रेंड का हिस्सा हैं जिसमें छोटी पार्टियां बड़ी पार्टियों से सख्ती से सौदेबाज़ी कर रही हैं और यही बात सत्तारूढ़ एनडीए और विपक्षी महागठबंधन, दोनों के लिए चुनौती बन रही है.
जहां विपक्षी खेमे में सहनी अपनी मांगों पर अड़े हैं, वहीं बीजेपी को उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम), जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (एचएएम) और चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के साथ सख्त मोलभाव का सामना करना पड़ रहा है.
पिछले 10 दिनों से महागठबंधन में सीट बंटवारे को लेकर गहन चर्चा चल रही है. शुरुआत में वीआईपी ने 40 सीटें और उपमुख्यमंत्री पद की मांग की थी. अब यह मांग घटकर 15 सीटों तक आ गई है, लेकिन सहनी की कड़ी सौदेबाज़ी आरजेडी और कांग्रेस को रास नहीं आई.
जिद 🔥🔥 pic.twitter.com/VF6zGMoUAu
— Mukesh Sahani (@sonofmallah) October 10, 2025
महागठबंधन सूत्रों के मुताबिक, गुरुवार को सहनी से बातचीत टूट गई थी और उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर बाहर निकलने का ऐलान करने का फैसला किया.
एक सूत्र ने बताया, “लेकिन सीपीआई(एमएल) के दीपांकर भट्टाचार्य ने राहुल गांधी को फोन किया, जिसके बाद राहुल ने सहनी से बात की. इसके बाद सहनी गठबंधन में बने रहे, लेकिन अब सीटों को लेकर तनाव है क्योंकि आरजेडी उन्हें ‘सुरक्षित सीटें’ देना नहीं चाहती.”
पांच साल पहले सहनी ने आखिरी वक्त पर विपक्षी खेमे को छोड़ बीजेपी-नीत एनडीए का दामन थाम लिया था. तब उनकी पार्टी ने 11 में से 4 सीटें जीती थीं. वह बाद में बिहार सरकार में पशुपालन और मत्स्य मंत्री बने, लेकिन 2022 में उन्हें मंत्रिमंडल से हटा दिया गया.
पार्टी सूत्रों के मुताबिक, “कांग्रेस अपने कोटे से 8 और RJD 10 सीटें देने को राज़ी थी, लेकिन यह साफ नहीं किया गया कि वीआईपी को कौन-कौन सी सीटें मिलेंगी.”
एक और कारण यह है कि शुरुआत में तीन डिप्टी सीएम फॉर्मूले पर बात हुई थी, लेकिन इस पर कोई औपचारिक घोषणा नहीं की गई. कांग्रेस की ओर से दी गई राज्यसभा सीट को सहनी ने ठुकरा दिया, और अब उनके पास एनडीए में जाने का विकल्प भी नहीं है.
आरजेडी सहनी को सिमरी बख्तियारपुर से लड़ने नहीं देना चाहती—यह वही सीट है जहां वह 2,000 वोटों से हार गए थे. इसके बजाय उन्हें गौरा बौराम सीट दी गई है, जहां से उनके भाई संतोष सहनी को वीआईपी प्रत्याशी बनाया गया है.
वीआईपी प्रवक्ता देवज्योति ने दिप्रिंट से कहा, “हम 15 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे और चार उम्मीदवार नामांकन दाखिल कर चुके हैं. सहनी के भाई संतोष ने गौरा बौराम से नामांकन भरा है.”
विवाद सिर्फ वीआईपी तक सीमित नहीं है—सीटों पर खींचतान के चलते कई जगहों पर “फ्रेंडली फायर” की स्थिति बन सकती है. उदाहरण के लिए, बछवाड़ा में कांग्रेस और सीपीआई के बीच सीधा मुकाबला होने की संभावना है. जाले, वैशाली, लालगंज, नरकटियागंज और वरसालिगंज—इन पांच सीटों पर कांग्रेस और आरजेडी के बीच खींचतान चल रही है.
इसी तरह सीपीआई बहादुरपुर सीट पर लड़ना चाहती है, जहां आरजेडी ने पहले ही उम्मीदवार घोषित कर दिया है. सीपीआई(एमएल) और कांग्रेस के बीच राजगीर को लेकर भी खींचतान है.
सीपीआई(एमएल) का कहना है कि उसका स्ट्राइक रेट कांग्रेस से बेहतर है—2020 में उसने 19 में से 12 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस ने 70 में से 19. 2024 लोकसभा चुनाव में भी उसने बिहार में लड़ी तीन में से दो सीटें (आरा और करकट) जीती थीं.
एनडीए की परेशानियां
आरएलएम और एचएएम ने एनडीए में चिराग को 29 सीटें मिलने पर नाराज़गी जताई है. इसके मुकाबले, दोनों पार्टियों को सिर्फ छह-छह सीटें मिली हैं. बीजेपी और जनता दल (यूनाइटेड) — यानी जेडीयू — 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं.
नाराज़ जीतन राम मांझी ने बोध गया और मखदूमपुर में चिराग के खिलाफ उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर दिया. इसके बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मांझी को फोन किया और उन्हें शांत करने के लिए विधान परिषद (एमलएलसी) की सीट की पेशकश की.
इसी तरह, आरएलएम के उपेंद्र कुशवाहा ने भी ट्विटर पर लंबा पोस्ट लिखकर अपनी नाराज़गी जताई. केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय उन्हें शाह से मिलवाने ले गए, जहां उन्हें राज्यसभा सीट की पेशकश की गई.
प्रिय मित्रों/साथियों,
आप सभी से क्षमा चाहता हूं। आपके मन के अनुकूल सीटों की संख्या नहीं हो पायी। मैं समझ रहा हूं, इस निर्णय से अपनी पार्टी के उम्मीदवार होने की इच्छा रखने वाले साथियों सहित हजारों – लाखों लोगों का मन दुखी होगा। आज कई घरों में खाना नहीं बना होगा। परन्तु आप सभी…
— Upendra Kushwaha (@UpendraKushRLM) October 12, 2025
बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार भी चिराग पासवान से नाखुश हैं, जो उनकी पार्टी की सीटें हथियाने की कोशिश कर रहे हैं. नीतीश और चिराग के ठंडे रिश्ते राजनीतिक हलकों में अच्छी तरह जाने जाते हैं.
बीजेपी के एक नेता ने दिप्रिंट से कहा, “सीट बंटवारे के बाद असली समस्या तालमेल की है, क्योंकि 2020 के बाद जेडीयू और एलजेपी(आरवी) के बीच भरोसे की कमी बनी हुई है. इस बार भी एलजेपी(आरवी) ने भ्रम की स्थिति बनाई. वोट ट्रांसफर एक बड़ी चुनौती होगी — जेडीयू का कैडर एलजेपी को वोट नहीं देगा और उल्टा भी यही हाल होगा. बेहतर नतीजों के लिए तालमेल ज़रूरी है, हमें उम्मीद है अमित शाह जी इन बातों को सुलझा लेंगे.”
पटना विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर राकेश रंजन ने अनुमान जताया कि भरोसे की कमी कई सीटों पर नतीजों को बिगाड़ सकती है क्योंकि इससे वोट ट्रांसफर प्रभावित होगा.
छोटे खिलाड़ी, ज़्यादा बिखराव
एनडीए के दलित चेहरे के तौर पर चिराग पासवान और मांझी की भूमिका अहम है. चिराग को पासवान समुदाय (दुसाध) का मजबूत समर्थन प्राप्त है, जो राज्य की 19.65% दलित आबादी में सबसे बड़ा हिस्सा है.
वहीं मांझी, जो महादलित मुसहर समुदाय से आने वाले पूर्व मुख्यमंत्री हैं, उम्र के लिहाज़ से अब कमजोर स्थिति में हैं. फिर भी, 80 से ज़्यादा उम्र होने के बावजूद उन्हें 2024 में कैबिनेट मंत्री बनाया गया, जबकि उनकी पार्टी सिर्फ एक सीट जीत पाई थी. 2020 में एनडीए में लौटने के बाद उन्होंने सात विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से चार जीतीं और 0.89% वोट शेयर मिला.
चिराग की राजनीतिक ताकत इस बात से झलकती है कि 2020 में वीआईपी से ज़्यादा सीटें जीतने के बावजूद उनकी पार्टी को 29 सीटें दी गईं, जबकि उसने केवल एक सीट जीती थी. उस समय उन्होंने लगभग 40 सीटों पर जेडीयू को नुकसान पहुंचाते हुए “वोट काटने वाले” की भूमिका निभाई.
2024 के लोकसभा चुनाव में चिराग ने बिहार में अपनी पार्टी को दी गई सभी पांच सीटों पर जीत हासिल की और केंद्र में मंत्री बने. साथ ही, 42 साल की उम्र में उनके पास युवावर्ग का समर्थन भी है. हरियाणा आईपीएस अधिकारी की आत्महत्या और 2024 में दलित नाराज़गी के बीच, बीजेपी के लिए चिराग अब इस चुनाव में अहम सहयोगी बन गए हैं.
प्रोफेसर रंजन ने दिप्रिंट से कहा, “(चिराग के दिवंगत पिता) राम विलास पासवान ने कुशवाहा या मांझी जैसे अन्य छोटे नेताओं के विपरीत दलित, मुस्लिम और ऊंची जातियों तक फैला एक व्यापक सामाजिक आधार बनाया था. वो हमेशा ईद मनाते थे, गुजरात दंगों के बाद एनडीए छोड़ दी थी.”
उन्होंने कहा, “चिराग अपने कोर वोट बैंक में युवा ताकत जोड़ रहे हैं. बीजेपी का लक्ष्य नीतीश युग के बाद बिहार पर राज करना है. चिराग लंबे समय में सबसे अहम सहयोगी बन गए हैं. बस उन्हें अपने पिता से एक बात सीखनी है — पार्टी की स्वतंत्रता बनाए रखना, जैसे राम विलास ने गठबंधन बदल-बदल कर किया.”
पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा भी बीजेपी के लिए अहम हैं. भले ही वे पिछले आम चुनाव हार गए हों, लेकिन वे कुशवाहा वोटरों पर मजबूत पकड़ रखते हैं. 2020 में उनकी पार्टी ने 30 से ज़्यादा सीटों पर वोट काटकर एनडीए और महागठबंधन दोनों को नुकसान पहुंचाया था.
सहनी की बात करें तो, वह खुद को “मल्लाह का बेटा” बताकर अपनी पहचान बनाते हैं, लेकिन 2015 में बीजेपी के लिए प्रचार करना, 2020 में नाराज़गी दिखाना और बीच-बीच में पाला बदलना — इन सबने उनकी राजनीति को अस्थिर बना दिया है.
उत्तर प्रदेश में एनडीए के खिलाफ 49 उम्मीदवार उतारने के उनके कदम के बाद बीजेपी ने नीतीश पर दबाव डाला और उन्हें कैबिनेट से हटवा दिया. इसके बाद वीआईपी के विधायक बीजेपी में शामिल हो गए. अब उनकी मांगों से आरजेडी और कांग्रेस दोनों नाराज़ हैं.
आईआईटी-पटना के प्रोफेसर आदित्य राज ने दिप्रिंट से कहा, “ये सामाजिक न्याय की पार्टियां वंचितों के नाम पर सत्ता में बड़ा हिस्सा चाहती हैं. देखिए मांझी ने ज़्यादातर टिकट अपने परिवार को दिए, कुशवाहा ने अपनी पत्नी को उतारा, चिराग ने भी परिवार के लोगों को मैदान में उतारा.”
उन्होंने कहा, “असल सत्ता का हिस्सा जमीनी स्तर तक नहीं पहुंचता. सामाजिक न्याय की राजनीति का ये दुखद पहलू है, लेकिन वंचित तबकों का सशक्तिकरण समय लेता है — ये (मंथन) की प्रक्रिया का हिस्सा है.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: गुजरात में बीजेपी की ‘म्यूज़िकल चेयर्स’, तीन दशकों से सत्ता पर कब्ज़े के पीछे की आज़माई हुई रणनीति