संघ के कितने स्वयंसेवक हैं कितने काम करते हैं लेकिन प्रसिद्ध सभी नहीं होते. दुनियादारी में चलना है तो संगठन के पदाधिकारी होना पड़ते हैं फिर बड़ा बन गया है
संघ को समझने के लिए इस कार्यक्रम का आयोजन हुआ है क्योंकि संघ अब एक शक्ति के रूप में इस देश में उपस्थित है। ऐसा अनुभव सारी दुनिया को होता है। स्वाभाविक उसकी चर्चा चलती है। चलनी भी चाहिए। परंतु चर्चा करने के लिए वस्तुस्थिति का पता भी होना चाहिए। चर्चा कैसी चले वो तो चर्चा करने वालों का अधिकार है। परंतु वास्तविकता क्या है? यह जानकर चर्चा होती है तो उसके सार्थ निष्कर्ष निकलते हैं। संघ का अपना काम एक अनोखा काम है। इस कार्य की तुलना करने के लिए दूसरा कोई कम्पेयरेबल संगठित करेंगे।ऐसा कहीं दिखता नहीं, और इसलिए फ्रॉम नोन टू अन्नोन ऐसे इसको जाना नहीं जा सकता। जानने को जाएं तो गलतफहमियां होने की संभावना ज्यादा रहती है। संघ का अनोखा तरीका होने के कारण और संघ के कार्यकर्ता अपना काम करते रहते हैं। प्रचार-प्रसिद्धि के पीछे नहीं भागते। संघ की शक्ति जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे उसका प्रचार अपने आप होने लगता है। माध्यमों का ज्ञान जाता है, लोगों की चर्चा में संघ आता है तो संघ क्या है? इसको जानने का सभी लोग प्रयास करते हैं। फिर कोई काम बढ़ता है, एक शक्ति स्वरूप बन जाता है। तो किसी-किसी को उस शक्ति का डर भी लगता है। तो फिर उसके बारे में अपप्रचार भी होता है। इसमें कोई भी बात अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन हमारे दिल्ली प्रांत के कार्यकर्ताओं ने सोचा एक बार संघ की वस्तुस्थिति क्या है? ये अधिकृत रूप से दिल्ली के प्रभावी, प्रतिष्ठित लोगों को बताई जाए। उस पर कुछ प्रश्नोत्तर हो और इसके लिए ये समय चुना गया। क्योंकि वस्तुस्थिति जानना आवश्यक है। ये वस्तुस्थिति मैं आपके सामने रखने वाला हूँ। आपके सामने रखते समय मेरा उद्देश्य आपको कन्विन्स करने का नहीं है। कन्विन्स होना नहीं होना आपका अधिकार है। जो है सो मैं बताऊँगा, आपके प्रश्नों के उत्तर जितनी मेरी जानकारी है उसके आधार पर मैं दूँगा। आगे उसमें शोध करना, संशोधन करना ये सब आपके ऊपर है। लेकिन जो भी चर्चा उसके बाद आपके द्वारा होगी वो संघ के अधिकृत जानकारी के आधार पर होगी, कितना हमारे लिए पर्याप्त है।
संघ को समझना है तो प्रारंभ करना पड़ता है डॉ. हेडगेवार से। संघ के वो निर्माता थे, और डॉ. हेडगेवार ने, हम लोग संघ में ऐसा कहते हैं कि अपने को बीज रूप में मिट्टी में मिलाकर संघ के वृक्ष को बड़ा किया। इसलिए संघ के सारे कार्य में डॉ. हेडगेवार के मानस का प्रतिबिम्ब मिलता है। बिना डॉ. हेडगेवार को जानें संघ को समझना कठिन है, संभव नहीं और आज अगर हम संघ को देखेंगेतो डॉ. हेडगेवार का मानस क्या था? इसकी झलक मिल सकती है तो इसलिए समझने वालों को वहां से प्रारंभ करना पड़ता है। नागपुर के एक कनिष्ठ मध्यमवर्गीय पुरोहित पर अपना उदर निर्वाह करने वाले परिवार में डॉ. हेडगेवार का जन्म हुआ। घर की परिस्थिति कोई बहुत अच्छी साम्पत्तिक परिस्थिति नहीं थी। तीन भाई थे, इनसे बड़े दो थे। उस समय स्वतंत्रता की बात समाज में चलने लगी थी। नागपुर में अंग्रेजों के आने के पहले वहां के राजा भोसला थे। उनका राज्य कैसे छीना गया इसकी चर्चायें चलती थीं। लोक कलाओं में कलाकार मंदिरों में कथावाचक ये सब चर्चायें करते थे। इस वातावरण में बचपन से ही डॉ. हेडगेवार और एक स्वतंत्रता की आकांक्षा लेकर पले-बढ़े, कैसे हुआ होगा, पता नहीं, हम उनको जन्मजात देशभक्त कहते थे क्योंकि बहुत छोटे थे, प्रायमरी स्कूल में थे। उस समय से ऐसा दिखता था। विक्टोरिया रानी के राज्यारोहण समारोह का कार्यक्रम भारत में हुआ। ब्रिटिशों का राज्य था तो सभी स्कूलों में कार्यक्रम होने अनिवार्य थे। वो हुए। इनके भी स्कूल में हुआ। ये तीसरी क्लास में पढ़ते थे और उस कार्यक्रम में मिठाई बांटी गई। तो उस मिठाई को लेकर इन्होंने कचरे में फेंक दिया। इसलिये शिक्षक ने उनको पूछा कि तुमको मिठाई अच्छी नहीं लगती, कूड़ेदान में फेंक दी। तो इन्होंने उत्तर दिया कि हमारा अपना राज्य छीनकर गुलाम बनाने वालों के राज्यारोहण समारोह की मिठाई हमारे लिए मिठाई कैसे हो सकती है। और ये दिन हमारे लिए उत्सव का दिन कैसे हो सकता है। ये तो शोक का दिन है। अब प्रायमरी स्कूल में पढ़ने की अवस्था में से इस प्रकार के विचार इस बालक में रहता था। ये उनका जन्म से मस्तिष्क कैसा था यह बताने वाली बात है। और इसलिये आगे कठिन परिस्थिति में उनको पढ़ना पड़ा क्योंकि 11 साल के थे तब इनके माता पिता एक ही दिन उनका देहावसान हो गया। प्लेग की बीमारी नागपुर में चल रही थी तो उनकी सेवा में दोनों लगे हुए थे तो उनको भी प्लेग हो गया और एक ही दिन दोनों का देहान्त हो गया। घर में कमाई का कोई साधन नहीं। अत्यन्त दरिद्री अवस्था में अपनी पढ़ाई को पूरा करना पड़ा। परन्तु सब कालावधि में डॉ.हेडगेवार के जीवन में जो आगे चलकर डॉक्टर बने दो बातें नहीं छूटीं एक अपनी पढ़ाई में हमेशा अपने विद्यालय के पहले दस बच्चों में आना। और दूसरी बात देश के लिए जो कोई प्रयास चल रहा हो उसमें तन-मन-धन पूर्वक, धन तो पास में नहीं था, तन-मन पूर्वक सहभागी होना। तो सार्वजनिक जीवन की दीक्षा बचपन से ही उनके जीवन में प्रवेश कर गई।
आगे चलकर वंदे मातरम् आन्दोलन चला। उस वन्दे मातरम् आन्दोलन को और नागपुर के विद्यालयों में संगठित करने का काम करने वाले अग्रणी टोली में डॉ. हेडगेवार थे। तो स्कूल इंस्पेक्शन के लिए इंस्पेक्टर जब आते थे तो प्रत्येक क्लास में उसका स्वागत वन्दे मातरम् की घोषणा से होता था। तो स्वाभाविक है कि उस समय की सरकार विफर गई। नागपुर के सारे स्कूल उन्होंने बन्द कर दिये और खोज शुरु की कि कौन है इसको करने वाले। लेकिन इतना अद्भुत संगठन उन्होंने बनाया था कि चार महीने हो गये लेकिन नाम बाहर नहीं आया कोई भी। अंत में फिर छात्रों के अभिभावक, सरकारी लोग, सबने मिलकर एक काम्प्रोमाइज निकाला कि विद्यालय खोलें, बच्चे विद्यालय में प्रवेश करते समय गेट पर हेडमास्टर खड़े रहेंगे और हर एक को पूछेंगे कि गलती हुई न तो मुंडी हिलाकर हां कहना। इतने nominal apology के साथ प्रवेश मिलेगा। लेकिन नागपुर में दो विद्यार्थियों में ये nominal apology देने का भी नकार दिया। उसमें एक केशव हेडगेवार थे। इसलिये उनको रस्टीकेट किया गया।
तो ऐसे आन्दोलनों में जिनकी पढ़ाई छूटती है उनके लिए उस समय के हमारे नेताओं ने राष्ट्रीय विद्यालय चलाये। उस राष्ट्रीय विद्यालय में वो पढ़े, छह सात महीना बाकी था, मैट्रिक की परीक्षा के लिए, दसवीं क्लास में पढ़ रहे थे तब की बात है और उस मैट्रीकुलेशन की परीक्षा में निजी तौर पर प्रायवेट में अपीयर होकर और वो फस्ट क्लास में पास हो गये। अब इनकी ये सक्रियता और इनके दिल की ये चिंगारी नागपुर के तत्कालीन जो नेता था उनको दिख रही थी। इसलिये उन्होंने उनको भेजा कलकत्ता मेडिकल कॉलेज, नेशनल मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई करने के लिए आर्थिक सहायता वगैरह थोड़ी-बहुत जुटाकर वहां भेज दिया। पढ़ाई का तो बहाना था। मुख्य उद्देश्य था इनको भेजने का कि वहां पर देशभर के क्रांतिकारकों की कोआर्डिनेशन कमेटी कलकत्ता में थी। अनुशीलन समिति होती है उसको कहते थे। उस अनुशीलन समिति से सम्पर्क में आकर ये और वापस छुट्टियों में आयेंगे तब, क्रांतिकारियों, सेन्ट्रल प्रोवीसन्न बरार के इलाके में स्थापित करें और दोनों काम डॉक्टर साहब ने बखूबी किये। मेडिकल कालेज की परीक्षा दी। अंतिम परीक्षा भी चार वर्षों के बाद फर्स्ट क्लास में पास हुए और इन चार वर्षों में अत्यन्त कड़ी परीक्षायें देकर उस क्रांतिकारक समिति के कोर कमेटी में उनका प्रवेश हुआ। उनका कोड नेम उस समय कोकेन था। तो राजस्थान से आंध्र क्रांतिकारकों को बसाना, उनके आजीविका की व्यवस्था करना, शस्त्र आदि उनको देना ये सारा काम संगठन के नाते उन्होंने किया।
आगे चलकर ये क्रांतिकारक आंदोलन भी इस समय असफल हो गया। आने वाले जहाज और भारत के किनारे पर ही पकड़े गए। अंदर के सूत्र भी पकड़े गए। तो फिर ये सारा व्यवस्थित करना, फिर से सारा समेटना ये काम भी उन्होंने किया। लेकिन एक संकल्प इस सारे कालावधि में उन्होंने लिया कि इस जीवन को केवल अपने देश के लिए जीना है और कुछ करना नहीं है। कॉलेज की परीक्षा पास होते ही प्रिंसिपल ने उनको कहा कि तुम अगर जाना चाहते हो तो ब्रम्हदेश में, वर्मा में तुम्हारे लिए एक अच्छी नौकरी है, तीन हजार रुपये वार्षिक वेतन मिलेगा तो डॉ. हेडगेवार ने कहा कि मैंने नौकरी नहीं करना है यह तय किया है। वो वापस आ गए। डॉक्टर बना हुआ व्यक्ति उस जमाने में पूरे इलाके में 75-100 से ज्यादा डॉक्टर नहीं थे, अगर प्रेक्टिस करते तो बहुत पैसा खींचते। लेकिन उनका तो तय था कि कमाना नहीं है। देश के काम पूरी तरह लग जाना। लेकिन डॉक्टर बनकर आए। इसलिए विवाह के भी प्रस्ताव आने लगे। तो उन्होंने अपने चाचा को पत्र लिखा। उनके गार्जियन वही थे, माता-पिता तो थे नहीं। चाचा को पत्र लिखा कि मैंने इस जीवन में आजीवन ब्रह्मचारी जीवन का पालन करते हुए देश के लिए जीवन लगाने की प्रतिज्ञा की है। मुझे विवाह वगैरह करना नहीं है। तो फिर प्रस्ताव आना बंद हो गया और फिर आंदोलन का उस समय केवल एकमात्र मार्ग था।
अपने देश के लोगों ने मिलकर, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस स्थापन की थी, उसके वो कार्यकर्ता बने, विदर्भ प्रदेश के। प्रमुख कार्यकर्ताओं से चोटी के कार्यकर्ताओं में उनका क्रमांक लगता था और असहकार आंदोलन शुरू हो गया। उसका प्रचार करना था। तो गांव-गांव जाना, पैदल जाना, बैलगाड़ी से जाना। उन दिनों यातायात के साधन आज जैसे, वैसे नहीं थे। सारा परिश्रम करके और लोगों को जगाने का उन्होंने प्रयास किया। उनके भाषणों के कारण पकड़े गए, अरेस्ट हो गए। उन पर राजद्रोह का आरोप लगा और नागपुर के एक कोर्ट में अभियोग चला। तो अभियोग में अपना डिफेंस उन्होंने दिया।
आंदोलन में डिफेंस नहीं देते थे लोग, जो सजा होती थी वो स्वीकार करना। उन्होंने कहा सजा तो मैं स्वीकार करूँगा, लेकिन डिफेंस में बोलूँगा, क्योंकि कोर्ट में उस समय पत्रकार भी आते थे, जनता भी आती थी तो और एक भाषण करके अपना विषय प्रचारित करने का मौका मुझे मिल गया। इसलिए उन्होंने बचाव का भाषण किया। उस भाषण का प्रारंभ ही यहीं से किया कि किस कानून के तहत अंग्रेजों को भारत वर्ष पर राज्य करने का अधिकार मिलता है। वो कानून अगर कहीं है तो बताओ। मैं तो आपके इस अधिकार को ही नहीं मानता। आपके कानून को भी नहीं मानता, आपके न्याय को भी नहीं मानता। मैंने अपने लोगों को कुछ गलत नहीं बताया है। अपने समाज के लोगों को मैंने जागरुक किया है। स्वतंत्रता मनुष्य का अधिकार है। स्वतंत्र कैसे होना, स्वतंत्र कैसे रहना और अपने स्वतंत्रता के साथ अपना जीवन कैसे चलाना, इसके बारे में मैंने भाषणों में बोला है। इसको अगर राजद्रोह समझकर और मुझे और मेरे जैसे लोगों पकड़कर जेल में डालने की बारी अंग्रेज सरकार पर आ रही है तो अंग्रेज सरकार को भी समझना चाहिए कि अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर उनका इस देश से जाने का समय निकट आ गया है। तो जज ने उनको एक वर्ष की सश्रम कारावास की सजा देते समय कहा कि जिन भाषण के बारे में उन पर आरोप लगा है उससे ज्यादा ज्वालागाही, भड़काऊ इनका बचाव का भाषण है।
एक वर्ष जेल में गए। जेल में जाते समय उनको विदाई की सभा भी हुई, लोग आए जेल तक कोर्ट से और पुलिस लाइन में बैठने तक बीच में एक छोटी सभा हो गई। उसमें इनको भाषण करना पड़ा। तब उन्होंने जो बात कही तो उनके मन में जो चल रहा था, उसकी झलक उसमें से मिलती है। उन्होंने तब ये कहा और बाद में जेल से छूटने के बाद उनकी एक अभिनंदन सभा हुई, जिसकी अध्यक्षता मोतीलाल नेहरू कर रहे थे। उसमें भी उन्होंने भाषण दिया, उसमें भी यही बात कही। उन्होंने कहा कि केवल जेल में जाना ही देशभक्ति है, ऐसा मानने का कारण नहीं, जेल में जाना पड़ता है तो जेल में भी जाएंगे। लेकिन बाहर रहकर लोगों के मन में स्वतंत्रता का अर्थ, स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए करने के लिए प्रयास, इनके बारे में जागृति करना यह भी देश भक्ति है। तो एक साल मैं कारावास में रहा तो मेरा तो वजन बढ़ गया। मेरे ऊपर कोई दुष्परिणाम नहीं हुआ। लेकिन मुझे विश्वास है कि हम जैसे लोगों की अनुपस्थिति में ये काम तो चला ही होगा और फिर से उन्होंने अपना जागृति का कार्य प्रारंभ किया।
अब थोड़ा हम पीछे जाएंगे क्योंकि ये सारा काम करते समय देश के सार्वजनिक जीवन में डॉ. हेडगेवार का संबंध सर्वत्र आता था। उनका स्वभाव ऐसा था कि किसी की विचारधारा अलग है, या विरोधी भी है। तो भी जब तक सामने वाला प्रामाणिक है देश के हित की भावना लेकर काम कर रहा है तब तक उनका कोई विरोध उससे होता नहीं था। सभी प्रकार के विचारधाराओं के लोग उनके अच्छे मित्र थे। उस समय नागपुर में और एक कम्युनिस्ट नेता हुआ करते थे बेरिस्टर रूइकर। अच्छे बेरिस्टर थे और धनवान थे और नागपुर के मजदूरों के नाते के नाते उनकी प्रसिद्धि थी और कम्युनिस्ट विचार के थे। डॉ. हेडगेवार उनके बड़े अच्छे मित्र थे। डॉ. हेडगेवार की परिस्थिति अच्छी नहीं थी, आर्थिक दृष्टि से गरीब थे। तो डॉ. हेडगेवार उनको कहते थे कि आइ एम ए पुअर केपिटालिस्ट एंड यू आर रिच लेबरर ऐसे उनकी नोंक-झोंक चलती थी। एक बार उन्होंने बेरिस्टर रूइकर को पूछा अगर कल सुबह में आपके घर आकर मैं आपको ये समाचार दूँ कि अंग्रेजों का राज चला गया और शिवाजी महाराज वापस आ गए हैं और शिवाजी महाराज का राज्य सर्वत्र शुरु हो गया है तो आप क्या करेंगे। तो बेरिस्टर रूइकर साहब ने कहा कि ये पूछने की बात है। मैं हाथी पर से पेड़े बटवाऊँगा। तो डॉ. हेडगेवार ने कहा कि इसका मतलब आपको भी वहीं जाना है जहाँ हमको जाना है। तो आपस में झगड़ा क्यों करते हैं, हम मिलकर क्यों नहीं चलते हैं। छोटी-मोटी तात्विक बातों को लेकर इतने विवाद क्यों खड़ा करते हैं। ये उनका माइंडसेट था। इसके कारण सभी प्रकार के लोगों से उनकी चर्चाएँ, वार्ताएँ होती रहती थीं।
अब ये सभी प्रकार के लोग यानी क्या प्रकार थे। तो मैंने जो अध्ययन किया है थोड़ा, बहुत उससे में मुझे ऐसा लगता है। 1857 में देश को स्वतंत्र करने का एक बड़ा प्रयास भारतवर्ष में हुआ था, वो विफल हुआ। विफल होने के बाद अपने देश में और प्रमुख लोगों के मन में चिंतन शुरु हुआ कि हमारा देश, हमारी संख्या इतनी प्रचंड, हमारे पास भी सेना राजा-महाराजा सब हैं और अंग्रेज लोग मुट्ठीभर हैं और बाहर से आए हैं। फिर भी वो जीते और हम हारे ये कैसे हुआ। और ऐसो कुछ चिंतन-मंथन करके समाज जागृति के जो प्रयास बाद में शुरू हुए उसकी सामान्यतः चार मोटी-मोटी धाराएँ दिखाई देती हैं।
एक धारा है जो कहती थी कि एक प्रयास विफल हुआ तो क्या हुआ। इसी मार्ग से यानी सशस्त्र संघर्ष मार्ग पर ही आगे बढ़ना चाहिए और इसलिए बाद में क्रांतिकारकों का मार्ग शुरु हुआ, गदर के प्रयास हुए। फिर क्रांतिकारकों के छोटे-छोटे टोले बनें। उन्होंने कुछ किया। 1945 में सुभाष बाबू के विमान आघात में अंतरध्यान हो जाने तक ये धारा चली। देश के लिए अपना सर्वत्र न्यौछावर करने वाले अनेक प्रकार के महापुरुष उसने हमको दिए, आज भी हम उनका स्मरण करते हैं। उनसे प्रेरणा लेते हैं। अब हमारा देश स्वतंत्र है तो उसका प्रयोजन नहीं है।
दूसरी एक धारा ये निकली कि अपने देश के लोगों में ये राजनीतिक समझ कम है। सत्ता किसकी है, इसका क्या महत्व है लोग कब जानते हैं। अपने देश के लोगों की राजनीतिक जागृति करना चाहिए और इसलिए कांग्रेस के रूप में एक बड़ा आंदोलन सारे देश में खड़ा हुआ। उसमें भी अनेक सर्वस्व त्यागी महापुरुष, जिनकी प्रेरणा आज भी हमारे जीवन की प्रेरणा में काम करती है, ऐसे पैदा हुए और देश के सर्वसामान्य व्यक्ति को स्वतंत्रता के लिए रास्ते पर लाकर खड़ा करने का काम उस धारा ने किया है। एक बड़ा योगदान अपनी स्वतंत्रता प्राप्ति में उस धारा का है। देश का जीवन आगे चलता है तो राजनीति तो होती ही है, आज भी चल रही है ये। अब वो सारे देश की एक राजनीतिक धारा रही नहीं, अनेक पार्टियाँ हैं, अनेक दल हैं। और अब उसकी स्थिति क्या है? इसके बारे में कुछ नहीं कहूँगा। आप समझ लीजिए क्या है? कैसा है? आप देख ही रहे हैं सारी बात।
तीसरी एक धारा थी जो कहती थी हमारे समाज में ही सुधारने की आवश्यकता है। इतने सारे स्वार्थ हैं, इतने सारे भेद हैं। एक-एक व्यक्ति का चारीत्रिक स्खलन है। आपस में भाषा के, प्रांत के, जाति, उपजाति के इतने भेद हैं, समाज में अशिक्षा है, समाज दरिद्र है। इन सब बातों को निकाले बिना हम अंग्रेजों के सामने खड़ा होकर मुकाबला करने की शक्ति नहीं रख सकते। इसलिए समाज सुधार उसमें भी कई ऐसे प्रातःस्मरणीय महापुरुष हो गए, जिनका नाम हम आज भी लेते हैं। उनका आदर्श अपने जीवन के लिए अपने सामने रखते हैं। लेकिन हुआ यह कि धारा तो चली और आज भी थोड़ी बहुत चल ही रही है। लेकिन सागर में द्वीप जैसी उनकी स्थिति हो गई, उन्हें जो समाज सुधार सुझाए और कुछ मात्रा में समाज में परिवर्तन लाकर दिखाया वहीं तक सीमित हो गया, सारे समाज के स्वभाव में, आचार में वह परिवर्तन नहीं आया। उनके सपने अभी अधूरे हैं और चौथी एक धारा थी जो कहती थी कि देखो अपने मूल पर वापस चलो। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद जी, रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद जी ऐसे लोगों ने और अपने मूल पर पक्का खड़ा होकर समाज से दरिद्र और अज्ञान भगाने के लिए सेवा करने का संदेश दिया। उस पर भी हम थोड़ी, बहुत मात्रा में आज भी चल रहे हैं। लेकिन बात है कि हमारे देश में जो एक समाज का गुणवत्तापूर्ण चित्र उपस्थित होना चाहिए था, वो नहीं हो सका। स्वतंत्रता के पहले नहीं हुआ और स्वतंत्रता के बाद आज के समय में जब हम बैठ के अपने देश को देखते हैं तो हम सबको इसकी आवश्यकता महसूस होती है। उस समय काम करने वाले और आज जो ऐसा काम कर रहे हैं अथवा कर चुके ऐसे लोगों ने कहीं न कहीं बोल के, लिख कर रखा है।
श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर उनका एक स्वदेशी समाज नाम का बड़ा प्रबंध है। उसमें उन्होंने कहा कि एकात्मकता की जरूरत है, आपस में झगड़े नहीं चलेंगे और झगड़े का उपाय हमको मिल सकता है, क्योंकि हमारे पास सब विविधताओं को एक साथ चलाने का परम्परा से विचार है, संस्कृति है परंतु ये परिवर्तन राजनीति में परिवर्तन होने के कारण नहीं आता, समाज में परिवर्तन होना चाहिए। समाज में परिवर्तन होगा तो समाज जीवन के सारे क्रियाकलाप अपने आप परिवर्तित हो जाएंगे। वहां से शुरू करके यहां नहीं पहुंचा जा सकता, यहां से शुरू करके वहां पहुंचना पड़ेगा और फिर आगे वो कहते हैं कि इसके लिए नायक की आवश्यकता है। जो शुद्ध चरित्र सम्पन्न है। समाज के सब लोगों के प्रति जो आत्मीय भाव से बरतता है। और समाज के मन में उसके प्रति पूर्ण विश्वास है। ऐसे नायक को खड़ा करना पड़ेगा। उन्होंने एक वचन कहा है, अपना इतना बड़ा विविधताओं से भरा हुआ देश है, मुझे लगता है कि जगह-जगह ऐसे नायक चाहिए, जिनके करने से और समाज का आचरण, वातावरण बदलेगा। ये उन्होंने कहा है।
मानवेंद्रनाथ रॉय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना जिन्होंने की, बाद में वे रेडिकल न्यूमेनिस्ट बने। और अपने जीवन का एक दस्तावेज के रूप में उन्होंने जो डिराडिकल न्यूमेनिज्म नाम का ग्रंथ लिखा वो आपने देखा होगा, या देखिए जरूर। उसके अंतिम प्रकरणों में एक निष्कर्ष बताते हैं। वो कहते हैं कि ऊपर-ऊपर परिवर्तन करके, समाज को अगर बिना बदले देश में अगर परिवर्तन का प्रयास करेंगे तो वह संभव नहीं होगा। हमको समाज के सामान्य व्यक्तियों के पास पहुंचकर, उसकी गुणवत्ता में और उसकी सोच में परिवर्तन लाना पड़ेगा। ये रास्ता बहुत लम्बा दिखता है लेकिन अगर यही एक रास्ता है तो यही सबसे छोटा रास्ता है। अन्य शार्टकट ढूंढेंगे तो शार्टकल विल कट यू शार्ट। ये उनका वचन है।
अपने पूर्व राष्ट्रपति डॉ.अब्दुल कलाम अरुणाचल में गए थे उन्होंने जो भाषण दिया था। उसमें उन्होंने तीन बातें बताईं थी कि हमारे देश में हम लोगों को अपने प्रति, स्वयं के प्रति अपने देश समाज के प्रति विश्वास जागृत करने की आवश्यकता है। हम सब कर सकते हैं और ये करना है तो हमको लोकशक्ति का जागरण करना पड़ेगा और आगे वो कहते हैं कि लोक शक्ति के जागरण के लिए हमको अपने प्राचीन संस्कृति के संस्कारों का पुनरुज्जीवन करना पड़ेगा। अरुणाचल का वो भाषण उपलब्ध है, देख सकते हैं आप। उनकी किताबों में सर्वत्र कहीं न कहीं ऐसी बातें आ जाती हैं।
अमूल जिनके कारण बना, अभी हाल में जिनका देहांत हुआ डॉ.वर्गीस कुरियन। उन्होंने अपना आत्मचरित्र लिखा है। ‘आई टू हैड अ ड्रीम’, उसमें उन्होंने लिखा है कि केवल शासकीय व्यवस्थाओं पर निर्भर रहकर सामान्य समाज की उपेक्षा करने का ये क्रम ऐसे ही चलता रहा तो इस देश में कोई बड़ा काम होना संभव नहीं है। हमको समाज को शिक्षित करना पड़ेगा, उसको ऊपर उठाना पड़ेगा। उसके बल पर सारे प्रयास करने होंगे।
ये मैं क्यों बता रहा हूँ? डॉ. हेडगेवार पूर्णतया देश के सार्वजनिक जीवन में सक्रिय थे और कहीं न कहीं इन सब कार्यों के माध्यम से उनका देश के मूर्धन्य चिंतकों से सम्पर्क आया। क्रांतिकारकों का भी काम भी उन्होंने किया। वो उस समय स्वतंत्रता आंदोलनों में भी सहभागी हुए। समाज सुधार के कार्य भी उनके हाथ से वो करते थे। उन्होंने देश की जागृति के लिए सभाएँ लीं। मंदिर कथा, प्रवचनों में एक ही उनका था उसको जागृत करना। एक बार उनके इस सतत के और आग्रह से ऊबकर उनके मित्रों ने तय किया कि एक बार इनसे भाषण करवाएँगे, जिसमें देश विषय आएगा ही नहीं और इसलिए उनको छोटे गुट में, स्टडी सर्कल में बुलाया, विषय दिया ‘नींद’ पर भाषण करो। ‘स्लीप’ अब क्या देश की बात करेंगे। तो डॉ. हेडगेवार ने भाषण दिया, आप सब डॉक्टर लोग हो, आप सब जानते हो कि नींद बड़ा महत्व का विषय है। इसकी जगह स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता, अच्छी नींद आनी चाहिए। क्योंकि आज देश को स्वस्थ तरुणों की आवश्यकता है, फिर देश की परिस्थिति, तरुणों का कर्तव्य इस पर बोले वो। ऐसे लगातार देश की चिंता में वे व्यस्त ही ऐसे वो थे। तो सबसे उनकी चर्चाएँ होती थीं। सबके विचारों का विमर्श उनको मिलता था। सबके विचारों में वो जाते थे।
गांधी जी जब यरवड़ा में पकड़े गए। 28 मार्च शायद वो दिनांक था तो नागपुर की कांग्रेस कमेटी ने तय किया प्रति मास 28 मार्च को गांधी जी का स्मरण करेंगे, उनके विचारों का स्मरण करेंगे। और 1922 में 28 अप्रैल को पहला एकत्रीकरण उनको बुलाना था किसी को, उन्होंने डॉ. हेडगेवार को बुलाया वक्ता के नाते। तो डॉ. हेडगेवार ने वहां उनको कहा कि गांधी जी का मात्र स्मरण करने से काम नहीं चलेगा, उनके जीवन में जो पराकोटी का त्याग है और सम्पूर्ण निस्वार्थ भाव से देश, समाज के लिए काम करने की जो ललक है, उसका हमको अनुकरण करना पड़ेगा। वो सुभाष बाबू से मिले थे, वो सावरकर जी से मिले थे। क्रांतिकारकों से उनका तो संबंध था ही। राजगुरु जब भूमिगत हुए तो नागपुर में, विदर्भ में उनके रहने की व्यवस्था उन्होंने की थी।
ऐसे सब लोगों से उनकी चर्चाएं होती रहती थी, उसमें से उनके ध्यान में आया कि सबको ऐसा लगता है कि जो उपक्रम हमने हाथ में लिया है वो कभी न कभी यशस्वी होंगे। परंतु बार-बार ये काम करने की आवश्यकता हमारे समाज में पड़नी नहीं चाहिए। ये अपने आप होना चाहिए। स्वस्थ समाज में समाज में के लिए जो आवश्यक है वो अपने आप होता रहता है किसी को करना नहीं पड़ता। लेकिन ये जो बार-बार आवश्यकता पड़ती है इसका कारण हमारे समाज की कोई कमियां है और उन कमियों को सुधारकर अगर हम समाज को खड़ा नहीं करेंगे तो हमारे सब काम या तो अपूर्ण रह जाएंगे या तो तात्कालिक रूप से ही सफल होंगे। असफल भी हो सकते हैं, ये चिंता सबके मन में है ये उनके ध्यान में आया।
त्रिलोकनाथ चक्रवर्ती, प्रसिद्ध क्रांतिकारक थे, कोलकाता में, बाद में वो दिल्ली आए। डॉ. हेडगेवार की हम लोगों ने जन्मशताब्दी जब 1989 में की उस समय और उनको उस शताब्दी समिति में लेने के लिए हमारे कार्यकर्ता उनके पास गए थे। उनको जब बताया तो उन्होंने सहमति तो दे दी। उन्होंने कहा कि 1911 के समय एक बार डॉ. हेडगेवार मेरे घर आए थे। परिचय तो था ही, क्रांतिकारी में सहयोगी थे। उन्होंने ये बात की थी दादा लगता है कि इस समाज को कुछ ट्रेनिंग देने की आवश्यकता है और ट्रेनिंग देने की फुर्सत किसी को नहीं है, सबने अपना-अपना काम चुन लिया है। मुझे लगता है यह काम मुझे ही करना पड़ेगा। तबसे उनके मन में विचार था कि स्वतंत्र देश कहलाने के लिए योग्य समाज नहीं है, उसकी योग्यता बनाने का काम करना पड़ेगा। और इसलिए उन्होंने प्रयोग किए। लगभग 7-8 वर्ष ये कैसे हो सकता है, ये प्रयोग किया। क्या कार्यक्रम होंगे, प्रशिक्षण में इसके प्रयोग किए। अनेक संस्थाएं चल रही थी उनके काम देखे, उसमें से कुछ ले कर करने का प्रयास किया, कुछ अपने मन से सोचा। कुछ मंडल चलाए, इस प्रकार प्रशिक्षण देने वाला। वर्धा में उन्होंने एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक मण्डल भी चलाया। संघ का नाम, संघ की स्थापना के 3-4 वर्ष पहले ही उसके दो शब्दों उपयोग उन्होंने किया था। और ये सारे प्रयोग करके अपने समाज को खड़ा करने की एक पद्धति उन्होंने उत्पन्न की और विजयादशमी 1925 को नागपुर में शुक्रवार, 27 सितम्बर उन्होंने घोषणा की, कि ये काम आज से शुरू हो रहा है। जितने सहयोगी मिल सकें उस समय, उतने सहयोगियों से साथ उन्होंने शुरू किया। और इतना ही बताया कि ये काम अभी शुरू हो रहा है और कुछ नहीं बताया।
लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्या है? ये मैथेडोलाजी है और कुछ नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम को जो संगठन है वो करता क्या है? वो व्यक्ति निर्माण का काम करता है। क्योंकि समाज के आचरण में कई प्रकार का परिवर्तन आज भी हम चाहते हैं। हमको भेद मुक्त समाज चाहिए, समता युक्त समाज चाहिए, शोषण मुक्त समाज चाहिए। स्वार्थ भी जाना चाहिए। लेकिन ये जाना चाहिए करके होगा नहीं। समाज का आचरण उदाहरणों की उपस्थिति में बदलता है, आदर्श हमारे यहां हैं, महापुरुषों की कोई कमी नहीं है। देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाले हमारे इस भूमि के आदिकाल से इस क्षण तक बहुत लोग हैं। लेकिन अपने सामान्य समाज की प्रवृत्ति क्या है? वो उनकी जयंती, पुण्यतिथि मनाता है। उनकी पूजा जरूर करेगा, उनके जैसा गलती से भी नहीं बनेगा। छत्रपति शिवाजी महाराज फिर से होने चाहिए लेकिन मेरे घर में नहीं होने चाहिए, इसकी चिंता वो करेगा। दूसरे के घर में होना चाहिए। क्योंकि एक अंग्रेजी वर्ड में रीडर्स डाइजेस्ट में पढ़ा कुछ वर्ष पहले उसमें ये कहा गया, दी आइडियल्स आर लाइक स्टार्स, विच वी नेवर रीच। आदर्श से वो दूर ही रहते हैं। उनकी पूजा होती है, उनका अनुकरण नहीं होता है। आगे का वाक्य है बट वी केन प्लाट आवर चार्ट एकार्डिंग टू देन। वो प्लाटिंग में चार्ट का काम होता नहीं, वो किसके भरोसे होता है, वो अपने और निकट जो लोग हैं, हमारे में से ही लोग है, उनके आचरण का प्रभाव हमारे आचरण पर होता है। अगर देश के प्रत्येक गांव में, प्रत्येक गली, मोहल्ले में स्वतंत्र भारत के आज के नागरिक का जैसा वातावरण होना चाहिए वैसा आचरण करने वाले हर परिस्थिति में उसको न छोड़ने वाले, उस पर अड़े रहने वाले, चरित्र सम्पन्न, सम्पूर्ण समाज से अपना आत्मीय संपर्क रखने वाले लोग खड़े हो जाएंगे। तो उस वातावरण में समाज का आचरण बदलेगा।
संघ की ये योजना है। प्रत्येक गांव में प्रत्येक जिले में अच्छे स्वयंसेवक खड़े करना अच्छे स्वयंसेवक का मतलब है जिसका अपना चरित्र विश्वासास्पद है। शुद्ध है, जो सम्पूर्ण समाज को देश को अपना मानकर काम करता है। किसी को भेदभाव से शत्रुता भाव से नहीं देखता। और इसके कारण जिसने समाज का स्नेह और विश्वास अर्जित किया है। ऐसा आचरण करने वाले लोगों की टोली प्रत्येक गांव में प्रत्येक मोहल्ले में खड़ी हो। ये योजना 1925 में संघ के रूप में प्रारंभ हुई। संघ बस इतना ही है इससे ज्यादा नहीं। डॉ. हेडगेवार को पूछा गया कि आप क्या करेंगे? पहली बार जब संघ का पथसंचालन 1928 में नागपुर में हुआ, ज्यादा लोग नहीं थे। 21-22 ऐसी संख्या थी। लेकिन अपने समाज में उस समय 21-22 लोग भी एक दिशा में कदम मिलाकर चल रहे थे यह दृश्य बड़ा दुर्लभ था। इसलिये लोग प्रभावित हो गये और डॉ. हेडगेवार के पास गये, क्योंकि उनको पता था कि ये क्रांतिकारी प्रवृत्ति के आदमी हैं। इन्होंने अपना जीवन देश के लिए समर्पित किया है तो उनको लगा कि इनकी जरूर कोई दूर की डिजाइन है, दूर की गोटी कोई खेल रहे हैं। तो बड़ा विश्वास में लेकर डॉक्टर साहब अब अपने पचास लोग हो गये, अब आप आगे क्या करेंगे? तो डॉ. साहब ने कहा कि पचास के बाद पांच सौ करेंगे। पांच के बाद फिर, पांच हजार, पांच हजार होने के बाद, अभी हुए कहां, नहीं हो गये मान लो हो गये तो क्या करेंगे। पचास हजार करेंगे। ऐसा बढ़ते बढ़ते पांच करोड़ तक पहुंचा तब उसने उठकर पूछा कि आप करेंगे क्या इनका। तो उन्होंने कहा कि कुछ नहीं करेंगे इतना ही करेंगे। डॉक्टर साहब ने कहा कि सम्पूर्ण हिन्दू समाज को हमको संगठित करना है। उसमें अपना अलग संगठन नहीं खड़ा करना है। सबको संगठित करना है। ये छोड़कर हमको दूसरा कोई काम नहीं करना है। क्योंकि ऐसा समाज खड़ा होने के बाद जो होना चाहिए वह अपने आप होगा। उसके लिए और कुछ नहीं करना पड़ेगा। सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उस समय स्थापना हुई।
ये हिन्दू क्यों आया। ये बहुत बड़ा प्रश्न समाज से आता है आज भी आता है। तो संघ की स्थापना के मूल में जो विचार है उसके तीन हिस्से हैं। एक मैंने बताया। समाज का परिवर्तन होने से सारी व्यवस्थायें यशस्वी होती हैं। व्यवस्था अच्छी है, व्यक्ति खराब है, व्यवस्था बिगड़ती है। व्यक्ति अच्छे हैं, व्यवस्था खराब है, व्यक्ति को बिगाड़े देती है। दोनों अच्छा होना चाहिए और प्रारंभ समाज से होता है क्योंकि व्यवस्थाओं को बदलने वाले व्यवस्था के लोग कभी हो नहीं सकते वो तो व्यवस्था में हैं। वो बदलेंगे तो उन पर ही खतरा है। समाज का दबाव व्यवस्थाओं को बदलता है इसलिये हर परिवर्तन के पीछे कोई न कोई समाज जागृति है। दुनिया में कहीं भी जाकर देख लीजिये। लेकिन समाज का आचरण बदलेगा व्यक्ति निर्माण से। अब इस सबमें समाज को संगठित करने में एक मुख्य कठिनाई है, कि ये समाज एक भाषा बोलने वाला समाज नहीं है। अलग-अलग इसकी भाषायें हैं। एक चीज दूसरे को समझ में नहीं आती, ऐसी स्थिति भी है। एक हिन्दी की ही बोलियां इतनी हैं। पहली बार जब मैं बिहार में गया, भेजा गया मुझे, तो प्रवास किया, सब ब्लाक्स तक कम से कम जाकर आया। तो एक बार लंबा प्रवास करके आया था पूर्णिया तरफ से। उस समय की बसें वगैरह, उस समय के रास्ते तो सुबह चला तो शाम को पहुंचा। थक गया था। धूल भी बहुत थी कपड़ों पर। हमारे वहां प्रचारक थे तो उन्होंने कहा आपका पायजामा फींच लूंगा। तो मैं डर गया, पहली बार पहुंचा हूं। और ये ऐसी बात कर रहा है। क्या हुआ मेरी गलती क्या हुई। बाद में ध्यान में आया कि धोने को फींचना कहते हैं और फींच का खींच हो जाता है बात करते करते। अब ये हिन्दी है उन्हें भी आती है मुझे भी आती है।
इतनी भाषाओं को विविधता, देवी-देवताओं का क्या कहें, 33 करोड़ तो पहले से ही हैं। नये-नये आते रहते हैं। साई बाबा पहले कहां थे। पहले नहीं थे। भगवान को न मानने वाले भी भारत के सम्प्रदाय हैं। कितनी विविधता है। दर्शन में परस्पर विरोध भी है। इस समाज में जोड़े कैसे। खान पान रीति रिवाज अलग अलग हैं। अमुक प्रकार की सूजी, कहीं पर मिर्ची ज्यादा, कहीं पर मीठा ज्यादा। किसी भी बात में एक जैसी समानता भारत में कहीं नहीं है। और दुर्भाग्य से इनमें से कुछ विविधताओं को लेकर हमने पहले हमने अपने भेद बनाये हैं। एक दूसरे को एक दूसरे से अलग किया। उंच नींच भी किया और बाद में विदेशियों ने भी उसका लाभ लिया। उन दरबारों को और चौड़ा किया। तो कैसे जोड़ा जाए। जोड़ने वाला कोई सूत्र है। ऐसा कोई विचार है। जो सब प्रकार की उपासनाओं को, पूजाओं को, देवताओं को मानता है। सबको सबको कहता है। जो किसी एक भाषा पर आग्रह नहीं रखता, सब भाषाओं का जिसमें स्वीकार है। खान-पान, रहन-सहन की विविधता का सब प्रकार का जिसमें स्वीकार्य है। सौभाग्य से हमारे देश का जो परम्परा से चलता आया विचार है, जब मैं विचार करता हूं, कहता हूं तब मैं मूल्यों की बात करता हूूं। विचार के मूल्य होते हैं जिसमें से विचार निकलता है। उसके आधार पर कुछ फार्मूलेशन होता है। वह अलग अलग होता है। परस्पर भी हो सकता है। लेकिन हमारे देश में इतने सारे विचार हैं। किसी भी प्रकार से जो हमारे देश की भूमि से निकले हैं। उनको देखेंगे तो आपको ध्यान में आएगा कि बीच में जो दिखने वाला है वह सब अलग अलग है परस्पर विरोधी भी है। लेकिन जहां से शुरू हुआ वह प्रस्थान बिन्दु और जहां उसकी परिणति होती है वह प्रत्यक्ष उपदेश इसमें कोई फर्क नहीं है। प्रस्थान बिन्दु एक है कि मूल में एक है। विद्वान लोग उसको अलग-अलग नजर से देखते हैं इसलिये उसका अलग-अलग वर्णन करते हैं। लेकिन वह एक ही है। एक ही वस्तु का अलग अलग वर्णन है। एकम् सद् विप्राः बहुधा वदन्ति। इसलिये विविधताओं से डरने की कोई बात नहीं। विविधताओं को स्वीकार करो। सभी विविधतायें सत्य हैं। विविधताओं का उत्सव मनाओ। अपनी अपनी विविधता पर पक्का रहो, विशिष्टता पर पक्का रहो। सबकी विविधता का सम्मान करो। मिल-जुलकर साथ चलो। ये दूसरा समन्वय का मूल्य है। वह अपनी परम्परा है। और सबके साथ मिलकर चलना तो अपने ऊपर बंधन लाना पड़ता है। मुझे अकेला खाना है तो सब कुछ खा जाऊंगा, लेकिन और दस खाने वाले हैं तो सबको हुआ कि नहीं मुझे देखना पड़ेगा। इसलिये संयम का तीसरा मूल्य है। और ऐसा जीवन जीना है तो छोड़ने की आदत चाहिए। सब कुछ चाहिए। ऐसा नहीं चलेगा। और सब कुछ चाहिए में चाहत कभी समाप्त नहीं होती, यह सबने कहा है। तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती। हम समाप्त हो जाते हैं। तृष्णा चलती रहती है। तो त्यागपूर्वक जीना पड़ेगा। अपनी जरूरतें कम करते जाओ, किसी चीज की जरूरत न रहे, ऐसा जीवन बहुत अच्छा जीवन है। संन्यास का जीवन है और सम्पूर्ण अस्तित्व उसके तुम एक अंग हो। तुम्हारा निर्माण उस सम्पूर्ण अस्तित्व के योगदान के कारण हुआ है। ये तो अपना अनुभव है। देह मुझे माता-पिता के कारण मिला। संस्कार मुझे परिवार के कारण, समाज के कारण, विद्यालय के कारण, गुरुओं के कारण मिले। कपड़ा पहनता हूं तो कई मील चलती हैं। कहीं कोई बुनता है, किसान कपास खेती करता है इसलिये होता है। खाना-पीना इसीलिये मिलता है। मैं अकेला होकर तो मैं जी भी नहीं सकता।
मनुष्य अकेला नहीं जी सकता। और मनुष्य के जीने में सबका योगदान होता है। तो ये समझो कि आप इस सृष्टि का अविभाज्य अंग हों। उसमें आपको योगदान करना है। उसके प्रति आप कृतज्ञ रहो। ये कृतज्ञता का पांचवा मूल्य है। ये पांच बातें सर्वत्र भारत से निकले हुए सब विचारों में मिलती है। वो एक क्या है तब उसका दर्शन शुरू होता है। कोई इसको जड़ मानता है, कोई इसको चेतन मानता है, कोई उसको ईश्वर मानता है, कोई उसको और कुछ मानता है। परस्पर विरोध भी है। खंडन-मंडन भी चलता रहा है, लेकिन कभी भी समाप्ति किसी की किसी ने नहीं की। सब लोग साथ चले। शास्त्रार्थ चलते गये। और अंततोगत्वा सारा विचार करने के बाद आचरण का उपदेश तो सबका एक ही है। तुम जिओ सबको जीने दो।
तथागत ने कहा है कि आजीविका कुशलतापूर्वक, कुशलता क्या है दूसरे की आजीविका को धक्का लगाये बिना, सब जगह ये मिलेगा। पाप नहीं करना। पाप क्या है? परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधिमाई। दूसरों को कष्ट देना पाप है। पाप मत करो। और बिना पाप किये हुये भी अपने आपको ठीक रखने की कुशलता। कुशलस्य उपसंपदा। और ये सारा करते समय मुख्य काम क्या है चित्त शुद्ध करो। चित्त से विकारों को देशनिकाला दे दो। धीरे धीरे सीखो। पवित्र अंतःकरण वाले बनो। सबक रक्षण करने वाले बनो। विस्तारपूर्वक वर्णन होता है तो सब जगह सत्य अहिंसा के अपरिग्रह ब्रह्मचर्य मिलता है। सब जगह संतोष, स्वाध्याय, ईश्वर मिलता है। ये हमारे जोड़ने की बात है और पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे यहां पर जो परिवारों में व्यवहार सिखाया गया, संस्कारों के द्वारा जिसके द्वारा हमारी संस्कृति बनी, उसका आचरण इसी को बताता है। किसी के भी करो, मैं तो कहता हूं कि भारत के बाहर से जो सम्प्रदाय भारत आये हैं और उनके अनुयायी जो आज भारतीय लोग हैं इस्लाम है, इसाईयत है वो अगर भारतीय है तो उनके घरों में भी उन्हीं संस्कारों का प्रचलन आज भी मिलता है। हमको जोड़ने वाली ये मूल्याधारित संस्कृति है। और हम देखते हैं अपने इतिहास को और अध्ययन करते है।
तो हमारे ध्यान में आएगा। जब इन मूल्यों के अनदेखी करके बाकी हमने रचा तब हमारा पतन हुआ। तब हमारे समाज में न्याय का अंतध्र्यान होकर अन्याय आ गया। उसके कारण हम दुर्बल हुए। उसके कारण हम परतंत्र हुए। डॉ. हेडगेवार हमेशा कहते थे कि अपनी दुर्व्यवस्था का कारण अंग्रेजों को, इस्लाम का आक्रमण हुआ, मुसलमानों को कब तक देते रहोगे। ये हुआ कैसे। कि हजारों मील दूर से मुट्ठी पर आक्रामक आये और सोने की चिड़िया कहलाने वाला सूरमाओं का भारत उन्होंने देखते ही देखते जीत लिया। तुम्हारी कोई कमी है। उसको ठीक करो। कभी कभी वह कहते थे आज देश की प्रमुख समस्या कौन सी लगती है, मैं भी उनका अनुकरण करता हूं इस प्रश्न में। वो कहते थे कि सबसे बड़ी समस्या यहां का हिन्दू है। अपने मूल्यों को भूलकर हमने जब आचरण शुरू किया, हमारा पतन शुरू हुआ। विस्तार में मैं जाता नहीं हूं क्योंकि बहुत समय लगेगा, दो दिन में भी नहीं होगा। लेकिन आप अध्ययन करेंगे जायेंगे तो अपने देश के पतन का प्रारंभ हमारे पतन से हुआ है। और उसका उपास यही है कि वापस आना पड़ेगा।
अब इन मूल्यों को आप बतायेंगे तो उसको कहेंगे हिन्दू। हिन्दू विचार तो है ये, दुनिया के लोग कहेंगे। हमने ये नहीं कहा। हमको दुनिया ने ऐसा कहा। ये जो मूल्यधारित आचरण की बात है, संस्कृति है उस संस्कृति के कारण हमारा हिन्दूपन है। हिन्दूनेस है। इसलिए हिन्दुत्व हम सबको जोड़ता है ये विचार उन्होंने किया। और इसलिये उन्होंने कहा कि सम्पूर्ण हिन्दू समाज का संगठन करेंगे क्योंकि समाज में लोग हैं। भारतीय समाज में अपने ही समाज में। लेकिन उसमें हम हिन्दू नहीं हैं ऐसा कहने वाले लोग हैं। उसने कहा कारण है। लेकिन ये कंटेंट अगर बताना है तो इनको जोड़ने वाला शब्द कौन सा है दूसरा नहीं है। इसलिये उन्होंने स्पष्ट घोषणा की। ये हिन्दुस्तान हिन्दू राष्ट्र है। हम हिन्दू राष्ट्र को संगठित करेंगे।
ये घोषणा उन्होंने इसलिये नहीं कि कि उनको किसी का विरोध करना है। ये किसी तात्कालिक घटनाओं की प्रतिक्रिया का परिचायक नहीं था। क्योंकि वे इसके परे पहुंच गये थे अनुभवों से। इसको ठीक करो। समाज को पहले ठीक करो। समाज को जोड़ो। भेदरहित स्वार्थमुक्त समाज ही राष्ट्रीय स्वतंत्रता की परिणति है। दूसरी नहीं। विचारधारा अपनी जगह है, नीतियां अपनी जगह है। सरकारें अपने जगह है, राजनीतिज्ञ अपने जगह है लेकिन इन सबके आकांक्षाओं की पूर्णता तब होती है जब ऐसे समाज में ये लोग होते हैं। फिर वो सहायक बनते हैं। नहीं तो अपने देश में स्वतंत्रता के बाद योजनायें कम हुई हैं क्या? राजनीति के क्षेत्र में तो एक दूसरे पर आरोप चलता है कि आपने ठीक नहीं किया। आपने ईमानदारी से नहीं किया। मैं इन आरोपों को नहीं मानता। कितना भी कहो, कुछ तो हुआ ही है। कुछ तो ईमानदारी से किया गया है। लेकिन उसके परिणाम क्यों नहीं मिलते। समाज मे अनुशासन है क्या? अनुशासित समाज वैभव प्राप्त करता है। स्वतंत्र देश के हम नागरिकों में सिविक सेंस है क्या? सिविक सेंस का पालन ये दैनंदिन जीवन में देशभक्ति का आविष्कार है। देश के लिए रोज मरना नहीं पड़ता। देश के लिए जीना पड़ता है। जब मरने की बारी आती है तो देश के लिए मरने वाले बड़े संख्या में उस समाज में भी हैं जिस समाज को देश के लिए जीना मालूम था। और इसलिये ये व्यक्ति निर्माण का कार्य हिन्दू इस विषय के बारे में और चर्चा हम थोड़ी बाद में करेंगे। लेकिन ये करना कैसे है, इसकी मेथोडोलॉजी आरएसएस है ऐसा मैंने आपको बताया।
मैं दूसरे बात पर पहले आता हूँ। क्योंकि कई बार ऐसा लगता है आपको, संघ के कार्यक्रम वगैरह आप देखते हैं वहां सब लोग खड़े हो जाते हैं, सब लोग बैठ जाते हैं तो लोगों को लगता है कि संघ बड़ा ही अलग आर्गेनाइजेशन है। और संघ के एक व्यक्ति होता है, सामने सरसंघचालक। उसको गलती से चीफ भी कहा जाता है आजकल बाहर की भाषा में। तो उनको लगता है कि ये चीफ है इसलिये ये बोलेंगे और सभी लोग सुनेंगे। और इनके मन से सब चलता है। तो इसलिये संघ को अंदर से आकर देखने पर आपको सब बातें पता चलेंगी जो मैं आपको बताने वाला हूं। लेकिन केवल मेरे बताने पर मत जाइये। अंदर आकर देखिये। आपको वही बातें मिलेगी। डॉक्टर हेडगेवार ने ये सारे प्रयोग पहले कर लिये थे। सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करने का तरीका क्या है? और ऐसा करते करते उसके परिणाम क्या होंगे, कैसे होंगे ये सारा उनके आंखों के सामने स्पष्ट था। वो प्रतिभा उनकी अलौकिक थी। उनका जीवन बड़ा गहरा था। लेकिन संघ स्थापना की घोषणा के अलावा उन्होंने दूसरा कुछ नहीं किया। घोषित कर दिया आज से सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करने वाला यह संघ प्रारंभ हुआ है ऐसा बोला और बैठक समाप्त हो गई। तो फिर साथी आ गये अच्छा शुरू हुआ। करना क्या है, तो तय करो। साथ में बैठो। आगे क्या करना है तय करो। उस दिन हमारी शाखा नहीं शुरू हुई थी। ये शाखा बाद की बात है। ये संघ पहले बैठकों के रूप में था तो ऐसा करेंगे मास में एक बार बैठक करेंगे। अब मास की बैठक का अनुभव ऐसा आया कि पहली दो-चार बैठक में लोग आये और बाद में बुलाना पड़ा। बाद में बुलाने पर भी नहीं आना शुरू हुआ। तो लोगों ने कहा कि ये मास को अब साप्ताहिक करते हैं और देखते हैं। फिर दैनिक पर आ गये। और दैनिक बैठकें होने लगीं। कमरे के अंदर। चर्चा उसमें। लेकिन संघ में आये जो उस समय लोग वो सब जवान लोग थे। बालक थे, किशोर थे, तरुण थे। कमाने वाले लोग तो बहुत ही कम थे। डॉ. हेडगेवार उस समय 35 साल की आयु में थे। वो संघ के एल्डर्स में एक थे। एल्डर्स पांच छह थे उसमें एक डॉ. हेडगेवार थे। तो जवान लोगों ने सोचा कि रोज आकर कमरे के अंदर बैठकर, अरे कोई जवान लोग हैं कुछ हाथ पैर हिलायेंगे तो चलो शारीरिक काम करेंगे। मैदान पर कबड्डी खेलेंगे। बाहर क्या क्या कर सकते हैं। कबड्डी खेलो, छोटे छोटे खेल खेलो, फिर लगा कि नहीं थोड़ी शस्त्र विद्या के लिए अभी लड़ाई का समय है तो फिर अखाड़े है अखाड़ों में जाओ। ये बाहर जब आना शुरू हुआ तो शाखा शुरू हुई संघ स्थापना के तीन साढ़े तीन महीने के बाद फिर शाखा शुरू हुई और क्यों शुरू हुई, डॉ. हेडगेवार ने नहीं कहा कि शाखा शुरू करो। ये उस बैठने वाली टोली के चर्चा में से एक सहमति बनी और वो हुआ। डॉ. हेडगेवार चाहते थे कि लोग बनें लेकिन उन्होंने कभी ऐसा कहा नहीं। कार्यकर्ताओं के हाथ में दे दिया कि ये काम करना है कैसे होता है प्रयोग करो। ऐसे विकसित हुआ। फिर लगा कि वो लाठी वगैरह तो अपने यहां है। राज कौन कर रहा है, अंग्रेज, अंग्रेज अपने यहां करता है अपने को भी करना चाहिए। तो फर्स्ट वार के बाद सेना से रिटायर्ड एक सज्जन थे उन्होंने हर इतवार को परेड लेना प्रारंभ किया। परेड लेना प्रारंभ किया तो एक गणवेश चाहिये तो यूनिफार्म बना। वो उस समय की पुलिस मिलेट्री वालों की ड्रेस होती थी वैसा ही था। फिर अपना बैंड भी चाहिए तो वही मिलिट्री बैंड चालू करते हैं। हमारे एक टूटा फूटा बैंड बना। लेकिन ये सारा जो बना ये कार्यकर्ताओं की चर्चा में से बना।
डॉ. हेडगेवार ने नहीं कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुरू हुआ। उन्होंने संघ शुरू हुआ ऐसा कहा। और लोग जैसे कथा में लोगों को लाने लगे तो लोग पूछेंगे कि आपका संघ कौन सा है। तो उन्होंने डॉक्टर साहब ने कहा कि तय किसने किया है? बैठक लो और तय करो। बैठक हुई, सोलह लोग आए, तीन नाम प्रस्तावित किये गये, चर्चा हुई मतदान हुआ और बहुमत से पारित हुआ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक मंडल संघ स्थापना से दो वर्ष पूर्व तक चलाया था लेकिन उन्होंने ये नाम बताया नहीं किसी को। चर्चा में से आया। सामूहिक सहमति का स्वभाव डॉक्टर साहब का भी था संघ का भी था। दिखने में ऐसा दिखता है। हमारे यहां एक बार सहमति होने के बाद फिर सबके बोलने की जरूरत नहीं रहती है। सब बोलने लगे तो एक ही बात बोलेंगे फिर प्रत्येक की बात अलग अलग होगी। इसलिये बोलने का काम एक का ही होता है। यहां मैं आपके सामने बोल रहा हूं ये सारी बातें आपके सामने बजरंग लाल जी भी बता सकते है और उनको माइक भी मिला था। लेकिन उन्होंने अपने आपको न कर मुझे किया क्योंकि एक मुख से बात जाए एक ही बात जाती है और इसलिये अनुशासन के तकाजे से सहमति व्यक्त करने के तकाजे से ऐसा दिखता है कि एक के बोलने पर सब होता है। लेकिन ऐसा नहीं होता। एक एक सामान्य स्वयंसेवक के विवेक से काम होता है ऐसा। रोज शाखा में जाना चाहिए ऐसा हम बताते है। हम स्वयं जाते हैं। हम लोग शाखा हैं कि नहीं छोटे से छोटा स्वयंसेवक देखता भी है। और अगर कोई गलती हो गई तो हमको पकड़ भी सकता है। मैं संघ का सरसंघचालक हूं मेरा नाम नागपुर में मोहिते शाखा की सूची में है। मेरा प्रवास होता है। रोज मैं नहीं होता। उस शाखा में एक नया स्वयंसेवक आता है। छोटा। उस समय वह चौथी में पढ़ रहा था तो बहुत दिनों के बाद मैं नागपुर पहुंचा शाम को शाखा गया। वह मेरे सामने आया। वह देखने लगा तो मैंने पूछा कि क्या है भई तो उसने कहा कि आज हमारे गणशिक्षक ने बताया कि शाखा में रोज आना चाहिए। मैंने कहा कोई बात नहीं। मैंने सुना है कि आप हमारी शाखा के स्वयंसेवक हैं। मैंने कहा सही बात है। तो उसने कहा कि आप तो रोज नहीं दिखते। तो मैंने कहा कि मेरा प्रवास होता है, तो जहां प्रवास होता है वहां शाखा में जाता हूं। तो बोले आप नागपुर में कितने दिन से हैं। मैंने कहा कि चार-पांच दिन से हूं। तो उसने कहा आज पहली बार शाखा में दिखे हैं। अरे अन्य शाखाओं में जाने का काम था मुझे जाना पड़ता है तो दूसरी शाखाओं में गया। उसके बाद जब जब मैं शाखा में जाता था वह पूछता था प्रवास कहां कहां हुआ है। शाखा कहां कहां हुई है। ऐसा ओपन संगठन संभव है। यहां प्रत्येक स्वयंसेवक पूछ सकता है। प्रत्येक स्वयंसेवक विचार करता है। प्रत्यक्ष स्वयंसेवक का विचार चर्चा में आने की पद्धति है
अब लाखों स्वयंसेवक हैं। उनकी मैं अकेला नहीं सुनता हूं लेकिन शाखा स्तर से ऐसी व्यवस्था है। विचार आते आते ऊपर सहमति बनती है जो सहमति बनती है उसमें सब अपना अपना विचार बिन्दु रखते हैं। मोस्ट डेमोक्रेटिक बात आपको देखनी है तो आप संघ में आइये। यहां स्वयंसेवक पर किसी भी प्रकार का अंकुश नहीं है। केवल हमने जो उसको संस्कार और विवेक दिया है ये उसको चलाता है। उसके दायरे में वह अपनी मनमानी कुछ भी कर सकता है। उसके कर्म पर हमारा कुछ अंकुश नहीं होता है। ये ऐसी पद्धति डॉ. हेडगेवार का स्वयं के अनुभव से और चिंतन से निकला हुआ शास्त्र है। हम उनको बुलाते हैं उनकी शारीरिक बौद्धिक मानसिक उन्नति हो ऐसा प्रयास करते हैं और कुछ योग्यता आने के बाद उनको अपने रुचि के कार्य में सहभागी होने की छूट है। कहां जाना हम नहीं बताते। वो कहीं भी जा सकते हैं। जहां जायेंगे। वहां सम्पूर्ण समाज को अपना मानकर राष्ट्र हित की मात्र बुद्धि से काम करे, जहां जायंेगे वहां का अनुशासन पालन करे और इस बात पर समझौता न करे। इतनी केवल अपेक्षा रहती है। ये संघ की कार्यपद्धति है। रोज हम छोटे छोटे सरल सादे-सीधे कार्यक्रमों से संस्कार करते हैं। जो कार्यक्रम उपलब्ध थे उस समय वह चले। नये नये कार्यक्रम आते हैं अनुशीलन स्वीकार करते हैं। हमारा कार्यक्रम स्वीकार करने में एक बंधन हम पर रहता है। वो है कि संघ सब प्रकार के लोगो से चलता है किसी एक प्रकार का संगठन नहीं है। सब प्रकार के आर्थिक वर्ग में सब प्रकार की भाषाओं में, सब प्रकार की जाति उपजाति में ये चलने वाला संगठन है। वो सब लोग कर सकते हैं ऐसा कार्यक्रम ये हमारा अखिल भारतीय कार्यक्रम बन जाता है। अच्छे अच्छे कार्यक्रम बहुत हैं। लेकिन कुछ के लिए खर्चा करना पड़ता है।
संघ हमारा स्वावलंबी है। खर्चा जो करना पड़ता है वो हम ही जुटाते हैं। संघ का काम चलाने के लिए एक पाई भी बाहर से हम लेते नहीं। किसी ने लाकर दी तो हम लौटा देते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वयंसेवकों की गुरुदक्षिणा पर चलता है। साल में एक बार भगवे ध्वज को गुरु मानकर उसकी पूजा में दक्षिणा समर्पित करते हैं। भगवा ध्वज गुरु क्यों, क्योंकि वह अपनी तब से आज तक की परम्परा का वो चिह्न है। जब-जब हमारे इतिहास का विषय आता है ये भगवा झंडा कहीं न कहीं रहता है। यहां तक कि स्वतंत्र भारत का झंडा इसका फ्लैग कमेटी ने जो रिपोर्ट दिया तो यही दिया कि सर्वत्र सुपरिचित यह झंडा हो। बाद में उसमें परिवर्तन हुआ वह तिरंगा आ गया उसका भी पूर्ण सम्मान रखते ही हैं। ये भी प्रश्न उठाया जाता है। शाखा में भगवा झंडा लगता है तिरंगे झंडे का क्या? तिरंगे झंडे के जन्म से, उसके सम्मान के साथ संघ का स्वयंसेवक जुड़ा है। मैं आपको सत्य कथा बता रहा हूं। निश्चित होने के बाद उस समय तो चक्र नहीं था, चरखा था ध्वज पर। पहली बार हाईस्कूल के कांग्रेस अधिवेशन में उस ध्वज को फहराया गया था और अस्सी फीट उंचा ध्वज स्तंभ लगाया था। नेहरू जी उसके अध्यक्ष थे। तो बीच में लटक गया। उपर पूरा जा नहीं सका और इतना उंचा चढ़कर उसको सुलझाने का साहस किसी का नहीं था। एक तरुण भीड़ में से दौड़ा वह सटा-सट उस खंबे पर चढ़ गया, उसने रस्सियों की गुत्थी सुलझाई ध्वज को उपर पहंुचाकर नींचे आ गया। तो स्वाभाविक लोगों ने उसको कंधे पर लिया नेहरू जी के पास लेकर गये नेहरू जी ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा कि तुम आओ शाम को खुले अधिवेशन में तुम्हारा अभिनंदन करेंगे लेकिन कुछ नेता आए और कहा कि उसको मत बुलाओ वह शाखा में जाता है। जलगांव में हाईस्कूल में रहने वाले श्री किशन सिंह राजपूत वह स्वयंसेवक थे उस समय। पांच वर्ष, छह वर्ष पहले उनका देहान्त हो गया। डॉ. हेडगेवार को पता चला तो वे प्रवास करके गये। उन्होंने उसको एक छोटा सा लोटा चांदी का छोटा सा पुरस्कार के रूप में भेंट कर उसका अभिनंदन किया। तब से पहली बार फहराया गया तब से इसके साथ सम्मान के साथ स्वयंसेवक जुड़ा है।
जब पहली बार कांगे्रस ने सम्पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित किया अधिवेशन में। तो डॉक्टर साहब ने सबको निकाला सब शाखाओं में कि हम लोग संचलन निकालें। 1921 की बात है। और संचलन में तिरंगे ध्वज के साथ संचलन निकालो और कांग्रेस का अभिनंदन करने वाला प्रस्ताव शाखाओं द्वारा पारित करके भेजा जाए कांग्रेस कमेटी के पास। डॉ. हेडगेवार उनके जीवन में देश का परम, उनकी जीवन्तता का गंतव्य था। संघ में दूसरा क्या हो सकता है और इसलिये अपने स्वतंत्रता के जितने सारे प्रतीक हैं उन सबके प्रति संघ का स्वयंसेवक अत्यन्त श्रद्धा और सम्मान के साथ समर्पित रहा है। इससे दूसरी बात संघ में नहीं चल सकती। खैर उस भगवे ध्वज को गुरु मानते हैं उसके सामने गुरु दक्षिणा करते हैं और उसमें जितना होता है उसमें हम अपना खर्चा चलाते हैं। आज की भी यही स्थिति है। संघ इतना प्रसिद्ध हो गया है और बड़े बड़े संघ के स्वयंसेवक भी और अच्छे कमाने वाले लोग हैं फिर भी मैं जानता हूं कि हमको थोड़ा मार्च महीने के बाद जुलाई महीने तक खर्चा चलाने में थोड़ी तंगी आ जाती है। सेवा के काम हमें स्वयंसेवक करते हैं उनके ट्रस्ट बने हैं। और बाकायदा वे भी संचालन करते हैं। उसका हिसाब रखते हैं। सारी बातें जैसा प्रोसीजर है कानून का वैसा करते हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ये बाहर से पैसा नहीं लेता। दिया तो भी नहीं लेता। संघ को चलाना है स्वयंसेवक को। ऐसा स्वावलंबी हमारा संगठन है और संस्कार का काम है।
तो इसमें प्रचार का बहुत ज्यादा काम नहीं होता क्योंकि भाषण तो आप बहुत सुनते होंगे ग्रंथ तो आपने बहुत पढ़े होंगे। लेकिन जो लिखा पढ़ा है और उसको आचरण में उतारना इसके लिए आदत ही काम करती है और दूसरी कोई बात काम नहीं करती। वो आदत लगाने का काम शाखा में होता है। रोज आदत होती है। अनुशासन की आदत होती है। समाज को अपना मानकर सारी बातें करने की आदत होती है। पहले ही दिन से शुरू होता है और इसलिये कोई आसमानी आपत्ति आ जाए जैसे केरल में आ गई संघ का स्वयंसेवक सबसे पहले पहुंचता है। क्यों पहुंचता है। उनको आपदा प्रबंधन का ट्रेनिंग शाखा में नहीं मिलता। हमारे वर्गांे में नहीं मिलता। अब हम सोच रहे हैं कि कुछ खड़ा करें उसके लिए, लेकिन अब तक तो नहीं मिला। वो पहले गये कैसे। हमने एक भाव उत्पन्न किया और अनुशासन की पद्धति उत्पन्न की। सम्पूर्ण देश में सब लोगों को ये प्रशिक्षण मिले। सारा समाज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक बन जाए इस इच्छा से हम उसको करते हैं। इससे क्या होगा आप लोगों को इससे क्या साधना है। हमको और कुछ नहीं साधना है। यही साधना है और कुछ नहीं। बहुत लोग इसके उद्देश्य चिपकाते हैं। जो बिल्कुल नहीं है।
हम संघ का डामिनेशन नहीं चाहते। उल्टा है संघ का विचार। अगर संघ डामिनेशन के कारण इस देश में कुछ अच्छा हुआ ऐसे इतिहास लगेगा तो वह संघ की बहुत बड़ी पराजय होगी। क्योंकि हम चाहते हैं कि देश का इतिहास देश का वर्तमान, देश के लोगों के कारण बने। महापुरुष विचारधारायें ये सब सहायक होगा। लेकिन सामान्य व्यक्ति के कृतित्व से देश का परम गौरव आना चाहिए। प्रार्थना में हम कहते हैं। हमारे सामूहिक शक्ति के आधार पर हमारे यानि संघ के नहीं हिंदू समाज के सामूहिक शक्ति के आधार पर। अगर उसमें ऐसा हो गया कि कोई संघ आ गया और उसने इस देश का उद्धार कर दिया तो ये संघ को मंजूर नहीं इसलिये बहुत अच्छे काम बहुत स्वयंसेवक करते हैं। अब बहुत दबाव बढ़ गया है। संघ बड़ा हो गया है और ये हम नहीं करते हैं तो गलतफहमी फैलाने का अवसर मिलता है। इसलिये हाल के बीस एक वर्षों में हम क्या कर रहे हैं इसका हम ब्यौरा रखते हैं। हम अपनी पीठ कभी नहीं थपथपाते क्योंकि आखिर यह कर्तव्य है हर आदमी का कर्तव्य है संघ में। क्या विशेष कर रहा है। संघ के स्वयंसेवक इतने बड़े बड़े काम करते हैं कौन सी बड़ी बात है। वो उपकार कर रहे हैं क्या है ये तो अपना समाज है उसके लिए करना है। जरूर है तो देश हित में समाज हित में मरने की भी तैयारी रखनी चाहिए तो जिंदा रहकर कुछ चार अच्छे काम कर लिये तो उसमें पीठ थपथपाने की बात क्या है। निस्वार्थ बुद्धि से देश की सेवा करो। सब मिलकर करो। और इसमें सामूहिकता कदम कदम पर संघ में आपको मिलेगी।
संघ के कितने स्वयंसेवक हैं कितने काम करते हैं लेकिन प्रसिद्ध सभी नहीं होते। दुनियादारी में चलना है तो संगठन के पदाधिकारी होना पड़ते हैं फिर बड़ा बन गया है। तो माध्यमों के लोग पीछे पड़ते हैं दिखाते हैं तो सामने आना पड़ता है नहीं तो मोहन भागवत सरसंघचालक बन गया और उसके रोज फोटो छप रहे हैं ये मोहन भागवत के लिए बहुत परेशानी का विषय है क्योंकि ये संघ की पद्धति नहीं है। कभी कभी लोग कहते हैं कि आप सब अच्छे मुद्दों को फैशलेश बना रहे हो। बात सही है। हम फैसलेश बनते हैं क्योंकि ये भी अहंकार न रहे कि मैंने किया। है उसकी कुछ कठिनाईयां आती हैं लेकिन हमने एक विशिष्ट प्रकार का व्यक्ति समाज में बनाया। इसके लिए यह काम शुरू किया है। और हमको कुछ नहीं चाहिये। सत्ता में कौन बैठेगा, देश किस नीति का स्वीकार करेगा। समाज के लोग तय करेंगे। उसके उपकरण बने हैं। वो चल रहे हैं। वो और अच्छी तरह चलेंगे। अगर इस प्रकार से देशभक्त प्रामाणिक निस्वार्थ से लोग होंगे। जितने ज्यादा होंगे। उतना अच्छा चलेगा। उसकी चिंता हमको नहीं है। हमको चिंता केवल इतनी है कि ऐसा एक आचरण बने समाज का और इसलिये सारे बातें हमारी रहती हैं जिसके बारे में लोग पूछते हैं कि आप प्रसिद्धि प्रचार से दूर क्यों रहते हैं? दूर नहीं हम भागते नहीं। उसके पीछे भागते हैं। तो संघ स्थापना के समय भी संघ के कार्यक्रम होते थे सार्वजनिक। डॉ. हेडगेवार स्वयं उसका उत्तर लिखते थे और पेपरों में पहुंचाते थे। उन्होंने वो संपादक भी रह चुके थे एक वृत्तपत्र के व्यवस्थापक भी रह चुके थे। उनके संघ के कौन से कार्य विभाग होने चाहिये ऐसा उन्होंने मुझे भेजा अभिलेखागार में। उसमें लिखा है प्रसिद्धि विभाग, कब 1936 की बात। लेकिन हमारे संस्कार के काम में उसका उपयोग नहीं किया। और इसलिये जब पर्याप्त काम हो गया। कुछ करके दिखाया छोटा-मोटा। तब हमने हमारा एक प्रचार विभाग 1980 के दशक में बनाया। वह चल रहा है। लेकिन प्रसिद्धि परांग यानी मैं मेरी प्रसिद्धि नहीं चाहता हूं। मैं कार्य की प्रसिद्धि जरूर चाहता हूं और आगे हम जो करने वाले हैं उसकी प्रसिद्धि हम नहीं करते। जो किया है उसकी जानकारी के रूप मेें प्रसिद्धि करते हैं। क्योंकि जो हम करते हैं उसका उदाहरण नहीं मिल सकता। यहां हमने ऐसा किया, अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलती है। बहुत से लोग साथ लग जाते हैं। बहुत से लोग स्वतंत्र रूप से ऐसा काम करने लग जाते हैं। हमको आनंद है उसमें। देश में सूर्याेदय हो, वह हमारे मुर्गे के बांग देने से ही हो ऐसा हमारा विचार नहीं है। सूर्याेदय हो इससे हमारा मतलब है। उसके लिए एक विशिष्ट प्रकार का समाज चाहिए वह हम खड़ा करते हैं।
अब दो बातें रह जाती हैं इस कार्यपद्धति में। एक तो है कंट्रोल। रिमोर्ट कंट्रोल, ऐसे शब्द चलते हैं। संघ का स्वयंसेवक, संघ का स्वयंसेवक है। वो अपने बाकी जीवन में क्या करे? कौन सा सार्वजनिक कार्य करे? वह सोचिए। वो जब चाहता है वह करे। वो चुनता है अपना कार्यक्षेत्र। आज संघ के स्वयंसेवक अनेक क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं। ये जो सारे संगठन हैं स्वयंसेवकों का जिसमें प्रभार है, वो निर्णयों की दृष्टि से, नीति की दृष्टि से स्वतंत्र अलग स्वायत्त व्यवस्था की दृष्टि से स्वावलम्बी हैं। वो स्वयंसेवक हैं, संघ से विचार लेकर, वो स्वयंसेवक हैं कोई गलती न कर बैठे, संघ चिंता करता है लेकिन अपने-अपने कार्यक्षेत्र में क्या करना है, क्या नहीं करना वो उनका निर्णय रहता है। अब पुराने हो गये तो उनके एक्सपटाईज भी हैं और किसी को उनको सलाह देने की आवश्यकता भी नहीं। ये सारे संगठन स्वतंत्र अलग, स्वायत्त, स्वावलम्बी रूप से चलते हैं। संघ के स्वयंसेवक हैं इसलिए उनका आना, जाना, मिलना, सुख, दुख की बात करना और अच्छे कामों में एक-दूसरे को मदद करना ये चलता है। अच्छे कामों में दूसरों की मदद करना ये सबके लिए खुला है। वो केवल उन्हीं संगठनों को करना है ऐसी बात नहीं है। अच्छे काम में जो कोई है, हमारी जितनी शक्ति है हम उसकी मदद करेंगे। हमको विचारधारा का संकोच नहीं है, हमको संघ के बारे में उनका क्या मत है इसका भी संकोच नहीं है। वो अच्छा काम कर रहे हैं, प्रामाणिकता से कर रहे हैं। हमारे स्वयंसेवक हैं वहां प्रभार, वो जरूर मदद करेगा।
समन्वय बैठक इसलिए नहीं होती है कि कोई पालिसी तय होती है। समन्वय बैठक इसलिए होती है कि उन लोगों को अपने-अपने कार्यक्षेत्र में काम करते समय क्योंकि विपरीत प्रभावों में काम करना है अपने संस्कारों का स्मरण हो इसलिए बीच-बीच में संघ के वातावरण में समय उन्होंने निकाला। वहां वो बात करते हैं, चर्चा करते हैं, वो आइडिया जो फोलो करे इसका बंधन नहीं है। वो उनका प्रश्न है। और दूसरी बात है कि सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करते समय महिलाओं का क्या? ये प्रश्न डॉ.हेडगेवार से एक महिला ने 1931 में पूछा। आप बात कर रहे हो हिन्दू समाज के संगठन की। 50 प्रतिशत महिलाओं को तो वैसे ही छोड़ दिया आपने। डॉ.हेडगेवार ने उनको कहा कि बात आपकी बिलकुल ठीक है, परंतु आज वातावरण ऐसा नहीं है कि पुरूष जाकर महिलाओं में काम करे। इससे कई प्रकार गलतफहमियों को मौका मिलता है। कोई महिला अगर काम करने को जाती है हम उसकी पूरी मदद करेंगे। उस महिला ने इसी प्रकार चलने वाला एक ‘राष्ट्र सेविका समिति’ नाम का संगठन चलाया। आज वो भी भारतव्यापी संगठन बन गया। संघ के संस्कारों की कार्यपद्धति पुरुषों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में, महिलाओं के लिए राष्ट्रसेविका समिति में ये दोनों समानांतर चलेंगे। एक-दूसरे के कार्यक्षेत्र में काम नहीं करेंगे, एक-दूसरे की हमेशा मदद करके चलेंगे। वो उस समय तय हुआ। अगर इसको बदलना है तो दोनों तरफ लगना चाहिए कि इसको बदलना है तब वो होगा, नहीं तो नहीं होगा ऐसे ही चलेगा। परंतु संघ के स्वयंसेवक जो अन्य काम करते हैं, सेवा करते हैं 1 लाख 70 हजार से ऊपर छोटे-बड़े सेवा प्रकल्प संघ के चलते हैं। ये 5 साल के पहले का आकड़ा है, 5 साल के बाद की गिनती अभी हो रही है। इस साल वो आ जाएगा। उसमें तो महिला, पुरुष सभी काम करते हैं।
संघ कोई संन्यासियों का संगठन नहीं है। गृहस्थ कार्यकर्ता हैं अधिकांश। घरों में आना-जाना रहता है। हमारी माताएं, बहनें अपनी-अपनी जगह से भी बहुत मदद सीधे संघ के कार्य को करती हैं। इतने सारे विविध कार्य चलते हैं, उसमें महिलाएं आई हैं और आगे भी आई हैं। ये संघ की कार्यपद्धति है और संघ समाज को पूर्ण समाज को संगठित करना चाहता है इसमें संघ को पराया कोई नहीं। जो आज हमारा विरोध करते हैं वो भी हमारे हैं। ये हमारा पक्का है। उनके विरोध से हमारी क्षति न हो इतनी चिंता हम जरूर करेंगे। लेकिन हम लोग तो सर्वलोकयुक्त भारत वाले लोग हैं, मुक्त वाले नहीं हैं। संघ के स्वयंसेवक के नाते, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाते सबको जोड़ने का हमारा प्रयास है और इसमें सबको बुलाने का भी हमारा प्रयास रहता है। आखिर विरोध भी होना है तो वस्तुस्थिति के आधार पर हो। बस इतनी बात है। लेकिन मुख्य जो बात आती है कि ये हिन्दू के लिए ही क्यों? उसके बारे में अभी समय बहुत हो गया हम लोग कल उसकी चर्चा करेंगे और उसके बाद भावी भारत के बारे में संघ की दृष्टि क्या है? इस विषय पर मैं आऊँगा।
मोहन भागवत के भाषण की प्रति rss.org से ली गयी है.
Read in English: RSS interpretation of Hindutva does not exclude Muslims: Mohan Bhagwat