बस्तर/दंतेवाड़ा: छत्तीसगढ़ कांग्रेस कमेटी के राज्य सचिव सैयद सत्तार अली बुलेटप्रूफ जैकेट पहने सशस्त्र राज्य पुलिस कर्मियों से घिरे हुए पार्टी के दंतेवाड़ा जिला कार्यालय में प्रवेश करते हैं. कुछ बंदूकधारी उनकी एसयूवी के पास बाहर पहरा दे रहे हैं.
2013 के दरभा घाटी हमले में मारे गए छत्तीसगढ़ कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की तस्वीरों पर नज़र डालते हुए अली ने कहा, “लेकिन आप जानते हैं, इसका ज़्यादा मतलब नहीं है. मुझे पता है कि अगर उन्हें थोड़ा सा भी मौका मिला, तो मुझे मार देंगे.”
ये उसी हमले की बात कर रहे हैं जिसमें 27 लोग मारे गए थे.
हमले में बचे मुट्ठी भर लोगों में से, अली से बेहतर कौन जानता होगा कि बस्तर में एक राजनेता होने की कीमत क्या होती है. बस्तर माओवादी विद्रोह का एक केंद्र है जो भारतीय राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए एक लंबे सशस्त्र संघर्ष की वकालत कर रहा है.
जबकि 2013 के हमले की भयावहता, जिसने कांग्रेस के तत्कालीन राज्य नेतृत्व को लगभग मिटा दिया था, ने उस समय देश को स्तब्ध कर दिया था, पार्टियों से हटकर, बस्तर में राजनेताओं को, दशकों से चाकू की नोंक पर अपरंपरागत तरीके अपनाने के लिए मजबूर किया गया है.
शनिवार को संदिग्ध माओवादियों ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की नारायणपुर इकाई के उपाध्यक्ष रतन दुबे की उस समय चाकू मारकर हत्या कर दी, जब वह पार्टी के लिए प्रचार कर रहे थे. वह इस साल फरवरी से लेकर अब तक माओवादियों द्वारा कथित तौर पर मारे जाने वाले छठे भाजपा सदस्य हैं.
इस साल फरवरी और जून के बीच पहले मारे गए लोगों में बीजापुर में भाजपा के संभागीय प्रमुख नीलकंठ काकेम शामिल हैं; वहीं इस कड़ी में नारायणपुर जिले के पार्टी उपाध्यक्ष, सागर साहू, दंतेवाड़ा के बारसूर में पार्टी से जुड़े पूर्व सरपंच रामधर अलामी, के साथ साथ बीजापुर में पार्टी के एसटी विंग के सचिव काका अर्जुन और राज्य के मोहला-मानपुर-अंबागढ़ चौकी जिले के बिरझू ताराम भी शामिल हैं..
बीजेपी के बस्तर जिला अध्यक्ष रूप सिंह मंडावी ने कहा, “राजनीतिक में होने के साथ साथ हम सभी भारतीय राज्यों के साथ बस्तर का भी प्रतिनिधित्व करते हैं. स्वाभाविक रूप से, माओवादी हमसे नाराज़ हैं. जोखिम हमेशा ही बना हुआ रहता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, हमने जीवित रहने के तरीके अपनाए हैं. ”
संयोग से, मंडावी और अली, जो अब राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हैं, दिवंगत कांग्रेस के दिग्गज नेता महेंद्र कर्मा के करीबी सहयोगी थे, जिन्होंने नक्सल विरोधी सलवा जुडूम (शांति मार्च) निगरानी आंदोलन का नेतृत्व किया था, जिसे 2011 में मानवाधिकारों के उल्लंघन की शिकायतों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भंग कर दिया था.
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सुरक्षा कवर
मतभेदों के बीच, बस्तर के राजनीतिक वर्ग ने माओवादी हमलों से बचने के लिए कुछ अलग तरह की रणनीतियां तैयार की हैं. उनमें से एक है जब वे प्रचार के लिए अंदर के इलाकों की यात्रा करेंगे तो वो बीच रास्ते में अपनी गाड़ी बदल लेंगे. यानी जिसमें बैठकर जा रहे हैं वो छोड़कर दूसरी किसी भी गाड़ी में बैठ जाएंगे, ताकि विद्रोहियों द्वारा नज़र रखे जाने से बचा जा सके.
बस्तर में भाजपा ब्लॉक प्रभारी रामाश्रय सिंह ने कहा, “यह उन लोगों पर तो लागू होता ही है जिन्हें सरकार से सुरक्षा मिली है, और उनके लिए भी मददगार है जिन्हें नहीं मिली है. कई लोग ऐसे तरीकों को अपनाकर माओवादियों के हमलों से बचने में कामयाब रहे हैं. ”
इसमें एक और रणनीति अपनाई जा रही है जिसके तहत अंतिम क्षण में बैठकों या नियुक्तियों के स्थान को बदल रहे हैं.
मंडावी की बातों से सहमत सिंह ने भी हां में सिर हिलाते हुए याद करते हुए कहा, “एक बार मेरी जिले के मस्कोंटा क्षेत्र में एक बैठक थी. आखिरी क्षण में, मैंने कार्यक्रम स्थल बदल दिया और उन लोगों को जिन्हें इस मीटिंग में शामिल होना था उन्हें पास ही के दूसरी जगह पर बुलाया, बाद में, मुझे पता चला कि कुछ माओवादियों ने छोटी सभा में घुसपैठ कर ली थी.”
तीसरा नियम यह है कि माओवादियों द्वारा घात लगाए जाने पर कार से बाहर निकलें और सड़क पर सीधा लेट जाएं. मंडावी ने बताया, इस तरह वे अक्सर अपना निशाना चूक जाते हैं और सुरक्षाकर्मियों को जवाबी कार्रवाई करने का समय मिल जाता है.
उन्होंने याद करते हुए कहा, “एक बार जब मैं केदार नाथ कश्यप [छत्तीसगढ़ के पूर्व मंत्री और दिवंगत भाजपा नेता बलिराम कश्यप के बेटे] के साथ भोपालपटनम के पास यात्रा कर रहा था, तो मैंने इस नियम का पालन किया और जीवित रहने में कामयाब रहा. हम बाहर निकले और कुछ देर तक वैसे ही लेटे रहे. परिणामस्वरूप, सुरक्षाकर्मी हमें एंटी-लैंडमाइन वाहन तक ले जाने में कामयाब रहे. ”
दरअसल, बस्तर में पार्टी कार्यालयों और उसके आसपास सुरक्षा में तैनात सशस्त्र सुरक्षाकर्मियों का बड़ी संख्या में दिखना आम बात है. अधिकांश नेता, जिन्होंने कुछ हद तक प्रसिद्धि मिली हुई है वो, हूटर और पायलट कारों के साथ सुरक्षा काफिले के साथ घूमते हैं.
पिछले महीने केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बस्तर के 24 भाजपा नेताओं को 31 दिसंबर तक एक्स श्रेणी की सुरक्षा प्रदान की थी. इसमें इन्हें तीन पालियों में एक नेता को तीन निजी सुरक्षा अधिकारियों के साथ सुरक्षा दी जाती है. इसमें इन्हें घर में सुरक्षा नहीं दी जाती है.
केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) को बस्तर संभाग में उनकी सुरक्षा का काम सौंपा गया है, जिसमें सात जिले – कांकेर, नारायणपुर, कोंडागांव, बीजापुर, दंतेवाड़ा, जगदलपुर और सुकमा शामिल हैं. फिर भी, ये राजनेता उस खतरे से भी वाकिफ हैं जो कहीं छिपी हुई है.
एक घातक हमला
अली उन मुट्ठी भर लोगों में से एक थे जो 2013 के दरभा घाटी हमले में बच गए थे. वह उस दिन की भयावहता को याद करते हुए कहते हैं जब वह महेंद्र कर्मा और पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं के साथ एक पार्टी कार्यक्रम के लिए सुकमा जा रहे थे.
अली ने कहा, “जब क्षेत्र में शीर्ष नेताओं की आवाजाही की बात आती है तो रोड ओपनिंग पार्टियां (आरओपी) एक जरूरत होती है. 25 मई, 2013 को, जब हम पार्टी के कार्यक्रम के लिए सुकमा जा रहे थे, तो महेंद्र कर्मा ने बार-बार कह रहे थे कोई आरओपी दिखाई नहीं दे रही है. वह कहते रहे कि हमारा काफिला जिस तरह से जा रहा है उसपर हमला करना आसान है. ”
हमले में मारे गए कई नेता, जिसमें कर्मा तो शामिल थे ही साथ ही उनके साथ तत्कालीन छत्तीसगढ़ कांग्रेस प्रमुख नंद कुमार पटेल, और पार्टी के वरिष्ठ नेता विद्या चरण शुक्ला, उनके निजी सुरक्षा अधिकारी (पीएसओ) उस दुर्भाग्यपूर्ण शाम को उनके साथ यात्रा कर रहे थे.
अली ने याद करते हुए कहा,“ पहले, बम फोड़े गए. पीएसओ के पास जितना भी गोला-बारूद था वो ख़त्म हो गया. जब हम अपनी कारों से बाहर निकले तो उन्होंने गोलीबारी शुरू कर दी. इसके बाद कर्मा जी हाथ उठाकर खड़े हो गए और खुद को नक्सलियों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और उनसे बाकियों को छोड़ देने के लिए कहा.”
“फिर चारों तरफ चुप्पी- शांति छा गई.”
अली जिन्हें सरकार से वाई-प्लस श्रेणी की सुरक्षा मिली है – उनके घर पर पांच सुरक्षा कर्मी तैनात हैं और तीन शिफ्टों में छह निजी सुरक्षा अधिकारी भी तैनात रहते हैं, ने बताया, “वे कर्मा को एक तरफ ले गए और उन पर गोलियां बरसा दीं. उसके बाद, उन्होंने किसी को कुछ भी नहीं कहा. ”
2013 की घटना में कुल मिलाकर 27 लोगों की मौत हुई थी, जिनमें 12 कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता और आठ पुलिसकर्मी शामिल थे. हमले में एके-47 राइफल समेत हथियार और गोला-बारूद माओवादियों ने लूट लिया.
हिंसा की विरासत
कांग्रेस के पांच बार के कोंटा विधायक कवासी लखमा, जो अब छत्तीसगढ़ सरकार में मंत्री हैं, भी हमले से बच गए थे.
लखमा एक बार फिर कोंटा निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं, जो सुकमा जिले का हिस्सा है, जहां भाजपा ने सोयम मुका को मैदान में उतारा है. दोनों सलवा जुडूम से जुड़े थे.
पड़ोसी दंतेवाड़ा निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा के उम्मीदवार चैतराम अरामी भी सलवा जुडूम के सदस्य थे. अरामी को महेंद्र कर्मा के बेटे छविंद्र कर्मा के खिलाफ खड़ा किया गया है, जिन्होंने 2015 में विकास संघर्ष समिति नामक एक संगठन बनाकर सलवा जुडूम को दूसरे अवतार में पुनर्जीवित करने की कोशिश की है .
इन सभी नेताओं को सरकार से सुरक्षा मिली है. हालांकि, भाजपा के बस्तर अध्यक्ष मंडावी का दावा है कि 2018 में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद, उनके पीएसओ वापस ले लिए गए, जिससे उन पर हमले का खतरा बढ़ गया है.
मंडावी ने कहा, “मैंने अपने अब तक के करियर में कई हमलों का सामना किया है. 2000 में नक्सली मेरे गांव में घुस आये और मेरे घर पर हमला कर दिया. एक गोली मेरे कंधे को छूती हुई निकल गयी. 2003 में जब उन्होंने नवरात्रि के दौरान अष्टमी के दिन मेरे गांव पर फिर से हमला किया तो मुझे अपना गांव छोड़कर जगदलपुर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा .”
एक खोई हुई मासूमियत
हालांकि, माओवादी बस्तर में 1960 के दशक से ही इस क्षेत्र में सक्रिय हैं. लेकिन इसकी मौजूदगी के बावजूद, बस्तर हमेशा खून से लथपथ युद्ध का मैदान नहीं था. 1974 से भारतीय जनता पार्टी से जुड़े पार्टी के वरिष्ठ नेता उमाकांत सिंह, उस समय को याद करते हैं कहते हैं कि माओवादी राजनेताओं को पहले निशाना नहीं बनाते थे.
सिंह ने कहा, “मुझे अच्छी तरह याद है कि अंदरूनी इलाकों में पार्टी के काम के दौरान, एक बार हमारी कार ढलान से लुढ़क गई और एक स्ट्रीम में फंस गई. हमने कुछ दूरी पर माओवादियों को देखा और मदद मांगी. वे आये और कार को उठाकर सड़क पर रख दिया. तब राजस्व, वन और पुलिस विभाग के अधिकारियों को ही निशाना बनाया गया था. नेताओं को नहीं.”
तब और अब में क्या बदलाव आया है, जिसके बाद ऐसी स्थिति पैदा हुई कि बस्तर के नेताओं पर लगातार निशाना साधा जा रहा है?
मंडावी, जो खुद बस्तर के आदिवासी हैं, ने काफी चिंतित स्वर में कहा कि इस क्षेत्र की बदहाली के लिए काफी हद तक बाहरी लोग जिम्मेदार हैं.
उन्होंने कहा, “एक वक्त था, 1990 के दशक के बाद तक भी, जब उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के व्यापारी अक्सर बस्तर आते थे. वे नमक के बदले में आदिवासियों द्वारा उगाई गई फसलें खरीदते थे. क्या आप इसबात पर अब विश्वास कर सकते हैं?”
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