नई दिल्ली: जम्मू-कश्मीर की जनता ने विधानसभा चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ने वाले अलगाववादियों और पूर्व उग्रवादियों को नकार दिया है. मुख्यधारा की पार्टियों को वोट देने के कारण 28 पूर्व उग्रवादी और अलगाववादी हार गए, जिनमें जमात-ए-इस्लामी और आवामी इत्तेहाद पार्टी (एआईपी) के 10 उम्मीदवार शामिल हैं.
लोकसभा सांसद और आतंकवाद के वित्तपोषण के आरोपी इंजीनियर राशिद की एआईपी ने कुल 35 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे. राशिद के छोटे भाई खुर्शीद अहमद शेख को छोड़कर सभी पीछे चल रहे थे. शेख ने लंगेट से 1,602 वोटों के अंतर से जीत दर्ज की.
छह अन्य निर्दलीय उम्मीदवार जीते, लेकिन उनका एआईपी या जेईआई से कोई संबंध नहीं है. इनमें इंदरवाल निर्वाचन क्षेत्र में प्यारे लाल शर्मा, शोपियां में शब्बीर अहमद कुल्ले, बानी सीट में डॉ. रामेश्वर सिंह, सुरनकोट में चौधरी मोहम्मद अकरम, थन्नामंडी में मुजफ्फर इकबाल खान और छंब में सतीश शर्मा शामिल हैं.
अकरम नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के बागी हैं, जिन्होंने 2014 के विधानसभा चुनावों में भी यह सीट जीती थी. खान, कुल्ले और शर्मा भी एनसी के पूर्व नेता हैं.
प्रतिबंधित जमात द्वारा समर्थित सभी उम्मीदवार हार गए हैं, जिनमें बांदीपुरा से हाफिज मोहम्मद सिकंदर मलिक, गांदरबल से सरजन अहमद वागय, सेंट्रल शाल्टेंग से जफर हबीब डार और बीरवाह से सरजन अहमद वागय शामिल हैं.
NC 41 सीटों पर आगे
जम्मू और कश्मीर में 18 सितंबर से तीन चरणों में 90 सदस्यीय विधानसभा के लिए मतदान हुआ. महत्वपूर्ण बात यह है कि यह 10 वर्षों में जम्मू कश्मीर का पहला विधानसभा चुनाव था.
इस चुनाव में मुख्य रूप से इंडिया ब्लॉक की नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और कांग्रेस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) शामिल थीं. 365 सीटों के साथ, इस चुनाव में 2008 के बाद से दूसरी सबसे बड़ी संख्या में स्वतंत्र उम्मीदवार मैदान में थे. इससे मुख्यधारा की पार्टियों के लिए मुश्किलें खड़ी होने की उम्मीद थी.
शाम 4 बजे तक, कांग्रेस-एनसी गठबंधन ने 90 सदस्यीय विधानसभा में 46 सीटें जीतकर और दो अन्य पर आगे रहकर स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया.
श्रीनगर के पोलिटिकल साइंटिस्ट एजाज़ अशरफ वानी ने कहा, “मेरे पास जो भी ग्राउंड रिपोर्ट थी, उससे पता चला कि उन्हें जो लेबल दिया गया था, वह टिकने में कामयाब रहा. यह नैरेटिव कि वे ‘प्रॉक्सी बीजेपी’ उम्मीदवार थे, लोगों के दिमाग में बैठ गया और उनका इस्तेमाल केवल एनसी-कांग्रेस के वोट काटने के लिए किया जा रहा था.”
साथ ही, वानी ने कहा कि तथ्य यह है कि बीजेपी ने भी घाटी में उतने उम्मीदवार नहीं उतारे, जबकि उसके नेताओं ने कहा कि सरकार ने बहुत सारे विकास कार्य किए हैं, इससे भी इस नैरेटिव को कुछ हद तक बल मिलता है.
उन्होंने कहा, “यहां तक कि भाजपा नेता भी कहते रहे कि कई स्वतंत्र उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं और अगर जरूरत पड़ी तो वे समान विचारधारा वाले लोगों से संपर्क कर सकते हैं. इसलिए ऐसा लगता है कि कश्मीर के लोगों ने एक मजबूत ताकत को चुनने का फैसला किया है, जो इस मामले में एनसी-कांग्रेस गठबंधन के लिए सही साबित हुआ.”
मतदाताओं के लिए नया विकल्प
आतंकवाद के वित्तपोषण के आरोप में जेल में बंद इंजीनियर राशिद के नाम से मशहूर शेख अब्दुल राशिद ने अंतरिम जमानत मिलने के बाद विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार किया. बारामूला के सांसद की एआईपी का उद्देश्य मतदाताओं को एक नया विकल्प देना था.
जमात-ए-इस्लामी, एक धार्मिक-राजनीतिक संगठन जिसे 2019 से केंद्र द्वारा प्रतिबंधित किया गया है, ने लगभग चार दशकों के बाद अप्रत्यक्ष रूप से इस चुनाव में भाग लिया. इसने 10 निर्दलीय उम्मीदवारों का समर्थन किया. इन उम्मीदवारों ने अपनी रैलियों में भारी भीड़ भी जुटाई, जिससे दिग्गज नेताओं को कड़ी टक्कर मिली.
कई राजनीतिक विशेषज्ञों ने कहा था कि उम्मीदवारों का समर्थन करने का जमात का फैसला अपने अलगाववादी टैग को खत्म करने के लिए एक रणनीतिक कदम हो सकता है और इसलिए यह केवल एक सीट जीतने या हारने तक सीमित नहीं था.
जम्मू-कश्मीर में पहले भी कई बार उग्रवादियों और अलगाववादियों ने चुनाव लड़ा है, लेकिन इस बार के चुनाव में खास बात यह रही कि इनमें से कई ने एक गुट के रूप में चुनाव लड़ा, जैसे कि जमात द्वारा समर्थित उम्मीदवार या एआईपी के बैनर तले.
चुनाव प्रचार के दौरान कई राजनीतिक दलों और नेताओं ने, जिनमें पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती भी शामिल हैं, जमात समर्थित उम्मीदवारों के चुनाव मैदान में उतरने पर सवाल उठाए थे. उनमें से कई ने ऐसे उम्मीदवारों को “भाजपा के प्रतिनिधि” करार दिया था. हालांकि इस आरोप से उन्होंने इनकार किया.
तिहाड़ से रिहा होने के बाद से इंजीनियर राशिद को अपने राजनीतिक संबंधों, खासकर भाजपा के साथ संबंधों के बारे में लगातार सवालों का सामना करना पड़ा. एआईपी प्रमुख ने लगातार भाजपा और इंडिया ब्लॉक दोनों के साथ किसी भी तरह के संबंधों से इनकार किया.
निर्दलीय उम्मीदवारों के प्रचार के प्रभाव पर टिप्पणी करते हुए, राजनीतिक टिप्पणीकार अहमद अली फैयाज ने पहले दिप्रिंट से कहा था, “एक औसत कश्मीरी के लिए, इतनी बड़ी संख्या में अलगाववादी या जमात समर्थित उम्मीदवारों का चुनाव लड़ना दिखाता है कि इन अलगाववादियों को चुनाव लड़ने की अनुमति है, इस कैलकुलेशन के साथ कि वे पारंपरिक राजनीतिक दलों के वोट काट देंगे.”
श्रीनगर के एक राजनीतिक एक्सपर्ट नूर अहमद बाबा ने कहा था कि जमात के इस कदम से अन्य पार्टियों के वोट शेयर में सेंध लगने के मामले में कुछ असर पड़ सकता है, लेकिन यह संभावना नहीं है कि वे तुरंत सीटें जीतेंगे.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा था, “स्वाभाविक रूप से कुछ प्रभाव तो पड़ेगा. चुनावी राजनीति में उनके इतिहास को देखते हुए, जो कई साल पहले का है, चुनावी राजनीति में उनका कुछ हद तक प्रभाव रहा है, लेकिन उससे आगे नहीं. इसके कुछ उम्मीदवार अन्य उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर दे सकते हैं.”
जमाल 1987 तक राजनीति में सक्रिय रहे
जमात द्वारा समर्थित उम्मीदवार दिलचस्प थे, क्योंकि उनमें से ज़्यादातर युवा और शिक्षित थे. 10 में से नौ लोग प्रतिबंधित होने से पहले संगठन का हिस्सा भी थे. शीर्ष दावेदारों में 35 वर्षीय कलीमुल्लाह लोन भी शामिल थे, जो इंजीनियर राशिद के गृह निर्वाचन क्षेत्र लंगेट से चुनाव लड़ रहे थे. उन्होंने श्रीनगर के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी से कंप्यूटर साइंस में पीएचडी की है और वे जमात के एक वरिष्ठ नेता के बेटे हैं.
शीर्ष दावेदारों में 35 वर्षीय कलीमुल्लाह लोन भी शामिल थे, जो इंजीनियर राशिद के गृह निर्वाचन क्षेत्र लंगेट से चुनाव लड़ रहे थे. उन्होंने श्रीनगर के राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान से कंप्यूटर विज्ञान में पीएचडी की है और वे जमात के एक वरिष्ठ नेता के बेटे हैं.
जमात समर्थित सयार अहमद रेशी भी क्षेत्र के एकमात्र भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) नेता एम.वाई. तारिगामी के लिए चुनौती साबित हुए, जिन्होंने 1996 से लगातार चार विधानसभा चुनाव जीते थे.
1987 के चुनाव बहिष्कार तक जमात जम्मू-कश्मीर की चुनावी राजनीति में सक्रिय थी, जब व्यापक धांधली के आरोप लगे थे. इसने 1969 और 1971 में संसदीय चुनाव और 1969 और 1974 में पंचायत चुनाव अपने बैनर तले लड़े.
1963 में, जमात समर्थित निर्दलीय उम्मीदवारों ने पंचायत चुनाव लड़ा था. सरकार ने 2019 में अनुच्छेद 370 को खत्म करने से महीनों पहले जमात पर प्रतिबंध लगा दिया था, क्योंकि यह आतंकवादी संगठनों के साथ “निकट संपर्क” में था और इस क्षेत्र में “अलगाववादी आंदोलन को बढ़ने” से रोकना चाहता था. और इस साल फरवरी में, मोदी सरकार ने आतंकवाद विरोधी गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत प्रतिबंध को बढ़ा दिया.
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