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Thursday, 25 April, 2024
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हिंदू बनाम हिंदुत्व, प्रियंका को ‘आजमाना’—कांग्रेस 2022 और उसके बाद की रणनीति तैयार करने में जुटी है

राजनीति के लिहाज से 2022 एक बेहद अहम साल है, जिसमें वर्ष के शुरू में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और आखिर में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव प्रस्तावित हैं.

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नई दिल्ली: राहुल गांधी के साल के अंत में विदेश यात्रा, कथित तौर पर इटली पर रवाना होने के बीच कांग्रेस ने 2021 का अंतिम सप्ताह 2022 के लिए अपनी रणनीति तय करने में बिताया.

पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने दिप्रिंट को बताया कि इस साल के शुरू में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में होने वाले चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस भाजपा के खिलाफ अपनी ‘हिंदू-बनाम-हिंदुत्ववादी’ पिच को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही है—जिसका जिक्र राहुल गांधी कई मौकों पर कर चुके हैं. इसके अलावा पार्टी उत्तर प्रदेश में अपनी महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को संभावित ‘महिला चेहरे’ के तौर पर भी परख रही है.

नेताओं ने कहा कि इसके अलावा अपनी राज्य इकाइयों को दुरुस्त करना भी पार्टी के एजेंडे में शामिल है.

कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने बताया कि पार्टी में विभिन्न विभागों के प्रभारी महासचिवों की अपनी टीमों के साथ हुई बैठकों में इस सब मुद्दों पर विचार-विमर्श किया गया है.

हालांकि, पार्टी में अधिकांश लोग ‘हिंदू और हिंदुत्व’ के बीच अंतर पर जोर देने की रणनीति से सहमत हैं लेकिन सभी इस पर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं.

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इस साल जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं, उनमें उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा, गुजरात और हिमाचल प्रदेश शामिल हैं. इनमें से केवल एक राज्य पंजाब में कांग्रेस सत्ता में है.

पिछले कुछ महीनों में इस राज्य में भी कांग्रेस को तमाम कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. पंजाब कांग्रेस प्रमुख नवजोत सिंह सिद्धू के साथ मतभेदों के चलते आखिरकार मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा. अमरिंदर अब भाजपा के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं.

उत्तराखंड में भी पार्टी पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को चुनाव अभियान का पूरा प्रभार सौंपती, इससे पहले ही उन्होंने ‘मेरे हाथ-पैर बंधे होने’ की बात कहकर हलचल मचा दी.

गोवा में कांग्रेस 2017 के विधानसभा चुनाव में 17 सीटें जीतकर 40 सदस्यीय सदन में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी लेकिन आखिर में दो अन्य दलों के साथ गठबंधन करके भाजपा ने सरकार बना ली. इसके बाद से कई बार विधायकों के दल बदलने के कारण राज्य में अब कांग्रेस के मात्र दो विधायक ही रह गए हैं.

2017 में इसी तरह के घटनाक्रम के कारण मणिपुर में भी भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बन गई थी.


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प्रियंका गांधी कांग्रेस का ‘महिला चेहरा’ बनीं?

फरवरी-मार्च 2022 में प्रस्तावित यूपी चुनावों से पहले कांग्रेस ने प्रियंका के साथ राज्य में ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ अभियान शुरू किया है.

राज्य में यह पहला चुनाव होगा जब पार्टी उनकी अगुआई में मैदान में होगी. हालांकि, यूपी चुनाव के लिए पूरे जोर-शोर से प्रचार शुरू कर दिया गया है, लेकिन पार्टी के आंतरिक सूत्रों का कहना है कि चुनावी लाभ ही इसका एकमात्र उद्देश्य नहीं है.

कांग्रेस के एक पदाधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘यह एक तरह का प्रयोग है जिसे हम आजमा रहे हैं.’

पदाधिकारी ने कहा, ‘ऐसा नहीं है कि हम यूपी में महिलाओं के किसी विशिष्ट उप-समूह को लक्षित करके यह अभियान चला रहे हैं. बल्कि इसके जरिये यह समझने की कोशिश की जा रही है कि प्रियंका गांधी को एक महिला नेता के रूप में कैसे स्वीकार किया जाता है और क्या वह देश की अन्य महिला नेताओं—चाहे वह इंदिरा गांधी और जयललिता हों या ममता बनर्जी और मायावती—की तरह महिला मतदाताओं को प्रभावित करने में सक्षम रहती हैं.

उन्होंने कहा, ‘इसका उद्देश्य यह पता लगाना है कि उन्हें लेकर महिलाओं की प्रतिक्रिया कैसे रहती है और फिर देखें कि क्या उनके सहारे अन्य राज्यों में महिलाओं को प्रभावित किया जा सकता है ताकि कांग्रेस संगठनात्मक रूप से मजबूत हो सके.

कांग्रेस प्रवक्ता गौरव वल्लभ ने कहा कि प्रियंका की जमीनी स्तर पर मौजूदगी और ‘भाजपा की सरकारी मशीनरी से मुकाबला करने की उनकी क्षमता पर पार्टी भरोसा कर रही है.’

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘अगर आप प्रियंका गांधी की हाथरस या आगरा यात्रा को देखें, जहां उनका पीछा किया गया और यहां तक कि भाजपा सरकार ने उन्हें हिरासत में भी लिया, तो आप समझ सकते हैं कि वह राज्य की मशीनरी के खिलाफ खड़ी होने वाली पहली व्यक्ति थीं. दरअसल उनके साथ पार्टी के पुरुष नेता मौजूदा थे, लेकिन वह उन्हें पुलिस की लाठियों से बचा रही थीं. और कोई रास्ता भी नहीं था.’

कई कांग्रेसी नेताओं ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट ने कहा कि प्रियंका एक नया चेहरा हैं और अपने भाई की तुलना में अधिक ‘सहज’ हैं. उन्होंने कहा कि यही वजह है कि कई वरिष्ठ नेता उन्हें एक बड़ी संगठनात्मक भूमिका देने पर जोर दे रहे हैं.

एक कांग्रेस सांसद ने कहा, ‘हालांकि, यह अभियान उत्तर प्रदेश में भले ही अच्छे चुनावी नतीजे न दे पाए, लेकिन हमें स्पष्ट तौर पर यह समझने में मदद जरूर करेगा कि प्रियंका को चेहरा बनाकर कर्नाटक—जहां हाल के स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस ने महत्वपूर्ण वोटशेयर के साथ अपनी जीत बरकरार रखी है—जैसे राज्यों में इसी तरह का अभियान चलाना कितना फायदेमंद होगा.


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‘हिंदू बनाम हिंदुत्ववादी’

हिंदू-बनाम-हिंदुत्ववादी अभियान एक ऐसी पिच है जिसे कांग्रेस लंबे समय तक जारी रखने की रणनीति बना रही है ताकि भाजपा के तथाकथित ‘आदर्श हिंदू’ वर्जन का मुकाबला कर सकें.

पिछले एक महीने के दौरान जयपुर और देहरादून में कांग्रेस की रैलियों के दौरान राहुल गांधी ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया था.

उन्होंने जयपुर में कहा था, ‘देश की राजनीति में आज दो शब्दों के बीच प्रतिस्पर्धा है. एक है ‘हिन्दू’ और दूसरा शब्द है ‘हिन्दुत्ववादी’, इन दोनों का मतलब एक नहीं है. वे दो अलग-अलग शब्द हैं और उनके अर्थ भी अलग हैं. मैं एक हिंदू हूं लेकिन मैं हिंदुत्ववादी नहीं हूं.’

पार्टी 2022 के लिए सोशल मीडिया रणनीति भी इसी नैरेटिव पर केंद्रित रखने की तैयारी में जुटी है.

कांग्रेस के सोशल मीडिया प्रभारी रोहन गुप्ता ने कहा, ‘भाजपा नफरत और नैरेटिव-आधारित राजनीति करती रही है. राहुल जी ने स्पष्ट तौर पर इस वैचारिक अंतर को परिभाषित किया है कि भाजपा की नजर में हिंदू धर्म क्या है और कांग्रेस हिंदू धर्म के बारे में क्या सोचती है. हम 2022 में पूरी तरह ट्रेंड, लाइव शो, वीडियो आदि के माध्यम से इसे और आगे बढ़ाने जा रहे हैं. यह एक वैचारिक जंग है.’

लेकिन पार्टी के कुछ नेताओं में इस नजरिये को लेकर अनिश्चितता बनी हुई है.

ऊपर उद्धृत कांग्रेस सांसद का कहना था कि यद्यपि पार्टी के भीतर कई नेता वैचारिक तौर पर इस नैरेटिव से सहमत हैं लेकिन ‘जुनून से निपटने का कोई तरीका नहीं होता.’

सांसद ने कहा, ‘सच कहू तो मुझे ऐसा कतई नहीं लगता कि हम इस नैरेटिव की बदौलत दूसरे पक्ष (भाजपा) का कोई हिंदू वोट खींचने में सफल हो पाएंगे. ज्यादा से ज्यादा कुछ और लोगों को उस पाले में जाने से रोक जरूर लेंगे. लेकिन जो हिंदू भाजपा को वोट नहीं देते हैं, वे इस तरह के नैरेटिव के साथ कांग्रेस के पक्ष में वोट करने के लिए तैयार नहीं होंगे क्योंकि वे बतौर हिंदू वोट नहीं करते हैं. ऐसे में स्पष्ट तौर पर यह कहना मुश्किल है कि इस तरह के अभियान का लक्ष्य कौन-सा समूह है.’

हिंदू बनाम हिंदुत्व पर बहस एक ऐसा मुद्दा है जिस पर राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने भी दिप्रिंट को दिए एक इंटरव्यू में सवाल उठाए थे.

प्रशांत किशोर का कहना था, ‘भाजपा पिछले कई चुनावों में हिंदुत्व के आधार पर कुल मिलाकर लगभग 50 फीसदी हिंदू वोट हासिल करने में सफल रही है.’

उनके मुताबिक, ‘अन्य 50 फीसदी हिंदू भाजपा की हिंदू या हिंदुत्व की परिभाषा से सहमत नहीं होते और हिंदू के तौर पर वोट भी नहीं करते हैं. मैं हिंदू और हिंदुत्ववादी पर बहस करने के बजाये उस वर्ग पर ध्यान केंद्रित करना पसंद करूंगा.’

हालांकि, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस)-लोकनीति के सह-निदेशक संजय कुमार का मानना है कि ‘सॉफ्ट हिंदू’ रुख मौजूदा समय में केवल कांग्रेस ही नहीं, बल्कि ऐसे किसी भी राजनीतिक दल के लिए जरूरी है जो भाजपा से मुकाबला करना चाहता है.

उनका कहना है, ‘2014 से ही कांग्रेस के खिलाफ काम कर रहा एक बड़ा फैक्टर यह भी है कि इसे एक ऐसी पार्टी के तौर पर देखा जा रहा है जो मुसलमानों या अल्पसंख्यकों को लुभाने की कोशिश करती है. दूसरी ओर, क्षेत्रीय चुनौतियों से जूझ रही कांग्रेस को अपना मुस्लिम वोटबैंक क्षेत्रीय दलों के हाथों गंवाना भी पड़ा है.’

उन्होंने कहा, ‘इसलिए, कांग्रेस को हिंदू वोटों पर भी ध्यान देना होगा. पिछले एक दशक में भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा बदलाव यही आया है कि अब कोई भी राजनीतिक दल बहुसंख्यक समुदाय की अनदेखी नहीं कर सकती है. लोगों तक यह संदेश पहुंचाने की जरूरत है कि पार्टी हिंदू विरोधी नहीं है.

‘विपक्षी एकता और राज्य इकाइयों को मजबूत करना’

अन्य सियासी दलों का राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी दलों के तौर पर उभरना भी कांग्रेस के लिए एक बड़ी चिंता का विषय बना हुआ है. उसे खासकर तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी)—बड़ी संख्या में दलबदल और पश्चिम बंगाल की पार्टी के देश के अन्य हिस्सों में विस्तार की योजनाओं के मद्देनजर—और दिल्ली और पंजाब (2017 में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी) में प्रतिद्वंद्वी मानी जाने वाली आम आदमी पार्टी (आप)—से कड़ी चुनौती मिल रही है. आप आगामी गोवा चुनाव में भी प्रतिद्वंद्वी के तौर पर चुनाव मैदान में उतर सकती है.

कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता, जो सांसद भी हैं, ने कहा, ‘कुछ नेताओं की राय है कि पार्टी को यूपीए (कांग्रेस नीत गठबंधन) की अध्यक्षता किसी अन्य पार्टी को सौंपने पर विचार करना चाहिए. इस पर पूरी गंभीरता से मंथन चल रहा है, हालांकि, कोई निर्णय लिया जाना बाकी है.’

उन्होंने कहा, ‘आगामी पांच राज्यों के चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन शायद निर्णय लेने की प्रक्रिया में मदद करेगा.’

इस बीच, पार्टी अपनी राज्य इकाइयों को संगठनात्मक रूप से मजबूत करके अन्य क्षेत्रीय दलों की चुनौतियों से निपटने की कोशिश भी कर रही है.

कहा जाता है कि कांग्रेस की पंजाब और उत्तराखंड इकाइयों में जो कुछ हुआ है, उसने उसे इस दिशा में बढ़ने के लिए प्रेरित किया है.

पार्टी के एक वर्ग को लगता है कि कर्नाटक में स्थानीय चुनावों के नतीजों ने साबित कर दिया है कि एक मजबूत क्षेत्रीय नेता द्वारा राज्य इकाई की जिम्मेदारी संभालना और उसके बारे में सभी निर्णय लेना पार्टी के लिए सबसे अच्छा तरीका है.

ऊपर उद्धृत पहले कांग्रेसी सांसद ने कहा, ‘हमारी सभी राज्य इकाइयों को (कर्नाटक कांग्रेस प्रमुख) डी.के. शिवकुमार जैसे नेताओं की जरूरत है. जिन जगहों पर कांग्रेस तीसरे या चौथे पायदान पर खिसक गई है, वहां उसे दूसरे स्थान पर पहुंचने या कम से कम दूसरे स्थान वाली पार्टी के साथ गठबंधन में आने की जरूरत है. हालांकि, आलाकमान के लिए क्षेत्रीय नेताओं की महत्वाकांक्षाओं से पार पाना एक कठिन चुनौती बना हुआ है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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