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Friday, 14 June, 2024
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‘मन खट्टा हो गया है’— यूपी के RSS कार्यकर्ता BJP के लिए प्रचार में क्यों हैं सुस्त

पूरे उत्तर प्रदेश में आरएसएस हलकों में एक अजीब सी अशांति है कि उनकी ‘अपनी’ भाजपा सरकार ने उन्हें नज़रअंदाज कर दिया है. वह नारे लगाने के बजाय चुनाव से बाहर बैठकर विरोध कर रहे हैं.

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लखनऊ/कानपुर/जौनपुर: 44-वर्षीय नितेश कुमार शुक्ला ने उत्तर प्रदेश के लखनऊ में एक इंटरकॉलेज में बतौर लेक्चरर करियर के 16 साल दिए थे, जब पिछले साल नौकरी नियमितीकरण पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले ने अचानक उनका रोज़गार समाप्त कर दिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के लंबे समय से सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में उनका कहना है कि उनके साथ धोखा हुआ, खासकर जब से योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सरकार ने इस मामले में शिक्षकों का विरोध किया.

परेशान शुक्ला, जिन पर 35,000 रुपये का मासिक होम लोन है और अब इसे चुकाने का कोई साधन नहीं है, ने पूछा, “हमारी अपनी सरकार हमारे साथ ऐसा कैसे कर सकती है? आदेश के बाद भी, हम एक नेता से दूसरे नेता, मंत्री से मंत्री तक दौड़ रहे हैं, लेकिन हमें केवल खोखली सांत्वनाएं मिल रही हैं.”

अन्य आरएसएस कार्यकर्ताओं की तरह, शुक्ला ने चुनावों के दौरान भाजपा के लिए घर-घर जाकर प्रचार करने में कई घंटे बिताए हैं, लेकिन आज, वे कहते हैं कि वे बहुत दुखी हैं. उन्होंने कहा, “जिस संगठन को हमने पौधे से वृक्ष बनाया, वही हमें कोई तवज्जो नहीं दे रही.”

लंबे समय से चली आ रही अपनी वफादारी को देखते हुए शुक्ला इस बात को लेकर परेशान हैं कि कैसे प्रतिक्रिया दी जाए.

शुक्ला ने कहा, “हमने सरकार के खिलाफ कोई धरना-प्रदर्शन नहीं किया है क्योंकि हम दुविधा में हैं कि हम अपने ही लोगों के खिलाफ विरोध कैसे करें? लेकिन जो सवाल हमें परेशान कर रहा है वो यह है कि हम जाएं कहां?”

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अनिश्चितता की यह भावना केवल शुक्ला के लिए ही नहीं है; यह कई आरएसएस कार्यकर्ताओं के बीच गूंजती है.

केंद्र में भाजपा के दस साल और उत्तर प्रदेश में सात साल तक सत्ता में रहने के बाद, आरएसएस के हलकों में अशांति पसरी है. उनका दावा है कि सरकार ने “उनकी अपनी” होने के बावजूद, उनकी ज़िंदगी को बेहतर बनाने के लिए कुछ नहीं किया है. नौकरी की पोस्टिंग, एफआईआर दर्ज करना या कर्ज़ा लेने जैसे मुद्दों में, भाजपा शासन के तहत एक सामान्य आरएसएस स्वयंसेवक का जीवन मुश्किल से ही बदला है.

भाजपा और उसकी वैचारिक माता-पिता के बीच तनाव पैदा करने वाले अधिक राजनीतिक मुद्दे भी हैं. इस बार टिकट वितरण में आरएसएस की लगभग पूर्ण उपेक्षा, दशकों से पार्टी की सेवा करने वाले कार्यकर्ताओं पर “बाहरी लोगों” को प्राथमिकता और एक सामान्य धारणा है कि भाजपा “अहंकारी” हो गई है और उसे संगठन की “ज़रूरत नहीं” हैं. पहले की ही तरह सभी कार्यकर्ताओं-पार्टी की चुनावी मशीनरी के स्तंभों-का मोहभंग हो गया है.

मोहनलालगंज के मऊ गांव के रहने वाले आरएसएस के विस्तारक इंद्र बहादुर सिंह – एक कार्यकर्ता, जो प्रचारक के विपरीत, शादी कर सकते हैं और परिवार बना सकते हैं – ने कहा, “भाजपा ने यह संदेश दे दिया है कि उन्हें अब संघ की ज़रूरत नहीं है. वो अब पहले की तरह संघ नेताओं से मिलने भी नहीं आते हैं.”

उन्होंने कहा, “आमतौर पर स्थानीय और राज्य स्तर पर टिकट वितरण के संबंध में आरएसएस कार्यकर्ताओं से सलाह ली जाती थी, लेकिन इस बार संगठन को पूरी तरह से दरकिनार किया गया है.”

हालांकि, वे तख्तियां नहीं पकड़ रहे हैं या नारे नहीं लगा रहे हैं, लेकिन आरएसएस कार्यकर्ता यूपी में लोकसभा अभियान में भाजपा के प्रति अपना असंतोष व्यक्त कर रहे हैं, जहां 1 जून तक सभी सात चरणों में मतदान हो रहे हैं.


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हल्का प्रचार

आमतौर पर चुनावों के दौरान भाजपा और आरएसएस एक अविभाज्य इकाई की तरह काम करते हैं, जो चुनावी और राजनीतिक मामलों, जैसे टिकट बांटने और प्रचार पर मिलकर काम करते हैं, जहां भाजपा कार्यकर्ता सक्रिय रूप से वोट मांगते हैं, वहीं आरएसएस कार्यकर्ता “संवेदनशीलता” अभियान चलाते हैं.

इंद्र बहादुर सिंह ने कहा, “हम कभी किसी को नहीं बताते कि किसे वोट देना है, लेकिन हम गांव-गांव घर-घर जाकर लोगों को मतदान के महत्व के बारे में जागरूक करते हैं और उस पार्टी को वोट देते हैं जो राष्ट्र और हिंदुत्व के हितों की देखभाल करती है. उदाहरण के लिए पिछले यूपी चुनाव में हमने राम मंदिर का निर्माण करने, अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और तीन तलाक के बारे में जोरों-शोरों से अभियान चलाया. हमारी सुबह की शाखाओं के बाद हम पूरा दिन प्रचार में बिताते थे.”

“राष्ट्रवादी” विषयों पर प्रचार करने के अलावा, आरएसएस मशीनरी भाजपा के लिए एक महत्वपूर्ण ज़मीनी स्तर पर प्रतिक्रिया तंत्र की तरह काम करती है.

लखनऊ के एक प्रचारक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “हमारे कार्यकर्ता लगातार यह समझने के लिए मैदान में रहते हैं कि लोगों को क्या पसंद आ रहा है और क्या नहीं — इससे यह सुनिश्चित होता है कि भाजपा के पास रियल टाइम फीडबैक रहे कि क्या काम कर रहा है और क्या नहीं.”

हालांकि, इस चुनाव ने एक बदलाव का संकेत दिया है. कई कैडर लड़ाई से बाहर बैठे हैं.

लखनऊ प्रचारक ने अपनी सुबह की शाखा को समाप्त करते हुए कहा, “संगठन में केवल औपचारिक नेतृत्व पदों पर बैठे लोग ही प्रचार कर रहे हैं. सामान्य प्रचारक या कार्यकर्ता बिल्कुल भी प्रचार नहीं कर रहे हैं. पिछले चुनाव तक, शाखाएं सबसे महत्वपूर्ण स्थलों में से एक थीं, जहां प्रचार पर चर्चा की जाती थी और योजना बनाई जाती थी — अब ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है.”

सभी निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा के भीतर लोकतंत्र की कमी, केंद्रीकरण और आरएसएस में सत्ता में हिस्सेदारी की कमी की दबी हुई, लेकिन कईं सारी शिकायतें हैं.

लखनऊ के शुक्ला ने कहा, “आरएसएस कार्यकर्ता दूसरों की तरह भौतिक लाभ नहीं चाहते हैं, लेकिन कम से कम हम चाहते हैं कि जिस संगठन को हम ज़मीनी स्तर पर विकसित कर रहे हैं उसमें हमारे प्रति कुछ बुनियादी संवेदनशीलता हो.”

शुक्ला ने यह नहीं बताया कि वो इस बार भाजपा के लिए प्रचार कर रहे हैं या नहीं, लेकिन पुष्टि की, “मन तो खट्टा हुआ है.”

टिकट बांटने की शिकायतें

पूरे उत्तर प्रदेश में कई आरएसएस नेता निजी तौर पर उम्मीदवारों को टिकट देने का कार्यक्रम में खुद को अलग-थलग महसूस कर रहे हैं.

सिंह ने कहा, “आमतौर पर आरएसएस नेताओं से सलाह ली जाती थी और उम्मीदवारों के जिलेवार चयन में इसे शामिल किया जाता था, जो फिर राज्य और अंत में राष्ट्रीय स्तर पर जाता था, लेकिन इस बार, यह प्रक्रिया पूरी तरह से समाप्त कर दी गई.”

इसके कुछ उदाहरण हैं, जैसे कि कानपुर का मामला, जहां संघ ने भाजपा के लोकसभा उम्मीदवार के लिए नीतू सिंह का समर्थन किया. वे वर्तमान भाजपा सांसद सत्यदेव पचौरी की बेटी और बैरिस्टर नरेंद्र सिंह की पोती हैं — जिन्होंने 60 और 70 के दशक के दौरान कानपुर और पड़ोसी जिलों में संघ के लिए आधार तैयार किया था.

हालांकि, भाजपा ने नीतू सिंह की जगह पूर्व पत्रकार और संपादक रमेश अवस्थी को चुना, जिन्हें गृह मंत्री अमित शाह और यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य का समर्थन था.

आरएसएस के एक वरिष्ठ प्रचारक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “नीतू सिंह का पूरा परिवार संघ के बहुत करीब है और उन्होंने संगठन के विकास में बहुत योगदान दिया है. संघ ने अंत तक उनकी उम्मीदवारी का समर्थन किया. कानपुर का हर प्रचारक, हर स्वयंसेवक उन्हें उम्मीदवार बनाना चाहता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पार्टी आलाकमान इसके पक्ष में नहीं थे और उन्होंने बात नहीं मानी.”

ऐसी ही एक कहानी पूर्वी यूपी के जौनपुर में थी, जहां संघ ने उद्योगपति ज्ञान प्रकाश सिंह की पैरवी की, जो शहर में नवनिर्मित आरएसएस कार्यालय और अयोध्या में राम मंदिर के लिए उदारतापूर्वक दान देने के लिए जाने जाते हैं.

इसके बावजूद, पार्टी ने कृपा शंकर सिंह को चुना, जो जौनपुर के मूल निवासी थे, उन्होंने 1980 के दशक से अपना पूरा राजनीतिक करियर महाराष्ट्र में बिताया था. इससे भी अधिक आपत्तिजनक बात यह थी कि कृपा शंकर कांग्रेस के साथ थे और जब पार्टी सत्ता में थी तब उन्होंने राज्य के कनिष्ठ गृह मंत्री के रूप में भी कार्य किया था.

जौनपुर के एक स्थानीय भाजपा नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “ज्ञान प्रकाश लगभग प्रचार मोड में थे. आरएसएस उन्हें लेने के लिए बहुत उत्सुक था, लेकिन कृपा शंकर, जिनका जौनपुर के लोगों से बहुत कम लेना-देना है, को लाया गया.”

नेता ने स्वीकार किया कि शुरुआत में भाजपा कार्यकर्ता भी परेशान थे, लेकिन आखिरकार वे मान गए.

उन्होंने कहा, “हर कोई कृपा शंकर के लिए प्रचार कर रहा है और कह रहा है कि वे एक बड़े नेता हैं और निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दों को राष्ट्रीय स्तर पर ले जाएंगे.”


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हिंदुत्व का मरहम

हालांकि, आरएसएस के कार्यकर्ता अपने सामान्य उत्साह के साथ भाजपा के लिए प्रचार नहीं कर रहे हैं, लेकिन किसी भी बड़े विद्रोह को रोकने वाली बात यह है कि कार्यकर्ता हिंदुत्व के प्रति पार्टी की कट्टर वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रति आश्वस्त हैं.

लखनऊ के एक आरएसएस विस्तारक ने कहा, “भले ही आक्रोश हो, अंततः, आरएसएस कार्यकर्ता राम मंदिर को मरहम की तरह देखता है.”

उन्होंने बताया कि संघ सत्ताधारी (राजनीतिक सत्ता) चाहने वाला संगठन नहीं है.

उन्होंने कहा, “संघ अपने सभी कार्यकर्ताओं से कहता है कि हम दूसरों की तरह नहीं हैं, जो सत्ता के लिए ज़मीन पर काम करते हैं. हमारी योजना में बिजली एक बाय-प्रोडक्ट है. संघ कार्यकर्ता अभी भी किसी अन्य सामान्य व्यक्ति की तरह काम करते हैं, उन्हें अपना काम पूरा करने के लिए उसी तरह भागना पड़ता है और यही संगठन की मर्यादा है.”

सत्ता के बजाय विचारधारा, आरएसएस को ईंधन देती है और इस मोर्चे पर, भाजपा ने अपने लक्ष्यों के साथ अच्छी तरह से तालमेल बिठाया है.

लखनऊ विस्तारक ने कहा, “चाहे वो राम मंदिर हो, धारा 370 हो, समान नागरिक संहिता हो — संघ के सभी मूल एजेंडे बिना किसी समझौते के लागू किए जा रहे हैं…यही बात कार्यकर्ताओं को ज़मीन पर सक्रिय रखती है.”

राज्य में बीजेपी के एक पदाधिकारी ने दिप्रिंट को बताया कि पार्टी संघ कार्यकर्ताओं के बीच अशांति से पूरी तरह वाकिफ है.

उन्होंने कहा, “हर किसी के निजी मामले सुलझाना संभव नहीं है, लेकिन वैचारिक स्तर पर कोई अशांति नहीं है. दरअसल, अटल बिहारी वाजपेयी के समय में वैचारिक तौर पर ज्यादा अशांति थी, लेकिन अब, अशांति अधिक व्यक्तिगत है.”

पदाधिकारी के मुताबिक, इस तरह की असहमति या शिकायतें नई नहीं हैं, लेकिन संघ परिवार आंतरिक रूप से डैमेज कंट्रोल करना जानता है.

उन्होंने कहा, “आप देखिए, चुनाव के दौरान हम सभी एकजुटता के साथ काम करेंगे. तथ्य यह है कि हम वैचारिक रूप से एकजुट हैं, हमें अन्य पार्टियों के विपरीत इन व्यक्तिगत शिकायतों से निपटने में मदद मिलती है.”

हालांकि, जैसा कि कई आरएसएस नेताओं ने बताया, ये शिकायतें पार्टी के प्रदर्शन पर असर डाल सकती हैं — जबकि कार्यकर्ता अभी भी भाजपा को वोट देंगे, लेकिन जो अतिरिक्त वोट वे आमतौर पर जुटाते हैं वो इस बार संभव नहीं हो सकता है.

इंद्र बहादुर सिंह ने कहा, “बेशक, हमारा वोट कहीं नहीं जाएगा, लेकिन कार्यकर्ता मतदान के दिन दर्जनों मतदाताओं को मतदान केंद्र पर लाते हैं. इस बार, ऐसा नहीं हो पाएगा.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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