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Monday, 22 September, 2025
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जनरल डायर से लेकर आडवाणी और राहुल गांधी तक: SGPC ने ‘सरोपा’ पर कैसा रुख अपनाया

कांग्रेस नेता को सरोपा देते समय ‘सम्मान प्रोटोकॉल की अवहेलना’ पर गुरुद्वारा कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई करते हुए एसजीपीसी ने कहा, विशेषज्ञ मानते हैं कि सरोपा ‘योग्यता से अर्जित’ किया जाना चाहिए.

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चंडीगढ़: इस हफ्ते की शुरुआत में जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी पंजाब के बाढ़ प्रभावित इलाकों के दौरे पर थे, तो उन्हें अमृतसर के ऐतिहासिक गुरुद्वारा बाबा बूढ़ा साहिब में सरोपा दिया गया. इस प्रकरण के बाद शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) ने गुरुद्वारा कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई की, यह कहते हुए कि उन्होंने सिख धार्मिक स्थल के अंदर प्रोटोकॉल का उल्लंघन किया.

गांधी को सरोपा—लंबा भगवा कपड़ा जो गले में डाला जाता है—गुरु ग्रंथ साहिब की मौजूदगी में दरबार साहिब के पवित्र स्थान में दिया गया. यह सम्मान आमतौर पर उन लोगों के लिए सुरक्षित है जिन्होंने सिख धर्म के लिए अत्यधिक समर्पण के साथ सेवा की हो.

जांच के बाद, बुधवार को एसजीपीसी ने गुरुद्वारे के ग्रंथी को बर्खास्त कर दिया, दो कर्मचारियों को निलंबित किया और एक को स्थानांतरित कर दिया, कारण बताया गया—मर्यादा (धार्मिक आचार संहिता) का उल्लंघन और सम्मान देने की प्रक्रिया का अपमान.

एसजीपीसी की इस कार्रवाई पर प्रतिक्रिया देते हुए पंजाब कांग्रेस प्रमुख अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग ने इसे “दुखद, चौंकाने वाला और दुर्भाग्यपूर्ण” बताया.

यह मानकर कि एसजीपीसी ने राहुल गांधी का सम्मान करने पर स्टाफ के खिलाफ ल कार्रवाई की है, जो पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के परिवार से हैं—एसजीपीसी सदस्य किरणजोत कौर ने फेसबुक पर लिखा कि राहुल गांधी को उनकी दादी के किए के लिए दोषी ठहराना गलत है.

उन्होंने कहा, वे तो उस वक्त “सिर्फ बच्चे थे.”

सिख समुदाय इंदिरा गांधी को 1984 के ऑपरेशन ब्लू स्टार के लिए ज़िम्मेदार मानता है, जिसमें अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से जरनैल सिंह भिंडरांवाले के नेतृत्व वाले सिख उग्रवादियों को निकालने के लिए सेना भेजी गई थी.

हालांकि, एसजीपीसी की प्रेस विज्ञप्ति में साफ किया गया कि कार्रवाई की वजह यह थी कि कांग्रेस नेता को गुरुद्वारे के पवित्र स्थान में सरोपा दिया गया. विज्ञप्ति में कहा गया, “एसजीपीसी की कार्यकारिणी कमेटी के निर्णय के अनुसार, किसी भी वीआईपी या खास व्यक्ति को गुरुद्वारा साहिब के दरबार हॉल के अंदर सरोपा नहीं दिया जा सकता.”

नवंबर 2022 में एसजीपीसी की कार्यकारिणी कमेटी ने सरोपा देने की परंपरा को नियमबद्ध किया था, यह तय करते हुए कि इसे बहुत सोच-समझकर और सीमित रूप में ही इस्तेमाल किया जाए. सरोपा पवित्र स्थान के अंदर केवल उन्हीं पंथक व्यक्तियों को दिया जा सकता है जिन्होंने सिख धर्म और समाज की सेवा की हो.

एसजीपीसी के नियमों में कहा गया है, अगर किसी महत्वपूर्ण अतिथि का सम्मान करना हो, तो यह पूरी तरह से दरबार साहिब (पवित्र स्थान) से बाहर किया जाना चाहिए. वहां भी सरोपा सिर्फ बेहद विशेष मेहमानों को दिया जा सकता है. इसके स्थान पर धार्मिक पुस्तकों का सेट दिया जा सकता है और गुरुद्वारों में आने वाले नेताओं को किसी भी तरह का सम्मान देने से बचना चाहिए.

हालांकि, सिख परंपराओं और रीतियों के जानकारों का कहना है कि सरोपा सम्मान के प्रतीक के रूप में समय के साथ बहुत कमज़ोर हो गया है और अब यह पंजाब की धार्मिक-राजनीतिक शक्ति की राजनीति में एक आसान साधन बन चुका है.

सिख विद्वान प्रोफेसर धरम सिंह ने दिप्रिंट से कहा कि सिख परंपरा में सरोपा संगत (सभा) की ओर से गुरु ग्रंथ साहिब की तरफ से दिया गया तोहफा होता है. उन्होंने कहा, “यह उसे दिया जाता है जो अपनी निष्ठा और सेवा से इस सम्मान के योग्य हो.”

सरोपा और उसका महत्व

प्रोफेसर सिंह द्वारा संपादित कन्साइस एन्साइक्लोपीडिया ऑफ सिखिज़्म में ‘सरोपा’ शब्द की प्रविष्टि में लिखा है कि यह वह सर्वोच्च सम्मान है जो किसी सिख को संगत में मिल सकता है.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “यह गुरु का सबसे कीमती उपहार है जो संगत के माध्यम से मिलता है. यह सम्मान और आशीर्वाद का प्रतीक है. आजकल जो प्रथा बन गई है कि कोई व्यक्ति अगर एक निश्चित राशि या उससे अधिक का चढ़ावा चढ़ा दे या फिर सामाजिक-राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हो तो उसे सरोपा दे दिया जाए—असल में यह परंपरा से भटकाव है. सरोपा योग्यता और समर्पण से अर्जित किया जाता है.”

प्रोफेसर सिंह के अनुसार, सरोपा देने की परंपरा कम से कम गुरु अंगद (सिखों के दूसरे गुरु) के समय से देखी जा सकती है. उन्होंने गुरु अमर दास (तीसरे गुरु) को हर साल पवित्र स्कार्फ दिए. गुरु अमर दास, जो गुरु अंगद के शिष्य थे, इन्हें पवित्र भेंट मानकर एक के ऊपर एक सिर पर बांधकर रखते थे.

इस परंपरा के इतिहास के बारे में बताते हुए प्रो. सिंह ने कहा कि “सरोपा” शब्द फारसी के सरो-पा (सिर से पांव तक) और सरापा से लिया गया है, जिसका अर्थ है सम्मान का वस्त्र.

एन्साइक्लोपीडिया में लिखा है, “सिख शब्दावली में इसका प्रयोग एक वस्त्र या कपड़े के टुकड़े के लिए होता है जो सम्मान के प्रतीक के रूप में दिया जाता है. यह खिलअत या ‘रोब ऑफ ऑनर’ के बराबर है, फर्क बस इतना है कि जहां खिलअत राजनीतिक ऊंचे दर्जे का व्यक्ति देता है और उसमें पूरे कपड़े होते हैं, वहीं सरोपा किसी धार्मिक या सामाजिक संस्था द्वारा दिया जाता है. यह पूरे वस्त्रों का सेट हो सकता है या अक्सर सिर्फ कपड़े का टुकड़ा होता है, जो भक्ति, धार्मिकता या परोपकारी उद्देश्य के प्रति अटूट समर्पण की पहचान होता है.”

प्रो. सिंह ने कहा, “कई साल से यह लगभग हमेशा कपड़े के टुकड़े के रूप में दिया जाता है, जिसकी लंबाई दो से ढाई मीटर तक होती है, आमतौर पर भगवे रंग में रंगा हुआ और इसके साथ प्रसाद भी दिया जाता है.”

अन्य विशेषज्ञों ने भी इस परंपरा के राजनीतिकरण पर चिंता जताई. दमदमी टकसाल (एक सिख संस्था) के पूर्व प्रवक्ता प्रो. सरचंद सिंह ने कहा, “पंजाब में, जहां राजनीति और धर्म गहरे जुड़े हैं, नेताओं को सम्मान देने के लिए सरोपा देना आम बात हो गई है. अब इसमें आध्यात्मिक महत्व नहीं बचा. किसे सरोपा मिलेगा और किसे नहीं—यह राजनीतिक फैसला बन जाता है और एक बड़े संदेश का हिस्सा होता है.”

उन्होंने आगे कहा, “पंजाब का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा है जहां राजनीतिक संदेश देने के लिए सरोपे दिए गए या रोके गए. अक्सर इससे बहस की जगह विवाद ही पैदा हुए हैं कि सिख परंपराओं की पवित्रता कैसे बनाए रखी जाए.”

सरोपा विवाद

सरोपा से जुड़ा सबसे मशहूर विवाद 1919 का है, जब जलियांवाला बाग हत्याकांड में सैकड़ों भारतीयों की मौत के बाद स्वर्ण मंदिर के सबरा (प्रबंधक) अरूर सिंह ने ब्रिटिश जनरल आर. डायर को सरोपा दिया था.

कहा जाता है कि अरूर सिंह ने डायर को यह सम्मान इसलिए दिया क्योंकि उसने स्वर्ण मंदिर को बचाया था, जिस पर ब्रिटिश हवाई हमले की आशंका जताई जा रही थी. मगर जनता के गुस्से के बाद अरूर सिंह ने प्रबंधक पद से इस्तीफा दे दिया और माफी मांगी.

शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) के अध्यक्ष और पूर्व सांसद सिमरनजीत सिंह मान—जो अरूर सिंह के नाती हैं, कई बार अपने नाना के इस कृत्य पर स्पष्टीकरण दे चुके हैं.

इसी साल अप्रैल में, सिख कार्यकर्ता जरनैल सिंह सखीरा ने अकाल तख्त के नए नियुक्त जत्थेदार कुलदीप सिंह गर्गाज को एक मृतक सिख उग्रवादी के परिवार को सरोपा देने से रोक दिया. यह काम फिर मुख्य ग्रंथी ने किया.

सखीरा ने मीडिया को बताया कि गर्गाज को रोका गया क्योंकि वे सही ढंग से चुने गए जत्थेदार नहीं थे. गर्गाज को जत्थेदार का पद उस समय मिला था जब अकाली दल और अकाल तख्त के बीच पूर्व जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह के विवादित फैसलों को लेकर खींचतान चल रही थी. पिछले महीने हरप्रीत सिंह को अकाली दल के एक अलग धड़े का प्रमुख घोषित किया गया.

2016 में स्वर्ण मंदिर में सेवा कर रहे एक बुज़ुर्ग पुजारी भाई बलबीर सिंह ने तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल को सरोपा देने से इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि वे इस बात से आहत हैं कि सरकार गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की घटनाओं के दोषियों को पकड़ नहीं पा रही. इसके बाद उन्हें पवित्र स्थल पर सेवा से हटा दिया गया. 2017 विधानसभा चुनाव से पहले उन्होंने आम आदमी पार्टी ज्वॉइन कर ली.

उसी साल एसजीपीसी ने घोषणा की कि कनाडा के ओंटारियो प्रांत की प्रीमियर कैथलीन वायन को उनके समलैंगिक विवाह समर्थन वाले विचारों के कारण सरोपा नहीं दिया जाएगा.

2015 में तख्त श्री दमदमा साहिब, तलवंडी साबो के कर्मचारियों को आरएसएस के पदाधिकारी विजय कुमार को सरोपा देने पर फटकार लगाई गई. माना जाता है कि आरएसएस ने पंजाब में आतंकवाद के दौर में, खासकर जालंधर क्षेत्र में समुदायों के बीच नफरत फैलाने में नकारात्मक भूमिका निभाई थी.

उसी साल, सिख सैन्य अधिकारी से उग्रवादी बने जनरल शबेग सिंह के छोटे भाई बींत सिंह ने अकाल तख्त में सरोपा लेने से इनकार कर दिया, क्योंकि अरदास में शबेग सिंह का नाम नहीं लिया गया. जनरल शबेग ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान जरनैल सिंह भिंडरांवाले के साथ प्रमुख रणनीतिकार और वरिष्ठ नेताओं में थे. उन्होंने सेना की कार्रवाई का जवाब देने में उग्रवादियों का नेतृत्व किया और उसी कार्रवाई में मारे गए.

2008 में एसजीपीसी को बॉलीवुड सुपरस्टार अमिताभ बच्चन को सरोपा देने के लिए आलोचना झेलनी पड़ी. इसे स्वर्ण मंदिर में उनके योगदान के लिए आभार स्वरूप बताया गया, लेकिन एसएडी (अमृतसर) के मान ने कहा कि बच्चन के राजीव गांधी और जगदीश टाइटलर से संबंध रहे हैं, इसलिए उन्हें सम्मानित नहीं किया जाना चाहिए था.

सिख समुदाय राजीव गांधी को 1984 के सिख विरोधी दंगों के लिए ज़िम्मेदार मानता है, जिन्हें इंदिरा गांधी की हत्या के बाद रोका नहीं जा सका. कांग्रेस नेता टाइटलर पर भीड़ को उकसाने का आरोप है. दिल्ली की एक अदालत ने पिछले साल अगस्त में कहा कि टाइटलर के खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं और तीन लोगों की हत्या से जुड़े एक केस में उस पर आरोप तय किए जाएं. यह घटना पुल बंगश गुरुद्वारे के बाहर 1984 दंगों के दौरान हुई थी.

तत्कालीन एसजीपीसी अध्यक्ष अवतार सिंह मक्कड़ ने सफाई दी कि बच्चन को विशेष रूप से सरोपा नहीं दिया गया था. उन्होंने कहा कि मंदिर में जो भी 100 रुपये या उससे ज़्यादा का दान करता है, उसे दो पताशों का प्रसाद और सम्मान के तौर पर कपड़ा दिया जाता है.

2002 में जब कांग्रेस नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री बने, तो स्वर्ण मंदिर की उनकी पहली यात्रा पर उन्हें सरोपा नहीं दिया गया. इस पर कांग्रेस ने एसजीपीसी की तीखी आलोचना की. दो साल बाद उन्हें पवित्र स्थल के बाहर सरोपा दिया गया. 2017 में दोबारा मुख्यमंत्री बनने पर उन्हें स्वर्ण मंदिर के अंदर सरोपा दिया गया.

वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी को 2011 में स्वर्ण मंदिर यात्रा के दौरान सरोपा नहीं दिया गया. सिख समुदाय उनसे उनकी आत्मकथा में ऑपरेशन ब्लू स्टार को लेकर की गई टिप्पणियों के कारण नाराज़ था. हालांकि, उन्हें सरोपा स्वर्ण मंदिर परिसर के भीतर एसजीपीसी के दफ्तर में दिया गया.

‘लंगर’ की तरह बांटने की चीज़ नहीं

एसजीपीसी की जनसंपर्क शाखा के प्रमुख जसकरण सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि सालों में सरोपा देने की प्रथा को काफी सीमित किया गया है.

उन्होंने कहा, “सबसे पहले तो यह साफ कर दिया गया है कि गुरुद्वारे का स्टाफ किसी को भी ऐसे ही सरोपा नहीं दे सकता. ज़्यादातर विशेष मेहमानों, जिनके प्रति गुरुद्वारा प्रबंधन सम्मान जताना चाहता है, उन्हें किताबें दी जानी चाहिए. सरोपा सिर्फ बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति को दिया जाएगा और वह भी पवित्र स्थल (दरबार साहिब) के अंदर नहीं. गुरु ग्रंथ साहिब की मौजूदगी में केवल पंथक व्यक्तियों—जैसे पंज प्यारे और जत्थेदार साहिबान को ही सरोपा दिया जा सकता है.”

एसजीपीसी के अलावा, दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (डीएसजीएमसी) ने भी 2017 में तत्कालीन अकाल तख्त जत्थेदार ज्ञानी गुरबचन सिंह को सरोपा देने से इनकार किया था और घोषणा की थी कि सरोपा केवल चुनिंदा लोगों को ही दिया जाएगा, इसे “लंगर” की तरह नहीं बांटा जाएगा.

उस समय डीएसजीएमसी के अध्यक्ष मंजीत सिंह जी.के. ने मीडिया से कहा था कि पिछले एक साल में कमेटी ने सिर्फ सरोपों पर ही 50 लाख रुपये से ज़्यादा खर्च कर दिए. उन्होंने बताया कि अब सरोपा देने की जगह मेमेंटो और धार्मिक पुस्तकों का सेट दिया जाने लगा है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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