नई दिल्ली: एक शीट थामे अरविंद केजरीवाल माइक की ओर बढ़े. उनकी ढीली कमीज़ और पैंट के ऊपर बड़ा नीला स्वेटर उनकी कद-काठी को और छोटा दिखा रहा था.
जैसे ही उन्होंने बोलना शुरू किया, ऑडियो में हल्की खड़खड़ाहट हुई. उन्होंने कहा, “हम फर्स्ट क्लास नागरिक हैं, लेकिन थर्ड क्लास शासन और भ्रष्टाचार के शिकार हैं. आपको क्या लगता है, कौन-कौन से नेता भ्रष्ट हैं? सूची काफ़ी लंबी है.”
इसके बाद उन्होंने नाम गिनाने शुरू किए—”पी. चिदंबरम, शरद पवार, कमलनाथ, प्रफुल्ल पटेल, वीरभद्र सिंह, कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, सुशील कुमार शिंदे, नितिन गडकरी, प्रेम कुमार धूमल, मुलायम सिंह यादव, मायावती, नवीन पटनायक, प्रकाश सिंह बादल, जयललिता, करुणानिधि…”
जंतर मंतर पर जमा भीड़ ने ज़ोरदार समर्थन में शोर मचाया. केजरीवाल ने आगे कहा, “हम सत्ता में आते ही छह महीने के भीतर इन सभी की जांच शुरू करेंगे, जेल भेजेंगे और इनकी संपत्तियां ज़ब्त करेंगे.” उनकी इस घोषणा पर भीड़ ने जोश से तालियां बजाईं.
यह 26 नवंबर 2012 की बात थी, जब आम आदमी पार्टी (आप) की आधिकारिक रूप से शुरुआत हुई थी. इसी दिन से भारत के सबसे बड़े राजनीतिक बदलावों में से एक की नींव पड़ी.
लेकिन शनिवार को यह सफर थम गया, जब आप को दिल्ली से सत्ता से बेदखल कर दिया गया—उस केंद्र शासित प्रदेश से, जिस पर उसने लगातार दो विधानसभा चुनावों में जीत के बाद 10 साल तक राज किया था. खुद केजरीवाल नई दिल्ली सीट से भाजपा के प्रवेश वर्मा से हार गए.
अब आप के उस दावे की परीक्षा होगी, जिसमें पार्टी ने कहा था कि वह किसी विचारधारा से बंधी नहीं है, बल्कि सिर्फ़ “काम की राजनीति” करती है.
दरअसल, विचारधारा से परे रहने का केजरीवाल का यह मॉडल—जिसे वह “काम की राजनीति” कहते हैं—लोकलुभावन वादों और कल्याणकारी योजनाओं के मेल के कारण 13 सालों तक आप के लिए कारगर साबित हुआ.
हालांकि, केजरीवाल ने विचारधारा आधारित राजनीति से दूरी बनाने की बात कही थी, फिर भी पार्टी के कई नेता वामपंथी झुकाव वाले थे. इनमें योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, मेधा पाटकर और आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी शामिल थे, जो माओवादियों की मदद करने के आरोपों का सामना कर रही थीं. वहीं, दक्षिणपंथी रुझान वाले कवि कुमार विश्वास भी केजरीवाल के क़रीबी रहे.
आप का पहला चुनावी अनुभव काफ़ी सफल रहा. 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप ने कांग्रेस के 15 साल के शासन को खत्म कर दिया और 70 में से 28 सीटें जीतीं, जो बहुमत से कुछ ही कम थीं. केजरीवाल ने खुद नई दिल्ली सीट से तीन बार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हराया था.
इसके बाद देश को पहली बार केजरीवाल के राजनीतिक रूप की झलक मिली.
आप ने सरकार बनाने के लिए कांग्रेस का बाहरी समर्थन स्वीकार कर लिया. केजरीवाल ने इस फैसले को सही ठहराते हुए कहा कि उन्होंने इस मुद्दे पर जनता की राय ली थी—272 जनसभाओं में लोगों ने इसे मंजूरी दी, और एक एसएमएस और ऑनलाइन पोल में भी “74 प्रतिशत” लोगों ने समर्थन जताया.
यह फैसला उनकी “सीधी लोकतंत्र” (डायरेक्ट डेमोक्रेसी) की सोच को दर्शाता था, जिसे वह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान ज़ोर-शोर से आगे बढ़ा रहे थे. यही आंदोलन 2011 की गर्मियों में उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में ले आया था.
उस समय, उन्होंने ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ (IAC) आंदोलन की अगुवाई की, जिसमें समाजसेवी अन्ना हज़ारे को उन्होंने चेहरा बनाया.
आप की औपचारिक शुरुआत से कुछ महीने पहले, अगस्त 2012 में, केजरीवाल ने जंतर मंतर पर एक रैली को संबोधित किया और वहां उन्होंने पहली बार ऐलान किया कि IAC आंदोलन अब राजनीति में उतरेगा.
उन्होंने कहा, “हमारी पार्टी में कोई हाईकमान नहीं होगा, जो एसी कमरे में बैठकर उम्मीदवार चुने. जनता ही अपने उम्मीदवार चुनेगी. हमारा घोषणापत्र भी एसी कमरे में नहीं बनेगा. हम लोगों के बीच जाकर उनकी राय लेंगे. हमारी पार्टी का ढांचा किसी दूसरी पार्टी जैसा नहीं होगा. हम अपनी चंदे की जानकारी सार्वजनिक करेंगे और हमारे प्रचार, विज्ञापन और हेलीकॉप्टर उड़ानों का पूरा खर्च भी जनता के सामने रखा जाएगा.”
मुख्यमंत्री के तौर पर केजरीवाल का पहला कार्यकाल सिर्फ़ 49 दिनों का रहा. उन्होंने यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि कांग्रेस ने दिल्ली विधानसभा में जनलोकपाल विधेयक का समर्थन नहीं किया.
इसके कुछ ही महीनों बाद, जब देश आम चुनाव की ओर बढ़ रहा था, केजरीवाल ने एक बड़ा—या कहें, दुस्साहसी—कदम उठाया. उन्होंने आप को 434 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ाने का फैसला किया.
खुद केजरीवाल ने वाराणसी से नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ चुनाव लड़ा. 20 प्रतिशत वोट हासिल कर वे दूसरे स्थान पर रहे, लेकिन आप के बाक़ी उम्मीदवारों को पूरे देश में हार का सामना करना पड़ा.
केजरीवाल की रणनीति
हताश केजरीवाल फिर से रणनीति बनाने में जुट गए. उन्होंने दिल्ली में जनसभाएं आयोजित कीं और लोगों से सिर्फ 49 दिनों में इस्तीफा देने के लिए माफी मांगी, यह वादा करते हुए कि भविष्य में ऐसा आत्मघाती कदम नहीं उठाएंगे.
पार्टी ने 2015 के विधानसभा चुनावों के लिए अपना घोषणापत्र तैयार करने के दौरान दिल्लीवासियों के विभिन्न वर्गों से व्यापक संवाद भी किया, जिससे राष्ट्रपति शासन हटाने और चुनाव कराने का मार्ग प्रशस्त हुआ.
इसके साथ ही, उनके 49 दिनों के शासनकाल में बिजली और पानी पर दी गई सब्सिडी ने जनता को प्रभावित किया, जिसके परिणामस्वरूप आम आदमी पार्टी को भारी बहुमत मिला. पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीत लीं, जबकि बीजेपी मात्र तीन सीटों पर सिमट गई और कांग्रेस पूरी तरह समाप्त हो गई.
हालांकि, पार्टी के आंतरिक तंत्र में दरारें उभरने लगीं. केजरीवाल के “तानाशाही” और “अधिनायकवादी” नेतृत्व शैली के आरोप लगने लगे. इस आंतरिक कलह के चलते वरिष्ठ नेताओं योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी से बाहर कर दिया गया. यह स्पष्ट होने लगा कि केजरीवाल अपने एक्टिविस्ट दौर से काफी आगे बढ़ चुके थे, जब उन्होंने आम आदमी पार्टी को “एक आदमी की पार्टी” बनने से रोकने की कसम खाई थी.
इन झटकों के बावजूद, केजरीवाल की लोकप्रियता लगातार बढ़ती रही, खासकर दिल्ली के कामकाजी वर्ग और निम्न-मध्यम वर्ग के मतदाताओं के बीच, जिन्होंने कांग्रेस को छोड़कर आप का दामन थाम लिया.
पंजाब में 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को सफलता नहीं मिली, लेकिन वह मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी. उसी वर्ष, आम आदमी पार्टी दिल्ली नगर निगम का नियंत्रण भी नहीं हासिल कर पाई. 2019 में, दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर हार का सामना करना पड़ा, और पांच सीटों पर पार्टी तीसरे स्थान पर रही.
ऐसा लगने लगा कि आम आदमी पार्टी का सपना खत्म हो रहा है, लेकिन केजरीवाल ने अपनी राजनीति का रुख बदल दिया. अब वह गुस्से से भरे नेता की बजाय एक सौम्य, मुस्कुराते हुए ‘सभी के बेटे’ के रूप में नजर आए.
2020 के विधानसभा चुनावों में, केजरीवाल ने अपनी सरकार की उपलब्धियों को केंद्र में रखा—सरकारी स्कूलों का कायाकल्प, मोहल्ला क्लीनिकों के जरिए स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, गरीबों के लिए मुफ्त बिजली-पानी और महिलाओं के लिए बस यात्रा मुफ्त करना.
हालांकि, उन्होंने नागरिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक अधिकारों पर स्पष्ट रुख अपनाने से बचना शुरू कर दिया। इसके बजाय, उन्होंने अक्षरधाम मंदिर के सामने सरकारी खर्चे पर लक्ष्मी पूजा आयोजित कराई, हनुमान चालीसा का सार्वजनिक पाठ किया, और वरिष्ठ नागरिकों के लिए मुफ्त तीर्थयात्रा योजना शुरू की.
यह रणनीति कारगर रही। 2020 के चुनावों में आम आदमी पार्टी ने 62 सीटें जीतकर सत्ता में वापसी की, बीजेपी को मात्र आठ सीटों पर सीमित कर दिया, और कांग्रेस का वोट शेयर घटकर 4 प्रतिशत रह गया.
तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद, केजरीवाल ने केंद्र सरकार से कई टकराव किए, लेकिन वे यह अंदाजा नहीं लगा पाए कि आगे और बड़ी परेशानियां उनका इंतजार कर रही हैं.
हालांकि, पार्टी को कुछ चुनावी सफलताएं भी मिलीं. 2022 में, आम आदमी पार्टी ने पंजाब में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर अपनी दूसरी सरकार बनाई. इसी वर्ष, दिल्ली नगर निगम में भी उसने बहुमत हासिल किया.
लेकिन जब आम आदमी पार्टी अपनी इन सफलताओं का जश्न मना रही थी, पार्टी के कुछ नेता उभरते संकट को भांप चुके थे.
सीबीआई ने पहले ही दिल्ली के तत्कालीन उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को आबकारी नीति मामले में आरोपी बनाया था और पार्टी से जुड़े कुछ लोगों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया था. सबसे पहले बिजनेसमैन विजय नायर को पकड़ा गया, जो पार्टी की संचार रणनीति संभाल रहे थे.
हालांकि, पार्टी का नेतृत्व कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने में जुटा रहा और 2023 में गुजरात चुनाव में पूरी ताकत झोंक दी, जहाँ उसने 13 प्रतिशत वोट शेयर हासिल करते हुए पाँच सीटें जीतीं.
इसके बाद पार्टी का पतन शुरू हुआ.
सबसे पहले मनीष सिसोदिया निशाने पर आए. 26 फरवरी 2023 को सीबीआई ने उनके घर पर छापा मारा और उन्हें गिरफ्तार कर लिया. आठ महीने बाद, आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने गिरफ्तार कर लिया, जिसने अगस्त 2023 में आबकारी नीति मामले की अलग से जांच शुरू की थी.
जमानत की अर्ज़ियों के बार-बार खारिज होने के कारण पार्टी पूरी तरह निराशा के जाल में फंस गई थी. लगभग एक साल बाद, जब भारत अगली सरकार चुनने की तैयारी कर रहा था, तब पार्टी को करारा झटका लगा—21 मार्च को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने केजरीवाल को उनके आधिकारिक निवास से गिरफ़्तार कर लिया। वह स्वतंत्र भारत में गिरफ्तार होने वाले पहले मौजूदा मुख्यमंत्री बने.
अन्य झटके भी लगे. केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश लाया, जिसे बाद में संसद में पारित कर दिया गया. इसने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम, 1991 में संशोधन कर दिया, जिससे 11 मई 2023 के सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का प्रभाव समाप्त हो गया, जिसने आम आदमी पार्टी सरकार को कानून बनाने और अपने अधीन काम करने वाले नौकरशाहों पर नियंत्रण रखने का अधिकार दिया था.
आख़िरकार, आम आदमी पार्टी की मजबूत शासन प्रणाली का उत्थान ठहर सा गया और पार्टी के भीतर निराशा गहराने लगी.
सितंबर में जमानत पर रिहा होने के बाद, केजरीवाल ने पार्टी को फिर से संगठित और सक्रिय करने की कोशिश की. हालांकि, कठोर जमानत शर्तों के कारण वह प्रभावी रूप से मुख्यमंत्री के रूप में काम नहीं कर सके—उन्हें कैबिनेट बैठकें बुलाने या फाइलों पर साइन करने की अनुमति नहीं थी. इसके चलते टूटी हुई सड़कों और कचरा प्रबंधन की बदहाल स्थिति को लेकर जनता का गुस्सा बढ़ता गया.
इस मजबूरी में उन्हें आतिशी को पदोन्नत कर ज़िम्मेदारी सौंपनी पड़ी, लेकिन अंततः यह कदम नाकाफी साबित हुआ.
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