बक्सर/रोहतास/लखनऊ: 1985 से 1991 के बीच, बक्सर के एक सरकारी हाई स्कूल में हर क्लास के सेक्शन ‘A’ में पहला बेंच एक ऐसे लड़के के लिए रहता था, जो वहां कम ही बैठता था. वह अक्सर स्कूल बंक मार देता था, लेकिन फिर भी हमेशा सेकंड आता था. वह लड़का था प्रशांत किशोर. करीब 34 साल बाद भी, किशोर का लक्ष्य सबसे आगे रहना ही है. उनकी जन सुराज पार्टी, जो बिहार की राजनीति में सबसे नई पार्टी है, इस बार राज्य की 243 में से 238 सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है.
उनके स्कूल के दोस्त कहते हैं कि प्रशांत कभी भी चुनौती से नहीं घबराए.
उनके पुराने स्कूल-मेट पुष्पेंदु मिश्रा, जो अब एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षक हैं, बताते हैं: “प्रशांत शुरू से ही बहुत निडर था, जहां हममें से ज्यादातर बच्चे स्कूल छोड़ने से डरते थे, वह अक्सर छुट्टी मार लेता था और फिर भी टॉप थ्री में रहता था. क्लास मिस करने पर रोज 10 पैसे जुर्माना लगता था. वह कभी-कभी एक महीने का 2 रुपए 40 पैसे भेज देता था. कोई सवाल नहीं करता था, क्योंकि वह टॉपर था.”
एक और स्कूल-मेट रतन केसरी ने कहा, “प्रशांत हमेशा जोखिम लेने से नहीं डरता था. कौन ऐसा कर सकता था जब मोदी अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे, 2015 में?” वह यह बात उस समय की ओर इशारा करते हुए कहते हैं जब प्रशांत किशोर ने जेडीयू-आरजेडी गठबंधन बनवाने में भूमिका निभाई, ताकि बिहार में बीजेपी को सत्ता से दूर रखा जा सके — “क्योंकि मोदी और शाह के साथ बात नहीं बनी थी.”

दोस्तों में प्यार से उन्हें ‘टू-टू भाई’ कहा जाता है. प्रशांत का जन्म शाहाबाद जिले में हुआ था, जहां उनके पिता श्रीकांत पांडे सरकारी अस्पताल में डॉक्टर थे. मूल रूप से रोहतास के कोनार गांव के रहने वाले डॉ. पांडे, शाहाबाद में पोस्टेड थे, फिर 1980 के मध्य में बक्सर आ गए. यहां प्रशांत ने छठी से लेकर हाई स्कूल तक पढ़ाई की. फिर उन्होंने पटना साइंस कॉलेज से इंटर किया और 1993 में पास हुए.
बक्सर के उनके बैचमेट्स कहते हैं कि प्रशांत में शुरू से ही डेटा समझने की क्षमता थी. उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी में स्टैटिस्टिक्स के लिए एडमिशन लिया था, लेकिन सेहत की वजह से वापस लौट आए. इसके बाद उन्होंने लखनऊ यूनिवर्सिटी से बीबीए किया.
अब पटना में बिज़नेसमैन बने रतन बताते हैं, “हमारी दोस्ती बक्सर के दिनों से है. हमारे मार्क्स भी हमेशा आसपास रहते थे — मैंने मैट्रिक में 702 लाए और उसने 705. वह शुरू से ही बड़ा करने की सोच रखता था. क्लास 10 के बाद वह पटना साइंस कॉलेज गया, कुछ बड़ा करने के लिए. मैं बक्सर में ही रह गया और फिर धीरे-धीरे संपर्क कम हो गया.”
फिर वह बताते हैं कि 2024 में दोबारा मुलाकात कैसे हुई — “वह पटना में एक धरने में आया था, मैं उसे मिलने गया. मेरी बड़ी दाढ़ी हो गई थी. उसने पहचाना नहीं. मैंने कहा, ‘टू-टू भाई, पहचाना?’ पहले उसने कहा नहीं. फिर मैंने कहा ‘बनिवा रतन.’ वह हंसा — ‘अरे रतन! दाढ़ी के कारण पहचान नहीं पाया.’ इसके बाद से हम फिर टच में हैं. वह अभी भी वही ज़िद्दी और महत्वाकांक्षी टू-टू है, बस अब सोच बड़ी है और मिशन भी बड़ा है.”

बक्सर के कुछ दोस्त इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उनकी पार्टी ज्वाइन कर ली. उनमें से एक अमरेन्द्र मिश्रा हैं.
उन्होंने कहा, “मैंने 2022 में जन सुराज की पदयात्रा के दौरान जुड़ना शुरू किया. मैं उसे लंबे समय से जानता हूं. 2012 में भी उससे मिला था, जब वह गुजरात सरकार के साथ काम कर रहा था. बिहार को बदलने की उसकी सोच ने मुझे प्रभावित किया. लोगों के लिए वह एक बड़ा राजनीतिक चेहरा होगा, लेकिन हमारे लिए वह अभी भी वही पुराना प्रशांत है.”
दिप्रिंट ने इस रिपोर्ट पर प्रशांत किशोर से प्रतिक्रिया लेने की कोशिश की, लेकिन रिपोर्ट के छपने तक जवाब नहीं मिल पाया था. जवाब मिलने पर रिपोर्ट को अपडेट कर दिया जाएगा.
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कोनार को टू-टू का इंतज़ार
सासाराम जिला मुख्यालय के पास स्थित किशोर का पैतृक गांव कोनार आज भी उनके आने का इंतज़ार कर रहा है. लगभग 6,000 की आबादी वाला यह गांल करगर विधानसभा क्षेत्र में आता है. गांव वालों को उम्मीद थी कि वह यहीं से चुनाव लड़ेंगे.
लेकिन उन्होंने इसकी जगह इस सीट से भोजपुरी गायक रितेश पांडेय को उतारा है. फिर भी गांव वाले उम्मीद लगाए बैठे हैं कि मतदान के दिन वे अपने ‘लोकल लड़के’ को ज़रूर देख सकेंगे. गांव के बीच में एक बड़ा पुराना मकान है, जिसकी देखभाल केदार पांडेय करते हैं. दीवारों पर जन सुराज के पोस्टर और झंडे लगे हुए हैं — यह दिखाने के लिए कि गांव वाले अब भी अपने टू-टू पर गर्व करते हैं.
67-वर्षीय केदार पांडेय ने दिप्रिंट से कहा, “प्रशांत आखिरी बार 2019 में आए थे, अपने माता-पिता के निधन के बाद अंतिम संस्कार के लिए. उसके बाद वो नहीं आए, लेकिन जब से वे राजनीति में आए हैं, पूरा गांव उनका इंतज़ार कर रहा है. बचपन में, जब उनके माता-पिता शहर से वीकेंड पर आते थे, तो वह ज़्यादातर समय इसी घर में बिताते थे.”

केदार बताते हैं कि किशोर के परिवार के पास पहले कोनार में काफी खेती की ज़मीन और एक चावल मिल थी, जिसकी देखरेख अब वही करते हैं.
उन्होंने कहा, “माता-पिता के गुजरने के बाद, प्रशांत राजनीति में पूरी तरह व्यस्त हो गए. उनके बड़े भाई अजय किशोर, जो एनसीआर में रहते हैं, साल में एक बार गांव आते हैं. उनके पिता डॉ. श्रीकांत पांडे एक जाने-माने डॉक्टर थे. उनके दो बेटे और दो बेटियां हैं. अब बिहार में परिवार से सिर्फ प्रशांत ही सक्रिय हैं.”
25 साल के आयुष दिल्ली में काम करते हैं, छठ पर कोनार आए थे और वोट डालने के लिए रुक गए.
पहली बार वोट देने वाला आयुष ने कहा, “बिहारी लोग बहुत काबिल हैं, लेकिन बड़े शहरों में आज भी हमारे राज्य की छवि अच्छी नहीं है. अब जब प्रशांत किशोर बिहार बदलने की कोशिश कर रहे हैं, तो मैं कुछ हफ्ते रुक गया हूं ताकि देख सकूं चुनाव में क्या होता है. हमें उम्मीद है कि वो किंगमेकर बन सकते हैं और बिहार की छवि बदल सकते हैं.”
किशोर के पड़ोसी रमेश पाण्डेय ने कहा, “वो (किशोर) बचपन से ही ज़िद्दी थे. गांव में खेल हो या कोई छोटी प्रतियोगिता — वो हार मानते ही नहीं थे. वही गुण आज भी दिखते हैं. बिहार की राजनीति बदलने की ठान ली है उन्होंने. अब देखिए, कैसे नीतीश कुमार और लालू जैसे बड़े नामों को चुनौती दे रहे हैं.”
उन्होंने आगे कहा, “अगर उन्हें सिर्फ राज्यसभा में जाना होता, तो वो किसी भी पार्टी में जाकर खत्म कर देते, लेकिन उन्होंने सोचा कि बिहार के लिए कुछ करना है. हम तो पूरी तरह उनके साथ हैं. हमें इस बात की कोई शिकायत नहीं कि वे छह साल से गांव नहीं आए. जब लक्ष्य बड़ा होता है, तो छोटी-छोटी शिकायतें नहीं रखी जातीं.”

किशोर के पिता बक्सर में जाने-माने डॉक्टर थे. एक पड़ोसी बताते हैं कि जब भी कोनार का कोई आदमी बक्सर आता था, उन्हें फ्री इलाज और कभी-कभी खाना तक मिल जाता था — उनके पिता की निजी क्लिनिक में, जो उन्होंने सरकारी सेवा से रिटायर होने के बाद खोली थी.
नाम न बताने की शर्त पर उनके पिता के एक करीबी ने कहा, “डॉ. श्रीकांत पाण्डेय कांग्रेसी विचारधारा वाले थे और उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे की शाहपुर से विधानसभा चुनाव में मदद भी की थी.”
सफर की शुरुआत
2000 के शुरुआती दशक में किशोर पब्लिक हेल्थ में मास्टर्स करने हैदराबाद गए. कई दोस्तों का मानना है कि यहीं से उनकी पब्लिक लाइफ की शुरुआत हुई. हैदराबाद में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के साथ स्वास्थ्य संबंधी परियोजना पर काम किया. उनके अनुसार, उन्होंने यूएन के साथ 8 साल से ज्यादा काम किया.
नाम न छापने की शर्त पर उनके स्कूल के एक साथी ने बताया, “राबड़ी देवी सरकार के दौरान वे पोलियो पर एक रिसर्च प्रोजेक्ट के फील्डवर्क के लिए पटना आए थे. उसी दौरान उनकी मुलाकात जाह्नवी दास, जो डॉक्टर हैं, से हुई. बाद में दोनों ने इंटर-कास्ट शादी की. सुना था कि शुरुआत में परिवार वाले राज़ी नहीं थे, लेकिन प्रशांत ने उन्हें मना लिया.”
इसके बाद किशोर मध्य अफ्रीका के चाड चले गए एक और हेल्थ प्रोजेक्ट पर. भारत लौटने के बाद उन्होंने नेताओं से संपर्क बढ़ाना शुरू किया.
2004–2009 के दौरान, जब राहुल गांधी अमेठी से सांसद थे, किशोर ने उनसे मुलाकात की और स्वास्थ्य व्यवस्था सुधारने की सलाह दी.
पूर्व कांग्रेस एमएलसी और अमेठी के नेता दीपक सिंह ने कहा, “2008 में वो अमेठी आए और संजय गांधी अस्पताल परिसर में रहते थे. वो स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू करने आए थे. एक बार सचिन तेंदुलकर, राहुल गांधी के साथ पुरस्कार बांटने आए थे. तब किशोर ने मुझसे कहा था कि मैं सचिन का स्वागत करूं. वह तब भी बहुत तेज़ दिमाग के थे. कुछ हफ्ते काम करके वह वापस दिल्ली चले गए.”
उनके एक करीबी, जिन्होंने बाद में I-PAC में उनके साथ काम किया, बताते हैं — “हमें नहीं पता कि वह अमेठी से क्यों लौट आए, लेकिन हमें याद है कि उन्होंने गुजरात में कुपोषण पर एक लेख लिखा था, जिसने ‘गुजरात मॉडल’ को चुनौती दी थी. यह बात गुजरात सरकार के लोगों तक पहुंची. 2010 के आसपास, उनकी मुलाकात तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से हुई और उन्होंने गुजरात की स्वास्थ्य व्यवस्था मजबूत करने के तरीके सुझाए. मोदी उनके काम से प्रभावित हुए और 2012 के गुजरात चुनाव अभियान की जिम्मेदारी उन्हें दी.”
2013 में, किशोर ने Citizens for Accountable Governance (CAG) बनाया — एक मीडिया और रणनीति संगठन, ताकि काम को व्यवस्थित तरीके से किया जा सके.
इसके संस्थापकों में से एक बताते हैं, “CAG का मकसद था कि सरकार को सलाह दी जाए कि नीतियों को ज़मीन पर कैसे सही तरीके से लागू किया जाए. उस समय मैनेजमेंट, कानून, मीडिया और सोशल वर्क की पृष्ठभूमि वाले कई लोग जुड़े थे.”
2014 लोकसभा चुनाव के बाद बड़ा मोड़
2014 लोकसभा चुनाव में मोदी की जीत के बाद, प्रशांत किशोर एक राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में चर्चा में आ गए. उनका नाम चाय पे चर्चा, थ्रीडी रैली, बड़े कॉनक्लेव और सोशल मीडिया कैंपेन जैसे नए चुनावी आइडिया के लिए जाना गया.
सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन 2014 के दूसरे हिस्से में एक बड़ा मोड़ आया — जब पीके और सरकार के कुछ शीर्ष लोगों के बीच अंतर की बातें सामने आने लगीं.
एक वरिष्ठ राजनीतिक सलाहकार, जो उस समय उनके साथ काम करते थे, बताते हैं: “पीके चाहते थे कि CAG को सरकार के लिए एक सलाह देने वाला संस्थान बनाया जाए, जो न सिर्फ नीतियों पर सलाह दे, बल्कि अगर कोई अधिकारी ठीक से काम न करे, तो उसे जवाबदेह भी ठहरा सके, लेकिन पीएम मोदी के एक करीबी और पीएमओ के कुछ अधिकारियों ने इसका विरोध किया, जिसके कारण इसकी प्रक्रिया रुकती चली गई.
इस देरी से पीके परेशान हो गए और फिर उन्होंने आगे बढ़कर I-PAC (Indian Political Action Committee) की शुरुआत की.”
बीजेपी के साथ काम खत्म होने के बाद, पीके ने जेडीयू का 2015 चुनाव अभियान संभाला और बाद में पार्टी के उपाध्यक्ष भी बने.
जेडीयू के वरिष्ठ नेता के.सी. त्यागी बताते हैं: “प्रशांत को नीतीश जी से पवन के. वर्मा ने मिलवाया था. पवन उस समय राज्यसभा सदस्य थे. एक बार वे प्रशांत को मेरे दिल्ली वाले घर लाए. उन्होंने बताया कि वह बीजेपी छोड़कर अब विपक्ष के लिए काम करना चाहते हैं और चूंकि बिहार उनका घर है, वे यहीं से शुरुआत करना चाहते थे. फिर हमने मिलकर 2015 चुनाव की रणनीति बनाई. नीतीश जी को धीरे-धीरे उन पर भरोसा हो गया. इसी दौरान प्रशांत ने ही नीतिश जी को समझाया कि मुख्यमंत्री खुद बने रहें, जीतन राम मांझी की जगह. पहले नीतीश जी तैयार नहीं थे, लेकिन पीके के तर्क से मान गए कि जान-पहचान वाला चेहरा चुनाव में वोट दिलाता है.”

जन सुराज पार्टी के मुख्य प्रवक्ता पवन के. वर्मा पुष्टि करते हैं: “हां, मैंने ही उन्हें नीतीश कुमार से मिलवाया था. 2014 के दूसरे हिस्से में एक अनजान नम्बर से फोन आया. आमतौर पर मैं ऐसे फोन नहीं उठाता, लेकिन उस दिन उठा लिया. उन्होंने कहा कि वो मिलना चाहते हैं.
उन्होंने बताया कि वो बिहार के लिए कुछ करना चाहते हैं. फिर मैंने उन्हें नीतीश जी से मिलाया और यहीं से जेडीयू के साथ उनका सफर शुरू हुआ.”
2018 में पीके ने जेडीयू ज्वॉइन किया और नीतीश कुमार ने उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बना दिया, लेकिन 2019 में, सीएए-एनआरसी का विरोध करने पर प्रशांत और पवन वर्मा दोनों को पार्टी से निकाल दिया गया.
पवन वर्मा ने कहा, “2019 में नीतीश जी उस समय एनडीए के साथ थे, इसलिए हम दोनों को निकाल दिया गया. फिर मैं थोड़े समय के लिए टीएमसी में गया, जब पीके वहां काम कर रहे थे. 2021 तक हमें लगा कि अब बिहार के लिए एक नया विकल्प बनाना चाहिए और वहीं से जन सुराज का विचार जन्मा.”
के.सी. त्यागी ने कहा, “पीके जब जेडीयू में आए थे, उसी समय से उनके मन में बिहार के लिए कुछ बड़ा करने का सपना था. भले ही वह कुछ समय के लिए फिर अपने पेशे में लौट गए, लेकिन बिहार हमेशा उनके दिमाग में रहा.”
बिहार सरकार बनने के बाद पीके ने राजनीतिक सलाह का काम जारी रखा. उन्हें फिर कांग्रेस ने 2017 यूपी चुनाव का अभियान संभालने के लिए बुलाया — हालांकि, वह अभियान सफल नहीं हुआ.
उनके पुराने सहयोगियों के अनुसार, उनकी रणनीतियों की सफलता दर 90% से अधिक रही, जिनमें बिहार, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र, बंगाल और तमिलनाडु की सरकारें शामिल हैं.
मई 2021 में जब पीके ने राजनीतिक सलाहकारी काम छोड़ने का ऐलान किया, उन्होंने अपनी टीम से कहा, “जो भी बिहार बदलने के मिशन में शामिल होना चाहता है, मेरे साथ आ सकता है.”
I-PAC के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “राजनीति और राजनीतिक रणनीति — दोनों बिल्कुल अलग चीज़ें हैं. आप एक साथ राजनीति में भी सक्रिय रहें और रणनीतियाँ भी बनाते रहें, यह संभव नहीं है. इसीलिए पीके ने I-PAC छोड़ दिया. अब उनका I-PAC से कोई संबंध नहीं है, लेकिन कई लोग जो उनका विज़न साझा करते थे, वे उनके साथ बिहार आ गए.”
जन सुराज के लोग जानते हैं कि पीके ज़िद्दी हैं, लेकिन उनका बिहार बदलने का संकल्प उन्हें प्रेरित करता है.
मिथिलेश पाठक, जो अब जन सुराज में शाहाबाद क्षेत्र संभालते हैं, बताते हैं: “मैं पीके से 2012 में गुजरात में मिला था. मैं तब बीजेपी से जुड़ा था और काम के सिलसिले में गुजरात जाता था. हमने बिहार की राजनीति पर थोड़ी बात की थी और फिर सालों तक मैसेज पर संपर्क रहा. 2024 में जब बीजेपी से टिकट नहीं मिला, तो जन सुराज ने मुझे शाहाबाद क्षेत्र की जिम्मेदारी दी. करीब एक साल पहले जब फिर पीके से मिला, तो उन्होंने 2012 की मुलाकात तुरंत याद कर ली — यह दिखाता है कि उनकी याददाश्त कितनी तेज है.”
कोनार से जनसुराज के समर्थक रस बिहारी लाल बताते हैं, “आज बिहार की राजनीति में पीके को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. हर विधानसभा में लोग जन सुराज की चर्चा कर रहे हैं. चाहे पार्टी जीते या न जीते — उसकी मौजूदगी सब मानते हैं. नीतीश-लालू को बड़े नेता बनने में सालों लगे. टू-टू भी आने वाले समय में वही मुकाम हासिल कर सकता है. हम बस चाहते हैं कि वह लक्ष्य हासिल करके गांव वापस आए.”
और पुष्पेन्दु मिश्र, जो 34 साल से पीके से नहीं मिले, उन्होंने कहा, “एक सितंबर को हमने एमपी हाई स्कूल का 138वां स्थापना दिवस मनाया. इसके लिए हमने सोशल मीडिया ग्रुप बनाया — ‘138 साल बेमिसाल’. हमने प्रशांत को औपचारिक रूप से निमंत्रण नहीं भेजा, क्योंकि सोचा कि वह प्रचार में व्यस्त होंगे, लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि अगली बार वह हमारे बीच विशेष अतिथि होंगे.”
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