वाराणसी: काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट के एक पूर्व अध्यक्ष ने काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी मस्जिद परिसर विवाद के सिलसिले में ‘मां श्रृंगार गौरी स्थल’ के स्थान के बारे में याचिकाकर्ताओं द्वारा किए गए दावों का खंडन किया है.
याचिकाकर्ताओं ने ‘मां श्रृंगार गौरी स्थल’, जहां इन देवी और अन्य हिंदू देवताओं की मूर्तियां स्थित हैं, पर नियमित पूजा की अनुमति मांगी है. उनका कहना है कि यह ज्ञानवापी मस्जिद की बाहरी दीवार पर स्थित है, और उनकी याचिका पर हीं एक दीवानी अदालत ने मस्जिद परिसर के सर्वेक्षण का आदेश दिया था.
आचार्य अशोक द्विवेदी, जो 2013 और 2019 के बीच जो मंदिर की शीर्ष प्रबंधन संस्था काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष थे. उन्होंने दावा किया है कि वाराणसी के इतिहास के बारे में लिखी गई दो पुस्तकें कहती हैं कि ये मूर्तियाँ कहीं और स्थित हैं.
उन्होंने कहा, ‘ये दो पुस्तकें, प्रख्यात विद्वान और इतिहासकार कुबेरनाथ शुकुल द्वारा लिखित ‘वाराणसी वैभव’ तथा प्रसिद्ध आध्यात्मिक नेता ‘धर्म सम्राट’ करपात्री महाराज के शिष्य शिवानंद सरस्वती द्वारा लिखित ‘काशी गौरव’ हैं.’
द्विवेदी ने दिप्रिंट को बताया, ‘शुकुल की पुस्तक के पृष्ठ 221 पर काशी विश्वनाथ मंदिर के ईशान कोण (उत्तर-पूर्वी कोने) और अन्नपूर्णा मंदिर के भीतर (जो काशी विश्वनाथ मंदिर गलियारे के अंदर हीहै) माँ श्रृंगार गौरी की उपस्थिति का उल्लेख किया गया है. शिवानंद सरस्वती की एक अन्य पुस्तक में, इन देवी की उपस्थिति का उल्लेख ‘मोहल्ला बांसफाटक’ (काशी विश्वनाथ मंदिर से 100 मीटर से अधिक की दूरी पर) में प्लॉट 3/58 वाली जगह पर किया गया है.’
उन्होंने कहा कि मंदिर के गलियारे के निर्माण के दौरान प्राचीन मंदिरों में कई सारे बदलाव किए गए थे, और कई सारे देवताओं को स्थानांतरित भी कर दिया गया था.
द्विवेदी ने आगे कहा, ‘लोग इस तरह की याचिकाएं दायर करके अपने लिए सस्ता प्रचार हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं.’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘मां श्रृंगार गौरी की मूर्ति’ का पता लगाने के लिए एक आयोग का गठन किया जाना चाहिए.
इस बीच, दिप्रिंट से बात करते हुए, विश्व वैदिक सनातन संघ (वीवीएसएस) के प्रमुख जितेंद्र सिंह विशन, जो काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी विवाद के जटिल मामले के याचिकाकर्ताओं में शामिल हैं, ने कहा कि उनकी याचिका एक ‘ब्रिटिश-कालीन नक्शे’ पर आधारित है, जो 1936 में उन तीन मुसलमानों द्वारा दायर एक अदालती मामले का भी आधार बना था जिन्होंने मांग की थी कि यह जमीन उनके समुदाय को सौंप दी जाए.
उन्होंने कहा, ‘यदि आप आज के दिन में परिसर का निरीक्षण करते हैं, तो आप पाएंगे कि 90 प्रतिशत संरचनाएं इसी मानचित्र के अनुसार हैं. इसके अलावा, शास्त्रों में, भगवान गणेश आदि विश्वेश्वर मंदिर के उत्तरी तरफ हैं, जबकि श्रृंगार गौरी पश्चिमी तरफ स्थित हैं और दक्षिणी तरफ कार्तिकेय विराजमान हैं. पुस्तकों के कई हिस्से भले ही सही हों लेकिन फिर भी कुछ सवाल बाकी रह जाते हैं.’
हालांकि, अदालत में याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों में से एक, एडवोकेट अनुपम द्विवेदी, ने कहा, ‘अदालत द्वारा आदेशित सर्वेक्षण का उद्देश्य देवताओं के सटीक स्थान का पता लगाना है’, और उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि केवल एक गहन परीक्षण ही सही स्थान का निर्धारण कर सकता है.
काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी मस्जिद परिसर इस समय कानूनी विवाद में फंसा हुआ है. मस्जिद की प्रबंधन समिति की आपत्तियों के बीच पिछले सप्ताहांत में दो बार ‘अदालत के आदेश पर हो रहे सर्वे’ का काम रोकना पड़ा था. हालांकि, गुरुवार को अदालत ने यह फैसला सुनाया कि वह सर्वेक्षण दल का नेतृत्व करने के लिए नियुक्त ‘अधिवक्ता आयुक्त’ (एडवोकेट कमिश्नर) को नहीं बदलेगी, और उसने इस संबंध में मस्जिद कमिटी की गुजारिश को ठुकरा दिया.
‘स्थल’ और इसके स्थान के इर्दगिर्द पनपा विवाद
मां श्रृंगार गौरी को हिंदू भगवान शिव की पत्नी पार्वती का एक अवतार माना जाता है. याचिकाकर्ताओं की याचिका के अनुसार, इन देवी की एक नक्काशी ज्ञानवापी मस्जिद के पीछे स्थित एक मंच के साथ और इसके चारों ओर लगी बैरिकेडिंग के बाहर स्थित है. आम जनता को साल में दो बार नवरात्रि के दौरान के समयकाल को छोड़कर यहां पूजा करने की अनुमति नहीं है.
यह इसी ‘स्थल’ का स्थान है, जिसके बारे में द्विवेदी द्वारा यह मामला लड़ा जा रहा है, और वे दावा करते हैं कि इस याचिका में उल्लिखित स्थल पर पूजा हिंदुत्व संगठनों के अभियानों के बाद ही शुरू हुई थी.
द्विवेदी ने कहा, ‘हम और हमारा परिवार पिछले 800 वर्षों से यहां रह रहे हैं, लेकिन हमने कभी नहीं सुना कि जिस स्थान के बारे में बात की जा रही है, वहां कोई ‘श्रृंगार गौरी स्थल’ था. हमें इसके बारे में तभी पता चला जब शिवसेना और विहिप जैसे संगठनों ने (2004-2005 में) वहां बनी नक्काशी पर पानी चढ़ाना शुरू किया.’
उन्होंने यह भी दावा किया कि ज्ञानवापी मस्जिद को पहले ‘आलमगिरी मस्जिद’ के नाम से जाना जाता था, साथ ही, उन्होंने यह भी बताया कि इतिहासकार जेम्स प्रिंसेप ने अपनी पुस्तक ‘बनारस इलस्ट्रेटेड (1833)’ में इस बात को स्वीकार किया था.
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