मुर्शिदाबाद/कोलकाता: कलफ लगा हुआ सफेद कड़कदार कुर्ता और लाल स्कार्फ पहने सृजन भट्टाचार्य पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना में अपने व्यस्त कैंपेन के दौरान ई-रिक्शा की सवारी करते हैं. उन्हें लोकसभा चुनाव से पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के अपेक्षाकृत नए भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चा (आईएसएफ) के साथ असफल गठबंधन को लेकर एक दर्शक का सामना करना पड़ा.
जादवपुर से सीपीआई (एम) के उम्मीदवार ने माइक पास रखते हुए बॉलीवुड गाने की एक लाइन सुनाई – ‘चाहे जो लेकर आए दिल में इश्क मोहब्बत, सबको गले लगाना अपने कल्चर की है आदत.’
कोलकाता से लगभग 30 किमी दूर भांगर में, जहां आईएसएफ के नौशाद सिद्दीकी विधायक हैं, उनके समर्थकों द्वारा जय-जयकार किया जा रहा है और सीटियां बजाई जा रही हैं.
उनके शब्दों में कहें तो, भट्टाचार्य इसे सीपीआई (एम) की नई रणनीति के हिस्से के रूप में “जनता तक पहुंचने के लिए आसान भाषा का उपयोग करना” कहते हैं, जो 34 वर्षों से बंगाल में सत्ता पर काबिज है लेकिन अब एक दशक से अधिक समय से सत्ता में आने के लिए संघर्ष कर रही है.
बॉलीवुड डायलॉग्स का उपयोग करना, जनता तक पहुंचने के लिए युवा नेताओं को एआई और सोशल मीडिया का उपयोग करने के लिए प्रमोट करना और पार्टी के राजनीतिक विमर्श को भी वर्ग से बदलकर जाति में परिवर्तित करके, सीपीआई (एम) बंगाल में 2011 में सत्ता गंवाने से लेकर 2019 के लोकसभा और 2021 के विधानसभा चुनावों में जीरो पर सिमटने के बाद खुद को फिर से खड़ा करने की ठोस कोशिश कर रही है.
भट्टाचार्य कहते हैं, “पहले हिंदी सिनेमा के डायलॉग्स का प्रयोग करना वर्जित था, क्योंकि इसे वामपंथ की संस्कृति के रूप में नहीं देखा जाता था. लेकिन अब यह बदल रहा है. हम लोगों से जुड़ने के लिए आसान भाषा में बात करने की कोशिश कर रहे हैं. हमने बातचीत का तरीका बदला है लेकिन कंटेंट वही है.”
वह पार्टी द्वारा मैदान में उतारे गए एकमात्र युवा नेता नहीं हैं. स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया के उनके साथी प्रतिकुर रहमान और दिप्सिता धर डायमंड हार्बर और सेरामपुर से चुनाव लड़ रहे हैं.
मुर्शिदाबाद में सीपीआई (एम) कार्यालय में, फर्श सिगरेट के टुकड़ों और आधी पी हुई बीड़ियों से बिखरा हुआ है, क्योंकि पार्टी के सदस्य चुनावी रणनीति पर चर्चा कर रहे हैं – एक रोड शो, गांव-गांव में ‘जन सभा’ और घर-घर जाकर कैंपेन करना.
सीपीआई (एम) के राज्य सचिव और पोलित ब्यूरो सदस्य मोहम्मद सलीम मुर्शिदाबाद से चुनाव लड़ रहे हैं, जहां 2011 की जनगणना के अनुसार मुसलमानों की आबादी 66.27 प्रतिशत है. पार्टी को उम्मीद है कि सलीम मौजूदा टीएमसी सांसद अबू ताहेर खान के खिलाफ जीतेंगे, जिनकी तबीयत ठीक नहीं है.
एक सीपीआई (एम) कार्यकर्ता ने कहा, “लोगों को यह समझाने के बजाय कि फासीवाद क्या है और कैसे, टीएमसी और भाजपा द्वारा लोकतंत्र पर हमला किया जा रहा है. हम लोगों को बता रहे हैं कि खान अस्वस्थ हैं और लोगों के लिए काम नहीं कर पाएंगे. उन्हें एक योग्य नेता की जरूरत है. हम जानते हैं कि लोग फासीवाद और लोकतंत्र को नहीं समझेंगे,”
कोलकाता में, सीपीआई (एम) के सायरा शाह हलीम ने दावा किया कि वाम मोर्चा के ऊपर गरीब समर्थक होने का ठप्पा लगा है न कि शहरी जनता के साथ होने का.
पार्टी के दक्षिण कोलकाता उम्मीदवार कहते हैं, “हम इस धारणा को दूर करना चाहते हैं और लोगों को बताना चाहते हैं कि वामपंथ बहुत ही विकास समर्थक, युवा समर्थक, नौकरी समर्थक और उद्योग समर्थक है. हम अपने युवाओं के लिए नौकरियां चाहते हैं और नहीं चाहते कि वे दूसरे राज्यों में जाएं.”
2022 के बालीगंज विधानसभा उपचुनाव में, हलीम तृणमूल कांग्रेस के बाबुल सुप्रियो के बाद दूसरे स्थान पर रहे और भाजपा को तीसरे स्थान पर धकेल दिया.
कॉन्वेंट से पढ़े हलीम का कहना है कि पुरानी रूढ़िवादिता कि कामरेड को गरीब दिखना चाहिए और झोला लेकर चलना चाहिए, अब प्रासंगिक नहीं रह गई है. “वामपंथ का लाल किला विकसित हो गया है. आपको एक निश्चित तरीके से देखने, मार्क्स को उद्धृत करने, या एक निश्चित तरीके से बात करने की ज़रूरत नहीं है. पार्टी युवा साथियों को बढ़ावा दे रही है और व्यक्तिवाद को जगह दे रही है.”
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सीपीआई (एम) के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने मतदाताओं को वापस लाना है, जिन्होंने विशेष रूप से 2019 के बाद अपनी निष्ठा बदल ली है.
मुर्शिदाबाद में, सीपीआई (एम) राज्य समिति के सदस्य शतरूप घोष का कहना है कि पार्टी को सामाजिक प्रभाव को फिर से बनाने की जरूरत है जो वोट शेयर में दिखाई देगा. घोष याद करते हैं कि कैसे रेड वॉलंटियर्स ने कोविड के दौरान लोगों की सहायता की थी जिसका पंचायत चुनावों में फायदा मिला. “लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है.”
पार्टी कार्यालय की दीवारों पर लेनिन, मार्क्स, एंजेल्स, फिडेल कैस्ट्रो, स्टालिन और हो ची मिन्ह की तस्वीरें कुछ स्थानीय वामपंथी नेताओं अनिल बिस्वास और ज्योति बसु की तस्वीरों के साथ लगी हुई हैं.
यह पूछे जाने पर कि अंबेडकर या भगत सिंह की कोई तस्वीर क्यों नहीं लगी है, एक अन्य सदस्य ने स्वीकार करते हुए कहा: “वाम मोर्चे के साथ यही समस्या है. उनमें भारतीयता का अभाव है. हमने अपने भारतीय क्रांतिकारियों को अपना बताकर लाभ लेने के लिए भाजपा और आरएसएस के लिए ज़मीन छोड़ दी है.”
राजनीतिक विश्लेषक सुमन भट्टाचार्य का कहना है कि वामपंथी नई राजनीतिक और आर्थिक वास्तविकताओं का सामना करने में असमर्थ रहे हैं. “वामपंथियों के नारे अब लोगों के गले से नीचे नहीं उतरते, और हर कोई जानता है कि क्रांति कभी नहीं होगी. पहचान की राजनीति ने दुनिया में तूफान ला दिया है. लोग जानते हैं कि मजदूर-किसान वर्ग कभी भी सत्ता पर काबिज नहीं होगा. लोग वामपंथियों को वोट क्यों देंगे?”
लेकिन, घोष को लगता है कि 34 साल तक सत्ता में रहने के बाद, वाम मोर्चे को अपने “कम्फर्ट ज़ोन” से बाहर आने और खुद को “विपक्ष” के रूप में देखने में समय लगा. “विपक्ष में रहने की आदत नहीं थी. टीएमसी ने सुनिश्चित किया कि वामपंथी कैडरों को न केवल पंचायतों, बल्कि हर गांव से हटा दिया जाए. और वामपंथियों को यह अहसास नहीं हुआ कि वे सामाजिक प्रभाव खो रहे हैं.
सीपीआई (एम) सदस्य का कहना है कि इस बार पार्टी फिर से अपने युवा कार्यकर्ताओं में जोश भर के चुनाव में उतर रही है. “रेड वालंटियर्स के काम की सभी क्षेत्रों में सराहना की गई, और तभी लोगों को अहसास हुआ कि यह वाम मोर्चा था जो उनकी ज़रूरत पर उनके लिए उपलब्ध था.”
सीपीआई (एम) ने सबसे पहले 2021 के राज्य चुनाव में 40 साल से कम उम्र के नए चेहरों को मैदान में उतारना शुरू किया और क्रमशः 2022 और 2023 में नागरिक और ग्रामीण पंचायत चुनावों में इसे जारी रखा. कोलकाता में जिन 127 सीटों पर उसने चुनाव लड़ा, उनमें से 47 पर ऐसे उम्मीदवार थे जो रेड वॉलंटियर्स थे.
मोहम्मद सलीम कहते हैं, “हमने अपनी पार्टी में आमूल-चूल परिवर्तन किया है. हमारे पास संगठन के सभी स्तरों पर युवा चेहरे हैं. हमने विधानसभा और पंचायत चुनावों के दौरान युवा चेहरों को मैदान में उतारा और लोकसभा चुनाव में भी ऐसा ही कर रहे हैं. मीडिया को वामपंथ की तत्कालीन समझ के आधार पर धारणा बनाना बंद करना होगा,”
‘सोशल मीडिया का नैतिक उपयोग’
जब सीपीआई (एम) ने मार्च में अपना एआई एंकर समता लॉन्च किया, तो वाम मोर्चे के लोगों सहित कई लोगों पर इसका प्रभाव दिखा. और सिर्फ एआई ही नहीं, बल्कि एक सोशल मीडिया टीम जिसमें ग्राफिक डिजाइनर और कंटेंट क्रिएटर शामिल हैं, लोगों के साथ पार्टी के ऑनलाइन जुड़ाव को बढ़ावा देने के लिए 24/7 काम करती है. इसकी नींव 2019 में रखी गई थी जब अपनी सोशल मीडिया टीम के लिए स्वयंसेवकों की तलाश में एक डिजिटल सीपीआई (एम) अभियान शुरू किया गया था.
प्रथम दृष्टया, सीपीआई (एम) इसे “सोशल मीडिया का नैतिक उपयोग” कहती है. एक ऐसी पार्टी के लिए जिसने 1970 के दशक में कंप्यूटर की शुरुआत के विरोध में यूनियनों का समर्थन किया था, उसके लिए टेक्नॉलजी को अपनाना कभी आसान काम नहीं था.
हलीम ने इस कदम को “भूल” बताया. अनुभवी अभिनेता नसीरुद्दीन शाह की भतीजी आगे कहती हैं, “शुरुआत में, ऐसी चर्चाएं थीं कि कंप्यूटर से नौकरियां जा सकती हैं, लेकिन उनका हृदय परिवर्तन हुआ, और जानकारी बढ़ने के साथ चीजों को स्वीकार करना आता है और वामपंथी ने समय रहते इसे ठीक कर दिया. यदि आप मुख्यमंत्री के रूप में बुद्धदेव भट्टाचार्जी के कार्यकाल को देखें, तो सभी सड़कें, फ्लाईओवर और आईटी कंपनियां इन्हीं के समय में आईं,”
परिवर्तन भी आसान नहीं रहा है. सोशल मीडिया टीम के एक सदस्य ने अफसोस जताते हुए कहा, “वे अभी भी इस विचार पर अड़े हुए थे कि सीपीआई (एम) को टेक्नॉलजी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए और व्यक्तिगत स्तर पर लोगों तक पहुंचने पर ध्यान देना चाहिए. हमने 2015 में अपने सोशल मीडिया पेज बनाए, लेकिन हम उस पर ऐक्टिव नहीं थे क्योंकि पार्टी अभी भी इसे लेकर निश्चित नहीं थी कि सोशल मीडिया का प्रयोग करना चाहिए या नहीं,”
सीपीआई (एम) डिजिटल का सुपरविजन करने वाले अबिन मित्रा का कहना है कि कई ट्रेनिंग सेशन के बाद, यह स्पष्टता आई कि जनता तक पहुंचने के लिए सोशल मीडिया एक महत्वपूर्ण उपकरण है.
वर्तमान में, सीपीआई (एम) डिजिटल के 30 वॉलंटियर्स हैं जो इसके मुख्य कार्यालय में काम करते हैं और 23 जिलों में इसकी कई टीमें हैं जिनमें अन्य 1 लाख वॉलंटियर्स हैं. पार्टी का कहना है कि ये वॉलंटियर्स वैचारिक रूप से पार्टी के प्रति झुके हुए हैं और इन्हें केवल यात्रा भत्ता दिया जाता है.
राजनीतिक विश्लेषक राहुल मुखर्जी का कहना है कि जब तक पार्टी चुनावों के प्रति अपना दृष्टिकोण नहीं बदलती, तब तक नए चेहरों को मैदान में उतारने, लोकप्रिय जिंगल बजाने और मजाकिया लाइनें पोस्ट करने से कोई फायदा नहीं होगा. “यह नई बोतल में पुरानी शराब की तरह है. किसी विशेष चुनाव के लिए असली विरोधी या दुश्मन की पहचान करने और उनके कोर बेस को पूरा करने वाली कहानी बुनने में वामपंथियों की विफलता के परिणामस्वरूप भीड़ हो सकती है, लेकिन यह वोटों में तब्दील नहीं होगी.
और अब नौशाद अली के नेतृत्व वाली आईएसएफ के अकेले चुनाव लड़ने से, मुस्लिम वोटों को विभाजित करने का सीपीआई (एम) का दांव गड़बड़ा गया है. मुखर्जी कहते हैं, “वाम मोर्चे ने 2021 में आईएसएफ के साथ प्रयोग करने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे. इसने जमीनी स्तर पर बंगाली भाषी मुसलमानों के बीच विश्वसनीय चेहरों की कमी को भी उजागर किया. गठबंधन उन मुद्दों की पहचान करने और उनका समाधान करने में विफल रहा जो लक्ष्य समूह के लिए सबसे ज्यादा मायने रखते थे,”
मोहम्मद सलीम ने उस पर चर्चा में करने से इनकार कर दिया. उन्होंने दावा किया, “गठबंधन दिन की राजनीतिक वास्तविकताओं के आधार पर बदलते हैं. कांग्रेस ने साफ कर दिया कि वह बीजेपी और टीएमसी के खिलाफ है, तभी सीटों का समायोजन हुआ. आईएसएफ ने इसका हिस्सा नहीं बनने का फैसला किया.”
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