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Thursday, 21 November, 2024
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UP में जाट-मुस्लिम एकता को देखते हुए किसानों और जातिगत समीकरणों को साधने में लगी BJP

किसानों का विरोध प्रदर्शन जमीनी स्तर पर जाटों और मुसलमानों को एक साथ जोड़ रहा है, जिससे एक नाजुक लेकिन महत्वपूर्ण एकता कायम हो रही है जो उत्तर प्रदेश की सत्ता में लौटने के भाजपा के प्रयासों को कमजोर कर सकती है.

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नई दिल्ली: केंद्र की तरफ से लागू किए गए विवादास्पद कृषि कानून पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के चुनावी गणित को बिगाड़ते नज़र आने लगे हैं.

मुजफ्फरनगर में रविवार को एक बड़ी किसान महापंचायत में इन कानूनों का विरोध करने के लिए गुर्जरों के साथ जाट और मुस्लिम भी जुटे.

किसान आंदोलन ने जाटों और मुसलमानों को भाजपा के खिलाफ खड़े होने का एक साझा कारण दिया है और वे 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों की कड़वाहट को भुलाने लगे हैं.

अधिकारियों के अनुमान के मुताबिक, महापंचायत में तीन से चार लाख किसानों ने भाग लिया और इस संख्या ने भाजपा के चुनाव रणनीतिकारों को इस क्षेत्र में अपनी संभावनाओं के बारे में फिर से सोचने को मजबूर कर दिया है, जहां पार्टी पारंपरिक रूप से कमजोर ही रही है.

उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने इस पर पलटवार में महापंचायत की तुलना दिल्ली स्थित शाहीन बाग में सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के विरोध से करते हुए कहा कि यह संख्या बढ़ाने वाले कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के समर्थक हैं.

लेकिन भाजपा 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले मतदाताओं के इस नए समीकरण को हल्के में नहीं ले रही है.

2019 के आम चुनावों में छह लोकसभा सीटें हारने का जिक्र करते हुए राज्य के एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने कहा, ‘और यह 2016 के सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट हवाई हमलों के बाद राष्ट्रवाद समर्थक लहर के बाद हुआ! मुजफ्फरनगर में हमारे नेता संजीव बालियान की जीत का अंतर केवल 5,000 था. यह बहुत ही कम था. जाटों और मुसलमानों के बीच बढ़ती दोस्ती और किसानों की नाराजगी पश्चिमी यूपी में हमें नुकसान पहुंचा सकती है.’

पार्टी ने महापंचायत के अगले ही दिन किसानों के प्रति अपनी भावनाएं जाहिर करने के लिए एक मीडिया सम्मेलन आयोजित किया और उन्हें ‘अन्नदाता’ बताया. पार्टी नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से किसान कल्याण के लिए किए गए कार्यों के बारे में भी बताया.

केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी की बेटी की शादी के रिसेप्शन के मौके पर कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने भी किसानों का बोझ हल्का करने के लिए उठाए गए कदमों- पीएम सम्मान निधि, यूरिया की कीमतें घटाने और समस्याएं दूर करने के लिए लगातार मंथन- के लिए सरकार की तारीफ की.

पार्टी सूत्रों ने बताया कि भाजपा के रणनीतिकार अब गन्ने के दाम बढ़ाने जैसी योजनाओं और अधिक किसान पंचायतें आयोजित करके किसानों को लुभाएंगे.

पार्टी दलित और पिछड़ी जातियों के बीच ध्रुवीकरण की कवायद जारी रखते हुए छोटे जाट किसानों को लामबंद करने की कोशिश भी कर रही है. इसका उद्देश्य क्षेत्र पर समाजवादी पार्टी (सपा) और राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) की पकड़ खत्म करना है.

ऊपर उद्धृत नेता किसानों के साथ नए सिरे से बातचीत शुरू करने के पक्षधर तो हैं लेकिन उन्होंने दोहराया कि तीन कृषि कानून- आंदोलनकारी किसानों और केंद्र के बीच टकराव का कारण- निरस्त नहीं किए जाएंगे. कैराना से भाजपा सांसद प्रदीप कुमार की राय भी यही है. उन्होंने कहा, ‘हमें किसानों के साथ बातचीत के सभी चैनल खोलने चाहिए.’

हरियाणा के करनाल और पंजाब में भी किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन भाजपा को इसकी ज्यादा परवाह नहीं है क्योंकि हरियाणा विधानसभा चुनाव अभी दूर है जबकि पंजाब में पार्टी का ज्यादा कुछ दांव पर नहीं है.


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किसान आंदोलन- एक एकजुट ताकत

पश्चिमी यूपी में जाट और मुसलमानों का पुराना और सशक्त गठबंधन एक बार भी एकजुट होने से भाजपा के लिए इसे साधना कुछ टेढ़ी खीर हो गया है. किसान आंदोलन के कारण बना माहौल दोनों समुदायों के बीच दूरियां मिटाता नज़र आ रहा है.

भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार और पार्टी दोनों ही किसानों के बजाये विपक्षी नेताओं पर ज्यादा निशाना साधते दिख रही हैं.

जाट बहुल क्षेत्र पश्चिमी यूपी में भाजपा की योजना गन्ने की कीमत बढ़ाने की है क्योंकि किसान नेता राकेश टिकैत की एक बड़ी मांग इसे 315 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 360 रुपये करने की है.

एक वरिष्ठ केंद्रीय नेता ने दिप्रिंट को बताया, पश्चिमी यूपी के किसानों की नाराजगी पंजाब से अलग है. पंजाब में बड़ी मंडियां हैं और विरोध इस आशंका के कारण किया जा रहा है कि ये बंद हो सकती हैं. लेकिन सरकार यूपी में गन्ने की कीमतें बढ़ाकर जाटों को फिर अपने खेमे में ला सकती है. और, यहां छोटे किसान बकाया न मिलने के कारण नाराज हैं.’

उन्होंने कहा कि योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली सरकार चीनी मिलों को बकाया भुगतान करने के लिए पहले ही कह चुकी है.

भाजपा की मुश्किलें इसलिए भी बढ़ गई हैं क्योंकि उसके पास अब कल्याण सिंह, जिनका इसी अगस्त में निधन हुआ, और हुकुम सिंह, जिनका 2018 में निधन हो गया था, जैसे दिग्गज नेता नहीं रह गए हैं. इन नेताओं का पश्चिमी यूपी में जाटों और अन्य किसान समुदायों के बीच गहरा असर था.

प्रधानमंत्री मोदी ने कल्याण सिंह की तेरहवीं मनाकर और उनके नाम पर सड़कों और एक मेडिकल कॉलेज का नामकरण करके लोध समुदाय को साधने की कोशिश की है.

भाजपा के अंदरूनी सूत्रों का मानना है कि किसानों के साथ नए सिरे से बातचीत नहीं होने की स्थिति में उन्हें इस प्लान बी की जरूरत है. उनका कहना है कि राकेश टिकैत की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं और किसानों के बीच अच्छा दखल रखने वाले रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के साथ बातचीत अब लाभदायक नहीं हो सकती.

पार्टी के एक नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, ‘आगे और बातचीत का समय लगभग खत्म हो गया है क्योंकि समाजवादी पार्टी, रालोद और कांग्रेस खुले तौर पर किसानों का समर्थन कर रहे हैं. हम इस बात पर जोर देंगे कि सभी राजनीतिक दलों का असली एजेंडा केवल मोदी को हराना है. प्रधानमंत्री रैलियों में किसानों के प्रति सम्मान दर्शाना तो जारी रखेंगे. लेकिन वह उन लोगों पर निशाना साधेंगे जो उनके नाम पर राजनीति करते हैं. यही हमारी रणनीति होगी.’

पश्चिमी यूपी के मेरठ से भाजपा सांसद राजेंद्र अग्रवाल ने दिप्रिंट को बताया, ‘मोदी सरकार ने किसानों के साथ 11 दौर की बातचीत की. लेकिन दुर्भाग्य से आंदोलन गुमराह लोग चला रहे हैं. विपक्षी दल किसी भी कीमत पर मोदी को हराना चाहते हैं. उनके कार्यकर्ताओं ने किसान आंदोलन में घुसपैठ कर ली है.’


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मायावती के जनाधार में सेंध

पार्टी सूत्रों ने बताया कि दूसरी रणनीति दलित वोटों के ध्रुवीकरण की है. जाटवों को छोड़कर अन्य दलित जातियां पिछले कुछ चुनावों से भाजपा का समर्थन कर रही है.

मायावती की बहुजन समाज पार्टी को पिछले विधानसभा चुनाव में 19 फीसदी वोट मिले थे लेकिन भाजपा ज्यादातर गैर-जाटव दलित जातियों का वोट हासिल करने में सफल रही थी. अब मायावती की घटी सक्रियता और भाजपा की तरफ से हिंदुत्व पर जोर दिए जाने के बीच पार्टी की कोशिश आखिरी किले- मायावती के वोट बैंक जाटवों को ध्वस्त करने की है.

इसलिए जाट-मुस्लिम एकता के जवाब में भाजपा की रणनीति दलित और ओबीसी के साथ ब्राह्मण, राजपूत और बनिया जैसी सवर्ण जातियों को भी भुनाने की है. यह बड़े जाटों के खिलाफ छोटे किसानों को खड़ा करने की कोशिश में भी है.

हालांकि, जाट-मुस्लिम रिश्तों में मजबूती आई है लेकिन ये अभी भी नाजुक बने हुए हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में 71 फीसदी जाटों ने भाजपा को वोट दिया था. 2019 में यह आंकड़ा बढ़कर 91 फीसदी हो गया.

हालांकि, मुजफ्फरनगर दंगों का तात्कालिक प्रभाव इतना गंभीर था कि दिवंगत रालोद प्रमुख चौधरी अजीत सिंह को भी लगातार हार का सामना करना पड़ा- पहले बागपत और फिर मुजफ्फरनगर से.

2012 में भाजपा ने पश्चिमी यूपी की 110 में से केवल 38 सीटें हासिल की थी और 2017 में उसकी सीटों की संख्या बढ़कर 88 पर पहुंच गई. इसकी वजह यह थी कि जाट 2013 के दंगों के बाद मुसलमानों के खिलाफ गए और उन्होंने भाजपा को वोट दिया.

मौजूदा हालात में अखिलेश यादव की सपा अपने 11 फीसदी कोर वोटर यादवों और 18 फीसदी मुसलमानों के साथ जाटों और अन्य ओबीसी का वोट भी अपने खाते में जोड़ सकती है.

रालोद भी सपा के साथ ही है जो जाट-मुसलमानों के दम पर पश्चिमी यूपी में कम से कम दो दर्जन सीटें हासिल करने में सक्षम हो सकती है. रालोद नेता जयंत चौधरी भाईचारा सम्मेलनों के जरिए इस एकता को लगातार मजबूत करने में जुटे हैं.

रालोद की मदद के लिए यहां जयंत चौधरी के दादा और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की विरासत है, जो जाटलैंड के सबसे बड़े नेता थे और जिन्हें जाटों, मुसलमानों, यादवों (अहीर), गुर्जरों और राजपूतों (एमएजेजीएआर) का समर्थन हासिल था.

2014 में नरेंद्र मोदी ने चरण सिंह की विरासत को याद करते हुए पश्चिमी यूपी के मेरठ से अपने चुनाव अभियान की शुरुआत की थी. ध्रुवीकरण की मदद से वह जाटलैंड में बड़ी सेंध लगाने में कामयाब रहे.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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