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Saturday, 23 November, 2024
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यहां पे सब शांति-शांति है! नया कानून आने के बाद से आपसी टकराव से क्यों बच रही हैं केजरीवाल और मोदी सरकार

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अधिनियम, 2021 को इस साल अप्रैल में अधिसूचित किया गया था. यह कानून साफ तौर पर कहता है कि दिल्ली में 'सरकार' का अर्थ है 'लेफ्टिनेंट-गवर्नर'.

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नई दिल्ली: संसद द्वारा एक नए कानून, जो साफ तौर पर कहता है कि दिल्ली में ‘सरकार’ का अर्थ ‘लेफ्टिनेंट-गवर्नर’ (उप- राज्यपाल) है, को पारित किए लगभग नौ महीने हो गए हैं और यह केंद्र द्वारा नियुक्त लेफ्टिनेंट-गवर्नर को राजधानी के दिन-प्रतिदिन के कार्यों के बारे में व्यापक अधिकार देता है.

लेफ्टिनेंट-गवर्नर (एल-जी) और दिल्ली सरकार के बीच के विषम शक्ति संतुलन के बावजूद, पिछले नौ महीनों में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की सत्ता के इन दोनों हितधारकों ने एक-दूसरे के काम-काज में बहुत कम हस्तक्षेप किया है और कुछ अपवादों को छोड़कर आपस में टकराव से परहेज भी कर रहे हैं. वरिष्ठ अधिकारियों ने इसे दोनों पक्षों की ओर से उठाया गया ‘रणनीतिक कदम’ बताया.

तो क्या है इसका कारण? आम आदमी पार्टी (आप) के सूत्रों का इस बारे में कहना है कि अरविंद केजरीवाल सरकार अब बिना किसी और परेशानी के विकास और जन कल्याण के मोर्चे पर काम करना चाहती है, खासकर अगले साल होने वाले दिल्ली नगर निगम चुनावों से पहले. इसलिए वह टकराव में अपने लिए कोई खास फायदा नहीं देखती है.

इस बीच, केंद्र सरकार के अधिकारियों ने बताया कि केंद्र ने आप और अन्य विपक्षी दलों को इस नए कानून के बारे में अपना विरोध फिर से शुरू करने से रोकने के लिए अकसर एलजी के पास मौजूद समान्य अनुपात से अधिक शक्ति का उपयोग करने से परहेज किया है. विपक्षी दलों का इस कानून के बारे में कहना है कि यह निर्वाचित सरकार को उसकी शक्तियों से वंचित करता है.


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क्या कुछ बदला है इस कानून के तहत

केंद्र सरकार ने 1991 के अधिनियम में संशोधन करने के लिए 15 मार्च को लोकसभा में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) विधेयक, 2021 पेश किया.

इस बिल में कहा गया है कि दिल्ली में ‘सरकार’ का मतलब सभी क़ानूनी/विधायी पहलुओं के संदर्भ में उप-राज्यपाल होगा, और यह दिल्ली सरकार के लिए किसी भी तरह की कार्यकारी कार्यवाही से पहले उप-राज्यपाल से इसके बारे में राय लेना अनिवार्य बनाता है.

इस कानून में कहा गया है ‘… मंत्रिपरिषद या किसी एक मंत्री के निर्णय के अनुसरण में किसी भी तरह की कोई कार्यकारी कार्यवाही करने से पहले, सरकार, राज्य सरकार, उपयुक्त सरकार, लेफ्टिनेंट गवर्नर, प्रशासक या मुख्य आयुक्त, जैसा भी उपयुक्त हो, की शक्तियों का प्रयोग करने के लिए अथवा राजधानी में लागू कानून के लिए संविधान के अनुच्छेद 239AA के खंड (4) के प्रावधान के तहत लेफ्टिनेंट-गवर्नर की राय ऐसे सभी मामलों पर प्राप्त की जाएगी, जो सामान्य या विशेष आदेश द्वारा, लेफ्टिनेंट गवर्नर द्वारा निर्दिष्ट किए जा सकते हैं.’

इसने दिल्ली के दिन-प्रतिदिन के प्रशासन से संबंधित विधायी मामलों के लिए भी एल-जी की मंजूरी को आवश्यक बना दिया है.

विधेयक को निचले सदन (लोकसभा) में 22 मार्च को और ऊपरी सदन (राज्यसभा) में 24 मार्च को पारित किया गया था. अंततः इसे 29 अप्रैल को एक अधिनियम के रूप में अधिसूचित किया गया था.

उस वक्त आप ने इस कानून का कड़ा विरोध किया था. पार्टी सूत्रों का कहना था कि यह लगातार दूसरी बार प्रचंड बहुमत के साथ दिल्ली चुनाव जीतने के बावजूद उनकी संभावनाओं को सीधे तौर पर प्रभावित करता है. अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी जैसे विपक्षी नेता भी आप के समर्थन में खड़े हुए थे और इस कानून को लाने के लिए केंद्र सरकार की आलोचना की थी.

दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने यहां तक कहा था कि, इस कानून के साथ, केंद्र ने डॉ बी.आर. अम्बेडकर की दूरदृष्टि (विजन) को कुचल डाला है.

उन्होंने कहा, ‘बाबासाहेब डॉ बी.आर. आम्बेडकर ने संविधान में यह कल्पना की थी कि जन कल्याण और विकास के लाभों को प्राप्त करने के लिए लोगों को अपनी सरकार चुनने का अधिकार सुनिश्चित किया जाए. उन्होंने इन चुनी हुई सरकारों को संवैधानिक सीमाओं के भीतर लोगों को सभी तरह के कल्याण और विकास लाभ प्रदान करने के लिए पर्याप्त अधिकार भी दिए.’

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि केंद्र में आज हमारी ऐसी सरकार है जिसने बाबा साहेब के इस विजन को कुचल दिया है. वे एक लोकतंत्र के तहत संविधान और निर्वाचित सरकार के अधिकारों के प्रति कम से कम सम्मान रखते हैं. उन्होंने सिर्फ अपनी तानाशाही स्थापित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के फैसलों की जानबूझकर गलत व्याख्या की है. संविधान और अंबेडकर के दृष्टिकोण के साथ इस तरह का विश्वासघात शर्मनाक है.’


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पिछले नौ महीने में आये टकराव के तीन बिंदु

वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा कि इस कानून के पारित होने के बाद से दोनों पक्षों के बीच टकराव के तीन प्रमुख मामले सामने आए हैं.

सबसे पहले, केंद्र सरकार ने एलजी अनिल बैजल के माध्यम से, दिल्ली सरकार को घर-घर जाकर राशन के वितरण की अपनी महत्वाकांक्षी योजना को लागू नहीं करने दिया.

दूसरे, उपराज्यपाल ने 26 जनवरी 2020 को किसानों द्वारा अब निरस्त किये जा चुके तीन कृषि कानूनों के विरोध में आयोजित एक रैली के दौरान भड़की हिंसा से संबंधित मामलों पर बहस करने के लिए दिल्ली सरकार द्वारा नियुक्त सरकारी अभियोजकों को बर्खास्त कर दिया.

तीसरा, उपराज्यपाल ने अपने द्वारा गठित एक समिति की सिफारिशों के आधार पर ‘प्रक्रियात्मक चूक’ का हवाला देते हुए आप सरकार को दिल्ली परिवहन निगम द्वारा किये गए 3,412 करोड़ रुपये के 12 साल के एक वार्षिक रखरखाव अनुबंध को रद्द करने के लिए मजबूर किया.

टकराव से बनायी दूरी

साथ ही ऐसे भी कई उदाहरण आए हैं जहां दोनों पक्षों ने उन मुद्दों पर बचाव की मुद्रा (बैकफुट) में रहने का विकल्प चुना है, जिनपर वे पहले से ही उलझे हुए थे.

आप सरकार और उप-राज्यपाल के बीच फाइलों को उप-राज्यपाल के कार्यालय में भेजने को लेकर वर्षों से खींचतान चल रही है. खासकर ऐसे मामलों में जो अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली दिल्ली कैबिनेट द्वारा लिए गए फैसलों से संबंधित हो. इस मसले को लेकर दोनों पक्षों ने कोर्ट का रुख भी किया था.

जुलाई 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा कि दिल्ली का उपराज्यपाल इस केंद्र शासित प्रदेश की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को बात सुनने के लिए बाध्य है और सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि से संबंधित मामलों को छोड़कर स्वतंत्र रूप से कोई कार्यवाई नहीं कर सकता है. इस फैसले ने इस झगड़े को काफी हद तक खत्म कर दिया, मगर यह पूरी तरह से समाप्त भी नहीं हुआ है.

नया कानून मुख्य रूप से सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलट देता है. इसी वजह से दिल्ली सरकार ने इस कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.

लेकिन एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने अपना नाम न छापने की शर्त पर कहा कि, ‘अब आप सरकार वर्तमान में बिना किसी विरोध के सभी फाइलें एलजी को भेजती है. वे अदालती कार्यवाही को अपना काम करने दे रहे हैं, लेकिन इस तरह के दिन-प्रतिदिन के मुद्दों पर अतिरिक्त समय और ऊर्जा खर्च नहीं कर रहे हैं.’

उप-मुख्यमंत्री सिसोदिया ने कहा, ‘एक चुनी हुई सरकार के रूप में, आप सरकार का पूरा ध्यान यह सुनिश्चित करने पर है कि इसके सुशासन और कल्याणकारी उपायों का लाभ दिल्ली के प्रत्येक निवासी तक पहुंचे. इसलिए, अपनी ओर से हम यह सुनिश्चित करेंगे कि हम ऐसी रणनीति अपनाएं और केंद्र सरकार के साथ इस तरह से जुड़ें कि हम दिल्ली के लोगों की सेवा में उस तरह से विफल न हों, जैसा कि उन्होंने किया है.’

एलजी भी एक तरह से रणनीतिक रूप से बैकफुट पर रहे हैं. वरिष्ठ अधिकारियों ने इसके उदाहरण के तौर पर दिल्ली सरकार की नई उत्पाद नीति का हवाला दिया – जिससे सरकार को अपना राजस्व बढ़ाने में मदद मिलेगी. सरकार ने सितंबर में नई नीति के तहत आबकारी जोनों की नीलामी से करीब 8,900 करोड़ रुपये कमाए.

अपना नाम सामने न आने की शर्त पर एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘पहले, सिर्फ तकनीकी आधार पर नीतियों और योजनाओं के लिए – अनुमोदन पर होने वाला टकराव बहुत आम था. सबसे प्रमुख उदाहरण सीसीटीवी योजना है, जिसके लिए आप नेताओं को राज निवास में धरना देने के लिए मजबूर कर दिया गया था.’

विदित हो कि मई 2018 में, केजरीवाल अपने कैबिनेट सहयोगियों और आप के कई विधायकों के साथ, उप-राज्यपाल के कार्यालय के पास तब धरने पर बैठ गए थे जब उप-राज्यपाल ने सीसीटीवी कैमरे लगाने की उनकी एक योजना के बारे में मतभेद के बाद उनसे मिलने से इनकार कर दिया था. इस महीने की शुरुआत में केजरीवाल ने इस योजना के दूसरे चरण की घोषणा की थी और एक अधिकारी ने कहा कि, ‘एल-जी की ओर से इस बार कोई विरोध नहीं हुआ.’

इस अधिकारी ने बताया, ‘(नया) कानून एलजी को उन विधायी समितियों को खारिज करने की अनुमति देता है जो वायु प्रदूषण, दिल्ली दंगों आदि से संबंधित प्रशासनिक मुद्दों को सुनते हैं और जो उनकी मंजूरी के बिना गठित किए गए थे. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया है.’

हालांकि, भाजपा नेताओं ने इन समितियों को यह कहते हुए चुनौती दी थी कि संसद में और केंद्र सरकार द्वारा पहले ही इसी तरह के पैनल स्थापित किए जा चुके हैं.

आप सरकार ने भी सिविल सर्वेन्ट्स (प्रशासनिक अधिकारियों) से जुड़े मामलों में एक सीमा से अधिक हस्तक्षेप करने से परहेज किया है. इस साल की शुरुआत में, दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल ने बीच पत्रों का एक संक्षिप्त आदान-प्रदान हुआ था जिसमें दिल्ली सरकार ने दावा किया था कि उपराज्यपाल बिना उसकी जानकारी के सिविल सर्वेन्ट्स की बैठक बुला रहे हैं. उस बारे में वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘लेकिन एलजी द्वारा इस आरोपों का जवाब दिए जाने के बाद आप ने इस मामले को और आगे नहीं बढ़ाने का फैसला किया. वह एक समझदारी भरा कदम था. इसी तरह, दिल्ली सरकार ने पिछले कुछ महीनों में नौकरशाहों के तबादले का विरोध भी नहीं किया.’

एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि न केवल कार्यकारी और प्रशासनिक बल्कि राष्ट्रीय राजधानी के शासन से संबंधित विधायी मामलों पर भी सामान्य अनुपात से कहीं अधिक शक्ति होने के बावजूद, केंद्र सरकार ने उपराज्यपाल के माध्यम से ऐसे कई मामलों में हस्तक्षेप करने से परहेज किया है, जहां इसे कोई तात्कालिक आवश्यकता न दिखी हो.

इस अधिकारी ने कहा, ‘विपक्षी दल इस कानून को असंवैधानिक बताते हुए इसका विरोध कर रहे हैं. जरूरत पड़ने पर एल-जी ने हस्तक्षेप किया. लेकिन बहुत अधिक हस्तक्षेप से अनावश्यक रूप से शोर उत्पन्न होता और इससे आप और विपक्ष के अन्य दलों को फायदा मिलता. इसलिए, यह कूटनीति निश्चित रूप से रणनीतिक भी है.’

दूसरी तरफ, आप के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि शुरुआती हो-हल्ले के बाद आप ने भाजपा से मुकाबला करने पर अपना ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया, मगर इसने दिल्ली के शासन से संबंधित मामलों पर उप-राज्यपाल के साथ टकराव से परहेज किया.

इस नेता ने कहा, ‘इस तरह के टकरावों में कोई बहुत अधिक राजनीतिक लाभ नहीं होता है. आप सरकार के पहले कार्यकाल में बहुत ज्यादा संघर्ष हुआ था, लेकिन हम फिर भी एक और चुनाव जीत गए. मगर हमने यह भी महसूस किया है कि इस तरह के टकरावों में बहुत अधिक समय और ऊर्जा लगती है और यह हमें विकास कार्यों में अपना पूरा समय लगाने से रोकते हैं.‘

उन्होंने कहा, ‘दिल्ली में अगले कुछ महीनों में नगर निगम के चुनाव होने हैं और हम इस संबंध में कोई जोखिम नहीं उठा सकते. लोग चाहते हैं कि अंततः किसी भी तरह से उनका काम हो जाए. हमें इसे ही सुनिश्चित करने के लिए रणनीति बनानी होगी.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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