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Monday, 4 November, 2024
होमराजनीतिबिहार चुनावआंकड़े बताते हैं- ओवैसी की AIMIM 'सेक्युलर' पार्टियों के वोट में सेंध लगाती है पर BJP को जिताने के लिए यह काफी नहीं

आंकड़े बताते हैं- ओवैसी की AIMIM ‘सेक्युलर’ पार्टियों के वोट में सेंध लगाती है पर BJP को जिताने के लिए यह काफी नहीं

ओवैसी की AIMIM ने 2014 और 2019 महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों, 2015 बिहार चुनाव, 2017 यूपी चुनावों और 2019 झारखंड चुनावों में 'धर्मनिरपेक्ष' पार्टियों के वोटों में कोई खास सेंध नहीं लगाया है.

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नई दिल्ली: असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन (एआईएमएम) ने अगले महीने के बिहार विधानसभा चुनाव में लगभग 50 सीटों पर चुनाव लड़ने के अपनी तैयारी की घोषणा की है- ये वहां की कुल सीटों का पांचवां हिस्सा हैं- पिछले विधानसभा चुनावों में बड़ी परायज का सामना करने के बावजूद वह राज्य की राजनीति में एक मुकाम बनाने की उम्मीद कर रही है.

लेकिन ओवैसी की घोषणा के तुरंत बाद, विपक्ष राष्ट्रीय जनता दल (राजग) के नेताओं ने प्रतिक्रिया दी, जिन्होंने तेलंगाना आधारित पार्टी ‘भाजपा की बी-टीम’ होने, और ‘धर्मनिरपेक्ष’ वोटों को बांटकर बाद की जीत में मदद करने का आरोप लगाया.

यह पहली बार नहीं है जब ओवैसी पर सत्तारूढ़ दल की बी-टीम होने का लेबल लगाया गया है. पूर्व कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी सहित कई विपक्षी नेताओं ने उनके खिलाफ पहले इसी तरह के आरोप लगाए हैं. राहुल ने 2018 में एआईएमआईएम पर हमला बोला था और कहा कि ‘इसकी भूमिका एंटी बीजेपी वोट को बांटना है.’

जब भी AIMIM नए राज्य में प्रवेश की कोशिश करता है, तब हर बार यह आरोप बढ़ जाता है.

हालांकि, महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में पिछले छह वर्षों में एआईएमआईएम द्वारा लड़ी गई सीटों के विश्लेषण से पता चलता है कि इस सिद्धांत का थोड़ा ही वजूद है कि पार्टी तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष’ दलों के वोटों में सेंधमारी करती है या भाजपा की जीत में निर्णायक भूमिका निभाती है.


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‘धर्मनिरपेक्ष’ दलों को नुकसान पहुंचाने का झूठ

एआईएमआईएम ने 2014 में महाराष्ट्र चुनावों में पहली बार तेलंगाना|आंध्र प्रदेश के बाहर विधानसभा चुनाव में हिस्सा लिया था, जहां 288 सीटों वाली विधानसभा में 24 उम्मीदवार उतारे थे.

चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, पार्टी महज दो सीटें ही जीत पाई- औरंगाबाद सेंट्रल, जहां एआईएमआईएम के इम्तियाज जलील ने शिवसेना के प्रदीप जायसवाल को और बाइकुला (भायखल्ला) जहां वारिस पठान ने भाजपा के मधु दादा चव्हाण को हराया था.

पार्टी ने केवल दो सीटों- नांदेड़ दक्षिण और भिवंडी पश्चिम में ‘धर्मनिरपेक्ष’ दलों के वोट काटे. इन सीटों पर, शिवसेना और बीजेपी के ‘धर्मनिरपेक्ष’ दलों के उम्मीदवारों से जीत का अंतर AIMIM को पड़े वोटों से कम था.

2019 के महाराष्ट्र के चुनावों में, AIMIM ने 44 सीटों पर चुनाव लड़ा- 2014 की तुलना में लगभग दोगुने पर. जबकि वहीं पार्टी अपनी दो सीटों को बरकरार रखने में नाकाम रही, दो नए निर्वाचन क्षेत्रों में जीती- शाह फारुख अनवर ने एक स्वतंत्र उम्मीदवार को हराकर धुले सीट जीती. जबकि मोहम्मद खलीक ने कांग्रेस प्रत्याशी को हराकार मालेगांव सेंट्रल की सीट.

पार्टी का वोट शेयर 2014 में 5 लाख मतों से बढ़कर 2019 में 7.5 लाख वोटों तक पहुंच गया.

Graphic: Ramandeep Kaur/ThePrint
रमनदीप कौर का ग्राफिक | दिप्रिंट

हालांकि, 2019 में शिवसेना या भाजपा का जीत का आंतर एआईएमआईएम को पड़े सात निर्वाचन क्षेत्रों- बालापुर, नागपुर सेंट्रल, नांदेड़ उत्तर, पुणे छावनी, सांगोला, चंडीबली और पाइथन में डाले गए मतों से कम था.

लगभग सभी अन्य निर्वाचन क्षेत्रों में, जहां एआईएमआईएम ने चुनाव लड़, दो चीजें हुईं- एक गैर-भाजपा/गैर-शिवसेना पार्टी, कांग्रेस या एनसीपी जैसी पार्टियां जीतीं, यह कहते हुए कि एआईएमआईएम ने ‘धर्मनिरपेक्ष’ पार्टी की जीत में बाधा नहीं पहुंचाया, या फिर एआईएमआईएम को पड़े वोट से भाजपा/शिवसेना के जीत का मार्जिन अधिक था.

एआईएमआईएम ने उत्तर प्रदेश के 2017 का विधानसभा चुनाव भी लड़ा, राज्य की 403 सीटों में 38 पर उम्मीदवारों उतारे. पार्टी सभी सीटों पर खाली हाथ रही.

Graphic: Ramandeep Kaur/ThePrint
रमनदीप कौर का ग्राफिक | दिप्रिंट

जैसा कि 325 सीटों को साथ भाजपा को भारी जीत हासिल हुई, लिहाजा एआईएमआईएम पर फिर से राज्य में ‘सेक्युलर’ वोट को बांटने का आरोप लगा था. लेकिन आंकड़ों से पता चलता है कि 38 सीटों पर लड़ने वाली पार्टी ने 4 पर ही कुछ कर सकी- कांठ, टांडा, श्रावस्ती और गेंसारी- जहां भाजपा का जीत अंतर एआईएमआईएम को पड़े वोट से कम था.

एआईएमआईएम का बिहार, झारखंड की ‘सेक्युलर’ पार्टियों पर असर

एआईएमआईएम ने 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव भी लड़ा- सीमांचल क्षेत्र में, जहां काफी मुस्लिम आबादी है, पार्टी के सभी उम्मीदवार हार गए थे, जिनमें से केवल एक ही अपनी जमानत बचाने में सफल रहा.

पार्टी ने यहां भी ‘धर्मनिरपेक्ष’ पार्टियों के वोटों में सेंध नहीं लगाया, यहां छह में से पांच सीटों पर चुनाव लड़ा- किशनगंज, बैसी, अमोर, कोचधामन और रानीगंज- तत्कालीन कांग्रेस-आरजेडी-जीनता दल (संयुक्त) गठबंधन के सदस्यों ने जीत हासिल की थी. बलरामपुर, छठी सीट, जहां इसने उम्मीदवार मैदान में उतारा था, पर सीपीआई (एमएल) ने जीत दर्ज की.

Graphic: Ramandeep Kaur/ThePrint
रमनदीप कौर का ग्राफिक | दिप्रिंट

दिसंबर, 2019 में फिर से हिंदी पट्टी में अपना विस्तार करने के प्रयास में एआईएमआईएम ने झारखंड विधानसभा चुनाव में 81 सीटों में से 16 पर चुनाव लड़ा, लेकिन एक भी सीट नहीं जीत पाई.

झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस-आरएजेडी गठबंधन ने जहां 47 सीटों का आरामदायक बहुमत हासिल किया, जबकि  एआईएमआईएम पर अभी भी गैर-भाजपा वोटों को काटने, ‘भाजपा के करीबी’ होने के आरोप लगे.

हालांकि, डेटा से पता चलता है कि एआईएमआईएम केवल दो सीटों- बिश्रामपुर और मांडू पर भाजपा के जीत के मार्जिन से अधिक वोट पाने में सक्षम हुई थी.

Graphic: Ramandeep Kaur/ThePrint
रमनदीप कौर का चित्रण | दिप्रिंट

विश्लेषकों का कहना है कि वोट कटिंग कोई स्पष्ट बाई प्रोडक्ट नहीं है

हालांकि, डेटा ये नहीं बताते हैं कि एआईएमआईएम ने वर्षों से किसी भी गैर-भाजपा पार्टी के नुकसान में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि वोट कटिंग कोई स्पष्ट बाई प्रोडक्ट नहीं है.

महाराष्ट्र के राजनीतिक विश्लेषक धवल कुलकर्णी ने कहा कि एआईएमआईएम कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में कांग्रेस / राकांपा के वोटों में कटौती करती है, लेकिन ‘भगवा’ पार्टियों के खिलाफ हुई वोट-कटिंग के कारण दूसरों को लाभ भी होता है – इसके बारे में उतनी बात नहीं होती है.

‘भाजपा और शिवसेना 2014 में गठबंधन पर सहमत नहीं थे, इसलिए दोनों दलों ने अपने स्वयं के उम्मीदवारों को मैदान में उतारा. तब, कुछ सीटों पर शिवसेना के भीतर भी मतभेद था, जिसके कारण पार्टी के कुछ सदस्य स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े. कुलकर्णी ने कहा कि इससे भगवा वोट बट गए और इससे एआईएमआईएम को प्रत्यक्ष लाभ हुआ.

एआईएमआईएम के महाराष्ट्र में आने के पांच साल बाद पार्टी ने 48 सीटों पर 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए प्रकाश अंबेडकर के वंचित बहुजन अघाड़ी (वीबीए) के साथ गठबंधन किया, लेकिन पार्टी ने केवल औरंगाबाद सीट पर महाराष्ट्र के अध्यक्ष इम्तियाज जलील को अपने उम्मीदवार के रूप में उतारा.

वीबीए सभी 47 सीटों पर हार गया, तब जलील ने शिवसेना के चंद्रकांत खैरे को हराया, जो 1999 से औरंगाबाद के सांसद थे.

जलील ने दिप्रिंट को बताया, ‘विधानसभा और लोकसभा चुनाव दोनों के लिए मेरी रणनीति सामान्य थी मैंने मुसलमानों से कहा कि आप कांग्रेस जैसे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों के लिए इतने लंबे समय से मतदान कर रहे हैं और फिर भी शिवसेना पिछले दो दशकों से (औरंगाबाद में) सत्ता में आ रही है. हमारे लिए मतदान करने का प्रयास करें और देखें कि क्या होता है.’

जलील की जीत ने एक महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत दिया – वह 15 साल में महाराष्ट्र से संसद के लिए चुने जाने वाले पहले मुस्लिम बन गए, इससे पहले पूर्व सीएम और दिवंगत बैरिस्टर ए.आर. अंतुले 2004 के चुनावों में रायगढ़ से जीते थे

वह 1980 में कांग्रेस के काजी सलीम के बाद औरंगाबाद निर्वाचन क्षेत्र से चुने जाने वाले पहले मुस्लिम सांसद बने, बावजूद इसके कि इस निर्वाचन क्षेत्र में 30 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी है.


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‘हक की भावना’

इस साल जनवरी में शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन के राज्य में सत्ता में आने के महीनों बाद एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने एक विवादास्पद बयान में कहा कि ‘अल्पसंख्यक तय करते हैं कि किसे हारना है और वे केवल उन (पार्टियों) को वोट देते हैं जो भाजपा को हरा सकती है.

जलील ने कहा कि पवार का यह बयान धर्मनिरपेक्ष दलों की अल्पसंख्यकों के प्रति मानसिकता को दर्शाता है.

विशेषज्ञों के अनुसार, एआईएमआईएम के आगे बढ़ने के लिए महाराष्ट्र उचित राजनीतिक मैदान है, जिसका कारण राज्य में पार्टियों द्वारा शोषित होने वाले मुसलमानों का जागरूक होना है.

कुलकर्णी ने कहा, ‘महाराष्ट्र के मुसलमानों में एक धारणा है कि यह वोटों के लिए शोषित हैं। यही कारण है कि समुदाय का एक वर्ग, विशेषकर युवा, उन्हें (ओवैसी) एक आदर्श के रूप में देखता है। यह पीढ़ी अपनी पहचान पर शर्मिंदा नहीं है और अपने नेताओं से जवाबदेही की मांग करती है.

उन्होंने कहा, ‘वे एक बैरिस्टर के रूप में ओवैसी की साख को देखते हैं। वे उन्हें संविधान से लगातार क्वोट करते हुए देखते हैं. ओवैसी कुछ के लिए आदर्श बन गए हैं.

सेंटर फॉर पॉलिसी एंड रिसर्च के एक शोध सहयोगी असीम अली ने कहा कि एआईएमआईएम के खिलाफ लगाए गए वोट काटने के आरोप धार्मिक अल्पसंख्यकों के वोटों पर धर्मनिरपेक्ष दलों द्वारा हक के अधिकार का सुझाव देते हैं.

अली ने दिप्रिंट को बताया, ‘बहुदलीय लोकतंत्र में इस तरह के आरोप अभिशाप की तरह होना चाहिए. अली ने कहा, नई पार्टियों के बढ़ने लिए अपने मुख्य क्षेत्रों के बाहर चुनाव लड़ना ही एकमात्र तरीका है, जो पार्टी को संगठन का निर्माण करने में मदद करता है, समय के साथ उनकी जीतने की संभावना को बढ़ाता है और नए राज्यों में एक विश्वसनीय गठबंधन भागीदार के रूप में उभरता है.

कांग्रेस पार्टी की, जो अक्सर इस तरह के आरोप लगाती है, 2019 के लोकसभा चुनावों में यूपी की सभी सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए आलोचना की गई थी और जिसकी वजह से सपा- बसपा को कम से कम आठ सीटों पर जीत मिली थी.

अली ने कहा, ‘कांग्रेस सही तर्क दे सकती है कि यूपी उनकी दीर्घकालिक रणनीति के लिए महत्वपूर्ण है और पार्टी संगठन को पुनर्जीवित करने के लिए सभी सीटों पर चुनाव लड़ना आवश्यक था. तब एआईएमआईएम के लिए भी यही सही होना चाहिए.’

वोट काटने का आरोप कभी-कभी मायावती की बीएसपी पर भी लगाया जाता है, जो दिल्ली, झारखंड, महाराष्ट्र और हरियाणा में हाल ही में चुनाव लड़ी और हार गई.

अली ने कहा, ‘लेकिन आरोप विशेष रूप धारदार होते हैं जब मुस्लिम पार्टियों के खिलाफ लगाए गए हो. यह इंगित करता है कि जहां कई पिछड़ी जातियों के लिए पिछड़ी जातियों के वोट देने का विचार कई दशकों से सामान्य हो गया है, एआईएमआईएम के लिए मतदान करने वाले मुसलमान अभी भी कई पर्यवेक्षकों की राजनीतिक संवेदनशीलता को ठेस पहुंचाते हैं.

उन्होंने कहा, ‘इसके अलावा, मतदान का यह तरीका आवश्यक रूप से सांप्रदायिक नहीं है अगर यह बहिष्कार और धार्मिक अपीलों के बजाय उचित प्रतिनिधित्व और संसाधनों की पहुंच के लिए समुदाय की भौतिक मांगों पर आधारित है.

हिंदी बाहुल्य क्षेत्रों में ओवैसी की अपील

एआईएमआईएम नेताओं के अनुसार, आगामी बिहार चुनाव लड़ने के लिए पार्टी की इच्छा राज्य के किशनगंज उपचुनाव में आश्चर्यजनक जीत से आयी है.

विधानसभा के लिए अक्टूबर 2019 के उप-चुनाव में, एआईएमआईएम के क़मरुल होदा ने 10,000 से अधिक वोटों से जीत हासिल की और कांग्रेस, जिसका सीट पर कब्जा था, को तीसरे स्थान पर धकेल दिया गया.

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक बद्री नारायण ने कहा कि एआईएमआईएम को धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से हिंदी पट्टी के असंतुष्ट मुसलमानों का समर्थन मिलेगा.

नारायण ने कहा, ‘मुसलमानों का एक वर्ग भेदभाव और असंतोष की भावना महसूस करता है. इससे एआईएमआईएम को फायदा होगा. वे सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ असंतोष से अपनी राजनीति बनाने की कोशिश करेंगे उन्होंने कहा, जहां ये उम्मीदवार उतारेंगे ज्यादातर सीटों पर दूसरे और तीसरे नंबर पर रहेंगे इस बार जीतने की संभावना बहुत कम है.’

नारायण ने एआईएमआईएम के विभिन्न राज्यों में एक ही तर्क पर चुनाव लड़ने की जिद के लिए जिम्मेदार ठहराया उन्होंने कहा यह बसपा के संस्थापक कांशीराम के नारे की तरह प्रतीत हो रहा है उन्होंने कहा था पहला चुनाव होता है हारने के लिए, दूसरा चुनाव होता है विपक्ष को हराने के लिए और तीसरा चुनाव होता है जीतने के लिए.

28 अक्टूबर से शुरू होने वाले बिहार चुनाव तीन चरणों में होंगे.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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