अगरतला: टिपरा इंडिजेनस पीपुल्स रीजनल अलायंस (टीआईपीआरए) के अध्यक्ष प्रद्योत बिक्रम माणिक्य देबबर्मा का कहना है कि त्रिपुरा में राजनीतिक हिंसा कोई नई बात नहीं है और यह केवल डराने-धमकाने के उसी सिलसिले का हिस्सा है, जो सीपीआई(एम) ने अपने सत्ताकाल के दौरान किया था.
देबबर्मा ने गुरुवार को दिप्रिंट को दिए गये एक साक्षात्कार में बताया, ‘आप यहां जो देख रहे हैं, वह केवल एक भिन्न झंडों और बैनरों के नीचे एक ही तरह की हिंसा का सिलसिला है.’
देबबर्मा कहते हैं, ‘यह सब कुछ पिछले 50-60 वर्षों से चल रहा है. आपने विधायकों को मारे जाते हुए देखा है, पार्टी कार्यकर्ताओं की हत्या की जा रही है. एक समय यह कम्युनिस्टों की आड़ में हो रहा था. अब यह किसी और के अधीन हो रहा है जो सत्ता में है … मुझे लगता है कि यह बहुत दुखद स्थिति है.’
पिछले ही हफ्ते, यह राज्य राजनीतिक हिंसा की कई घटनाओं से दहल उठा था. 6 सितंबर को माकपा और भाजपा के कार्यकर्ता, धनपुर, जहां पूर्व मुख्यमंत्री और कम्युनिस्ट नेता माणिक सरकार एक कार्यक्रम को संबोधित करने गए थे, में आपस में भिड़ गए.
दो दिन बाद ही माकपा कार्यालयों और कई मीडिया संगठनों के कार्यालयों में कथित तौर पर सत्तारूढ़ भाजपा के समर्थकों द्वारा तोड़फोड़ की गई.
इस हफ्ते, माणिक सरकार दिल्ली पहुंचे जहां उन्होंने सीपीआई(एम) पोलित ब्यूरो के अन्य सदस्यों के साथ बीजेपी के खिलाफ एक संवाददाता सम्मेलन किया. त्रिपुरा के चार बार के मुख्यमंत्री ने कहा कि भाजपा ने पूरे राज्य को एक ‘प्रयोगशाला’ में बदल दिया है और यहां ‘एक पार्टी वाली, तानाशाही, फासीवादी शासन’ की स्थापना कर दी है.
द वायर को दिए एक साक्षात्कार में, सरकार ने यह भी कहा कि माकपा को विशेष रूप से राज्य में हो रही इस तरह की हिंसा का निशाना बनाया जा रहा है.
लेकिन देबबर्मा ने कहा कि कम्युनिस्टों के साथ अब वही सब कुछ हो रहा है जो उन्होने अपने समय में शुरू किया था. उन्होंने कहा कि माकपा ने पश्चिम बंगाल में अपने शासन के दौरान, और यहां तक कि कुछ हद तक केरल में भी ‘राजनीतिक रूप से डराने-धमकाने की संस्कृति’ को अपनाया था.
उन्होंने कहा, ‘आज, वे लोग, जो एक समय खुद कम्युनिस्ट या कांग्रेस में थे, भाजपा के हाथों इसकी कीमत चुका रहे हैं. भाजपा ने डराने-धमकाने के इस कृत्य को उन कम्युनिस्टों की नकल करके ही सीखा है जिन्होंने बहुत पहले ठीक ऐसा ही किया था.’
हालांकि, उनकी अपनी पार्टी हिंसा के इस चक्र में पूरी तरह से पाक-साफ नहीं रही है.
पिछले अप्रैल में, त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद (टीटीएडीसी) चुनावों के परिणामों की घोषणा के बाद, चुनाव-बाद हिंसा के 25 मामले सामने आए थे. टीटीएडीसी की 28 में से 18 सीटों पर जीत हासिल करने वाले देबबर्मा के नेतृत्व वाले टीआईपीआरए मोथा के कार्यकर्ताओं और सदस्यों को कम-से-कम 23 ऐसी घटनाओं में शामिल पाया गया था.
देबबर्मा ने स्वीकार किया कि उनके कार्यकर्ता भी इस सब में शामिल थे लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने उनके खिलाफ कार्रवाई की है.
वे कहते हैं, ‘शायद, मैं केवल यह कहना चाहूंगा कि मेरे दल के सदस्य भी हिंसा में लिप्त है और मैंने उनके खिलाफ कार्रवाई भी की है. मैंने उन्हें निलंबित कर दिया है. मैं इस बारे में और भी कुछ अधिक करना चाहूंगा. लेकिन दूसरे पक्ष को भी कुछ इसी प्रकार की कार्रवाई करनी होगी और कोई ऐसा कर नहीं रहा है.’
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2023 के चुनावों में टिपरा-मोथा की भूमिका
टीटीएडीसी चुनावों में टीआईपीआरए मोथा की जीत भाजपा-आईपीएफटी (इंडिजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा) गठबंधन, जो फिलहाल राज्य में भी सत्ता में है, के लिए एक बड़ा झटका थी. वाम मोर्चा और कांग्रेस का प्रदर्शन तो और भी खराब था और वे एक भी सीट जीतने में नाकाम रहे.
आगामी 2023 विधानसभा चुनावों, जिसे उनकी पार्टी लड़ने के लिए तैयार है, पर इस जीत के कारण पड़ने वाले प्रभावों के बारे में एक सवाल के जवाब में देबबर्मा ने कहा, ‘यह सिर्फ आदिवासियों का वोट नहीं है. मुस्लिम वोट हैं, हिन्दुस्तानी वोटर और बंगाली वोट भी. इसलिए मैं कहूंगा कि इस समय पूरे त्रिपुरा में हम ही एकमात्र स्थापित वोट बैंक वाले राजनीतिक दल हैं.‘
उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी त्रिपुरा के आदिवासियों के लिए एक अलग राज्य- ग्रेटर टिपरालैंड- के लिए दबाव बनाना जारी रखेगी. उन्होंने कहा कि वह ऐसी किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन करने पर विचार करेंगे, चाहे वह तृणमूल कांग्रेस हो या भाजपा, जो ग्रेटर टिपरालैंड की मांग को ‘लिखित रूप में’ स्वीकार करती है.
एक अन्य महत्वपूर्ण कदम के रूप में, असम जातीय परिषद और टीआईपीआरए ने पिछले सप्ताह ही राजनीतिक सहयोग हेतु हाथ मिलाया था और पूर्वोत्तर में क्षेत्रीय दलों के लिए एक अलग मंच बनाने की घोषणा की थी.
देबबर्मा ने कहा कि इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि इस क्षेत्र के विशिष्ट मुद्दों को दिल्ली में उचित प्रतिनिधित्व मिले. वे कहते हैं, ‘अभी जो हो रहा है वह यह है कि दिल्ली का नेतृत्व तय करता है कि यह पूर्वोत्तर में क्या किया जाना है जैसे कि नागरिकता संशोधन अधिनियम के मामले में हुआ. फिर वे एक नेता को बुलाते हैं, जो यहां स्थिति को संभालने के लिए आता है.’
उन्होंने नागरिकता संशोधन अधिनियम का हवाला देते हुआ कहा कि केंद्र ने मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों को व्यक्तिगत रूप से ‘इनर लाइन परमिट‘ देकर ‘शांत’ किया था.
उन्होने कहा, ‘इन राज्यों और इनके राजनीतिक नेताओं को यह महसूस करने की आवश्यकता है कि आज यह हमारे साथ हैं. लेकिन अगर हम सुरक्षित नहीं हैं, तो कल वही अगले मोर्च पर होंगे.’
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‘कांग्रेस को आत्ममंथन की जरूरत’
तीन बार के कांग्रेसी सांसद महाराजा किरीट बिक्रम किशोर और एक बार सांसद और मंत्री रह चुकी महारानी भीबू कुमारी देवी के बेटे, प्रद्योत देबबर्मा ने 2019 में सीएए के मुद्दे पर आलाकमान के साथ मतभेदों के बाद कांग्रेस पार्टी छोड़ दी थी.
उनके मुताबिक, पार्टी ने उनसे इस मुद्दे पर विरोध नहीं करने को कहा था.
उन्होंने कहा, ‘मेरा एक अपना नज़रिया था और पार्टी नेतृत्व ने मेरे विचारों का समर्थन नहीं किया. वे चीजों को उसी तरह संतुलित करना चाहते थे, जैसे उन्होंने कैप्टन साहब (अमरिंदर सिंह), सिद्धू (नवजोत सिंह), रोसैया (कोनिजेती), जगन (मोहन रेड्डी) और चिरंजीवी के साथ हर जगह किया है. इसलिए उन्होंने शायद गलत व्यक्ति का समर्थन किया और उन्हें मुझसे बाहर निकल जाने की उम्मीद नहीं थी.’
उन्होंने कहा कि कांग्रेस को यह तय करने की जरूरत है कि उसका मुखिया कौन होगा और इस बात के लिए भी आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है कि जमीनी नेता पार्टी छोड़कर क्यों जा रहे हैं.
देबबर्मा के मुताबिक, पार्टी ने पूर्वोत्तर के प्रति सौतेला व्यवहार किया है. वे कहते हैं, ‘इन दो राष्ट्रीय दलों (भाजपा और कांग्रेस) के बीच की इस लड़ाई में एक तीसरा स्थान भी है. और यह तीसरा स्थान पूर्वोत्तर में है. हम इस पर उस पार्टी के बारे में अपना मन बना लेंगे जो यहां आएगा और हमारे क्षेत्र के रणनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा संबंधी पहलुओं पर बात करेगा.’
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