देहरादून: कांग्रेस के पंजाब राज्य के प्रभारी के रूप में हाल ही में चर्चा में रहे उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत मुख्यमंत्री पद की दौड़ से स्वयं को दूर करने के साथ ही अपने गृह राज्य के राजनीतिक गलियारों में भी चर्चा में आ गए हैं.
अगले साल की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव लड़ने के प्रति सार्वजनिक रूप से अपनी अनिच्छा व्यक्त करने के बाद, इस ठाकुर नेता ने सोमवार को ‘परिवर्तन यात्रा’ के क्रम में एक रैली में बोलते हुए कहा कि वह उत्तराखंड में एक दलित मुख्यमंत्री को देखना चाहते हैं. ज्ञात हो कि इस राज्य में दलित पूरी आबादी का लगभग 18 प्रतिशत हैं.
उनकी ये टिप्पणियां सभी के लिए एक आश्चर्य के रूप में सामने आई हैं क्योंकि वह राज्य के सबसे बड़े कांग्रेसी नेता हैं और 2022 में इस पहाड़ी राज्य में पार्टी के सत्ता में लौटने की स्थिति में उन्हें मुख्यमंत्री पद की दौड़ में सबसे आगे रहने वाले के रूप में देखा जा रहा था.
अगले साल अप्रैल में, लगभग उसी समय के आसपास जब उत्तराखंड में चुनाव के बाद एक नया मुख्यमंत्री बनेगा, रावत 74 साल के हो जाएंगे.
राज्य की वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने 2017 में 70 सदस्यीय विधानसभा में 57 सीटें जीतकर कांग्रेस को करारी शिकस्त दी थी. वोट-शेयर के मामले में, भाजपा को कांग्रेस पर 13 प्रतिशत की बढ़त मिली, जो 2019 के लोकसभा चुनाव में बढ़कर 30 प्रतिशत हो गई.
हालांकि, फिलहाल भाजपा सरकार को तगड़ी सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि विकास के मोर्चे पर दिखाने के लिए इसके पास कुछ नही है और यह कोविड-19 के कुप्रबंधन के जुड़े आरोपों से भी जूझ रही है. पार्टी ने इस साल चार महीने के अंतराल में दो मुख्यमंत्री बदले हैं.
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रावत के फ़ैसले से उनके गृह राज्य में चढ़ी भौंहें
पंजाब से लौटने के बाद – जहां उन्होंने एआईसीसी प्रभारी के रूप में कैप्टन अमरिंदर सिंह के स्थान पर एक दलित सिख को मुख्यमंत्री बनवाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी – रावत ने सोमवार को हरिद्वार में आयोजित एक रैली में कुछ इसी तरह की भावना व्यक्त की.
उन्होने कहा, ‘पंजाब में एक नया इतिहास रचा गया है. गोबर के उपले बनाकर अपनी आजीविका कमाने वाली एक दलित मां के बेटे को आज कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी और पंजाब के विधायकों ने राज्य का नया मुख्यमंत्री बनाया है. मैं सर्वशक्तिमान ईश्वर और गंगा मां से प्रार्थना करता हूं कि मेरे जीवन में एक ऐसा समय भी आए कि मैं उत्तराखंड में भी एक दलित मुख्यमंत्री देख सकूं. हम इसके लिए काम करेंगे.’
उनका कहना था कि ‘यह कम महत्वपूर्ण है कि आज दलित मतदाताओं की संख्या क्या है. इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उन्होंने कांग्रेस को सत्ता में बने रहने में कितने लंबे समय तक मदद की है.‘
रावत, जो राज्य कांग्रेस की चुनाव अभियान समिति के प्रमुख भी हैं, ने कहा, ‘अगर मौका आया तो हम उनका कर्ज़ चुका देंगे. मैं उन्हें आश्वस्त करना चाहता हूं कि कांग्रेस उनकी उम्मीदों पर खरा उतरेगी.’
हालांकि, हाल के दिनों में यह कोई पहला मौका नहीं है जब उनकी बातों से भौंहें चढ़ी हैं.
पिछले हफ्ते उन्होंने उस वक्त भी हलचल मचा दी थी, जब दिल्ली के लिए रवाना होने से पहले राज्य के इस पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा था कि वह 2022 के विधानसभा चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं हैं, क्योंकि इससे 2017 के जैसी हीं परिस्थितियां पैदा हो जाएंगी जब इस बात के आरोप लगे थे कि पार्टी के भीतर उनके प्रतिद्वंद्वियों ने उनके दोनों निर्वाचन क्षेत्रों- जहां से उन्हें चुनावी मैदान में उतारा गया था- में उनके जीत के अवसरों को नुकसान पहुंचाने का काम किया था.
रावत ने कहा, ‘महाभारत के अभिमन्यु की तरह, मैं भी षडयंत्रों के चक्रव्यूह में फंस सकता हूं. मैं तभी चुनाव लड़ूंगा जब पार्टी आलाकमान मुझसे ऐसा करना चाहेगा. मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से पार्टी में कोई विवाद खड़ा हो. मैंने 2002, 2007 और 2012 में भी विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा था. इस बार मैं 2002 की ही तरह पार्टी के लिए काम करना चाहता हूं.’
2014 में, जब उन्होंने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के रूप में विजय बहुगुणा की जगह ली थी तो वे एक लोकसभा सांसद थे. उनके एक करीबी विधायक ने उपचुनाव में उन्हें जीताने के लिए अपनी विधानसभा सीट खाली कर दी थी. रावत, जो चार बार लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं, एक जन नेता हैं, जिनके प्रति पूरे राज्य में आकर्षण है.
हालांकि, राज्य के कई कांग्रेसी नेता उनकी टिप्पणी को सीधे-सीधे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. उनका कहना है कि यद्यपि कांग्रेस आलाकमान उत्तराखंड में एक युवा चेहरा पेश करने के प्रति इच्छुक हो सकता है, फिर भी वर्तमान परिस्थितियों में रावत पर दांव लगाना ही सबसे अच्छा है. इसके अलावा, वे कहते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री रावत इतनी आसानी से अपने पत्ते खोलने के लिए नहीं जाने जाते हैं और इसलिए, यह निष्कर्ष निकालना अभी जल्दबाजी होगी कि वह मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर हैं.
उत्तराखंड कांग्रेस के नेताओं का एक धड़ा पार्टी में उनके प्रतिद्वंद्वियों द्वारा रावत के चुनाव में भीतरघात करने वाले उनके सिद्धांत/ थियरी से भी सहमत हैं.
अधिकारिक तौर पर बोलने को तैयार न होने वाले इन नेताओं ने दिप्रिंट को बताया कि 2017 के चुनावों में दोनों विधानसभा क्षेत्रों में उनकी हार का एक प्रमुख कारण पार्टी के अंदर के उनके विरोधियों की करिस्तानियों की वजह से ही था. रावत ने 2017 में हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ा था. किच्छा से जहां वह 100 से भी कम मतों से जीत से चूक गए थे, वहीं हरिद्वार ग्रामीण में उन्हें 9,000 से भी अधिक मतों से हार का सामना करना पड़ा था.
राज्य कांग्रेस कमिटी (पीसीसी) के एक वरिष्ठ उपाध्यक्ष ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘रावत के पार्टी में काफी सारे दुश्मन हैं. वे उन्हें अपने राजनीतिक करिअर के लिए एक बड़े खतरे और उनकी दुखती रग के पीछे की मुख्य वजह के रूप में देखते हैं. इस बार उन्हें हराने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं.’
हालांकि पीसीसी महासचिव पृथ्वीपाल चौहान ने दावा किया कि पूर्व मुख्यमंत्री रावत चुनाव प्रचार के लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं.
चौहान का कहना है, ‘अगर हरीश रावत ने कुछ कहा है तो इस बारे में उनकी अपनी आपत्तियां हो सकती हैं. हालांकि, यह एक सच है कि किसी एक निर्वाचन क्षेत्र में खुद को थकाए बिना वह पार्टी के लिए अधिक उपयोगी साबित हो सकते हैं.’
वे कहते हैं, ‘हम 2002 के विधानसभा चुनावों में दावेदारी की भी स्थिति में भी नहीं थे, लेकिन पीसीसी प्रमुख के रूप में हरीश रावत ने ही पार्टी को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे इतनी बड़ी जीत हुई. उन्होंने स्वयं चुनाव में उतरे बिना ही ऐसा कर दिखाया.’
रावत की दलित राजनीति के पीछे की वजह है आप का उभार?
उत्तराखंड में दलितों पर रावत द्वारा अचानक ध्यान दिए जाने को इस राज्य में आम आदमी पार्टी के बढ़ते प्रभाव – खासकर हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर के मैदानी इलाकों में- की पृष्ठभूमि में भी देखा जा रहा है.
इस दोनों जिलों में दलितों और मुसलमानों की आबादी लगभग 50 प्रतिशत है, जिसका सीधा असर 70 सदस्यीय राज्य विधानसभा की 22 सीटों के परिणाम पर पड़ता है.
कांग्रेसी नेता भी इस बात से सहमत हैं कि अगर पार्टी 2022 में सत्ता में अपनी वापसी सुनिश्चित करना चाहती है तो उसे नवीन प्रकार के कदम उठाने की जरूरत है.
पीसीसी के वरिष्ठ प्रवक्ता मथुरा दत्त जोशी ने कहा, ‘अरविंद केजरीवाल के वादे जैसे कि 300 यूनिट मुफ्त बिजली, 5,000 रुपये बेरोजगारी भत्ता और हर छह महीने में एक लाख नौकरी कई ऐसे मतदाताओं को आकर्षित कर रहे हैं जो मुख्य रूप से कांग्रेस के साथ थे, क्योंकि बसपा ने 2012 के चुनावों के बाद से ही अपनी पकड़ खोनी शुरू कर दी थी.’
उन्होने कहा, ‘आज के दिन ये वादे अविश्वसनीय लग सकते हैं लेकिन इनका दृढ़ता से मुकाबला किया जाना चाहिए. हरीश रावत का दलित मुख्यमंत्री वाला बयान आप के इन प्रयासों को विफल करने के लिए एक मास्टरस्ट्रोक हैं.’
कांग्रेस नेताओं का यह भी दावा है कि रावत का दलित मुख्यमंत्री वाला बयान एक तरफ तो राज्य में उनके विरोधियों को खामोश कर देगा, वहीं दूसरी तरफ यह भाजपा को भी रक्षात्मक स्थिति में धकेल देगा क्योंकि वह दलित, आदिवासी और ओबीसी मतदाताओं को अपनी ओर लुभाने की कोशिश कर रही है.
भाजपा, जिसने पहले ही पुष्कर धामी को अपना मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया है, ने ऐसे अटकलों को खारिज कर दिया.
प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता मनबीर चौहान ने कहा, ‘हरीश रावत का दलित मुख्यमंत्री वाला बयान स्वयं में ही विरोधाभासी है. वे जो कहते हैं वैसा करते नहीं हैं. रावत ने खुद ही कहा है कि पंजाब में उनकी पार्टी द्वारा नवनियुक्त दलित मुख्यमंत्री आगामी विधानसभा चुनाव में उनका चेहरा नहीं होगा.‘
वे कहते हैं, ‘यह मतदाताओं को आकर्षित करने और आप, जो उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के वोटों में सेंध लगा सकती है, का मुकाबला करने की एक चाल के अलावा और कुछ नहीं है. चुनाव के तुरंत बाद ही कांग्रेस पार्टी दलितों को भूल जाएगी.’
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