कानपुर: जैसे ही कोई व्यक्ति कानपुर के कुछ सबसे समृद्ध इलाकों से होते हुए वीआईपी रोड से गुजरता है, शहर के खोए हुए अवसरों के इतिहास को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल हो जाता है. आसमान में विशाल चिमनियों की एक श्रृंखला दिख रही है, जिनमें से अधिकांश दशकों से यूं ही बिना किसी यूज़ के खड़ी हैं.
वहां बंद पड़ी एल्गिन मिल्स है, जो एक समय कपड़े की बहुत बड़ी फैक्ट्री थी. इसके बगल में एक और चिमनी है, जो रिवर साइड पावरहाउस हुआ करती थी जो इस छोटे से क्लस्टर की सभी मिलों को बिजली देने में मदद करती थी. सड़क के ठीक उस पार, ग्वालटोली क्षेत्र है, जिसने मध्य मुंबई की चॉल्स की तरह, शहर के हजारों मिल श्रमिकों को आवास प्रदान किया था.
आज, शहर के इस हिस्से में बहुत कम औद्योगिक गतिविधि रह गई है, और कोई भी मिल मजदूर यहां नहीं रहता है. इसके बजाय, आकर्षण का एक नया केंद्र है बाबा आनंदेश्वर मंदिर धाम कॉरिडोर है जो कि हाल-फिलहाल में बना एक गलियारा है जो शहर के व्यापारियों द्वारा पूजित भगवान शिव के आनंदेश्वर मंदिर की ओर जाता है. कानपुरवासियों के लिए यह उनके अपने छोटे काशी विश्वनाथ कॉरिडोर जैसा है.
यह दृश्य औद्योगिकीकरण खत्म हो चुके शहर की राजनीति को सटीक ढंग से दर्शाता है, जिसे कभी “पूर्व का मैनचेस्टर” कहा जाता था.
पत्रकार मिहिर शर्मा ने अपनी 2015 की किताब रीस्टार्ट: द लास्ट चांस फॉर द इंडियन इकोनॉमी में कानपुर पर अध्याय में लिखा, “कानपुर में ड्राइव करें, और आप भूतों के साथ ड्राइव कर रहे होंगे. उत्तर भारत के सबसे औद्योगिक शहर में पहुंचने से कुछ घंटे पहले, गहरी आंखों वाले, सड़ते हुए भूत वीरान हाईवे के किनारे इकट्ठा होने लगते हैं.”
नौ साल बाद भी, कानपुर के भूतिया उद्योग जस के तस हैं, लेकिन जिन सड़कों पर वे खड़े हैं वे भगवा झंडों से पटी हुई हैं. व्यवसायी वर्ग शत्रुतापूर्ण सरकारी नीतियों की शिकायत करता है जिसने कथित तौर पर उनके व्यवसायों को नुकसान पहुंचाया है – कुछ मामलों में अपरिवर्तनीय रूप से. जहां तक व्यापार-संबंधी नीतियों का सवाल है, सरकार के खिलाफ उनकी आलोचना जोरदार और स्पष्ट है. लेकिन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए उनका समर्थन भी उतना ही तगड़ा है.
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‘TINA’ (दियर इज़ नो ऑल्टरनेटिव), हिंदुत्व, भारत की कथित तौर पर ऊंची वैश्विक स्थिति पर गर्व, बेहतर कानून और व्यवस्था की स्थिति जैसे कारकों का मिश्रण उन उद्यमियों की अजीब सी राजनीति में योगदान देता है जिनके व्यवसाय पिछले कुछ वर्षों में खराब हो गए हैं. लेकिन वे भाजपा के वफादार बने रहेंगे.
‘व्यापार की हालत पतली है’
उत्तर प्रदेश में, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) क्षेत्र राज्य के औद्योगिक उत्पादन में 60 प्रतिशत का योगदान देता है. देश में कुल पंजीकृत एमएसएमई में 9 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ, इस क्षेत्र में योगदान के मामले में यूपी सभी राज्यों में तीसरे स्थान पर है. राज्य के एमएसएमई और निर्यात प्रोत्साहन विभाग के अनुसार, यूपी में 90 लाख से अधिक सक्रिय एमएसएमई हैं, और कृषि व संबद्ध कृषि गतिविधियों के बाद, यह क्षेत्र राज्य में सबसे बड़ा नियोक्ता है.
फिर भी, अधिकांश बिजनेसमैन से बात करें, और वे आपको बताते हैं कि इस सेक्टर को नुकसान हो रहा है.
कानपुर में जूते का व्यवसाय चलाने वाले इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन (IIA) के महासचिव आलोक अग्रवाल कहते हैं, ”हम नोटबंदी, जीएसटी और कोविड के झटके से बमुश्किल बाहर निकले थे और सरकार एमएसएमई के लिए 45 दिनों का यह क्लॉज लेकर आई है, जिससे हमारे कारोबार पर असर पड़ रहा है. यदि दो पक्षों के बीच कोई अनुबंध है, तो सरकार को उन्हें यह बताने की क्या ज़रूरत है कि उन्हें एक-दूसरे को कब भुगतान करना चाहिए?”
अग्रवाल इस महीने लागू हुए नए एमएसएमई नियम के बारे में बात कर रहे हैं, जिसके अनुसार कंपनियों को छोटे व्यवसायों के किसी भी लंबित बिल का भुगतान 45 दिनों के भीतर करना होगा. ऐसा नहीं करने पर कंपनियों को लंबित राशि पर कर देनदारी का सामना करना पड़ेगा. यह आदेश यह सुनिश्चित करने के उद्देश्य से लाया गया था कि छोटी कंपनियों को समय पर भुगतान मिले, लेकिन ऐसा लगता है कि बड़े पैमाने पर तरलता संकट की आशंका वाले एमएसएमई के लिए इसका उल्टा असर हुआ है.
अग्रवाल, जिन्होंने 45-दिवसीय नियम को वापस लेने के लिए सरकार को कई अभ्यावेदन दिए हैं, कहते हैं, “व्यापार की हालत पतली है.” फिर भी, उन्हें और आईआईए को कोरी सांत्वनाओं से कुछ अधिक नहीं मिला है.
भाजपा सांसद सत्यदेव पचौरी, जो 2017 से 2019 तक यूपी सरकार में एमएसएमई मंत्री भी रहे हैं, इससे सहमत हैं. उनका कहना है, ”सरकार को यह नियम वापस लेना चाहिए. सरकार का मुक्त व्यापार से क्या लेना-देना है? मैंने इस नियम के निहितार्थों के बारे में वित्त मंत्री को लिखा… समस्या यह है कि ये नीतियां आईएएस अधिकारियों द्वारा बनाई जाती हैं, जिन्हें ज़मीनी हकीकत की सीमित समझ होती है. लेकिन मुझे लगता है कि जब तक यह नियम वापस नहीं लिया जाता, तब तक एमएसएमई को विरोध प्रदर्शन करना चाहिए.
राजा राम कुकरेजा, जो कानपुर में साबुन फैक्ट्री के मालिक थे, उनको 2 साल पहले फैक्ट्री बंद करनी पड़ी. वे कहते हैं, ”हम जीएसटी और कोविड का झटका नहीं झेल सके.”
वह पूछते हैं, “उत्पाद शुल्क छूट के मामले में जीएसटी ने एक छोटे कारखाने के मालिक के रूप में मेरे पास जो आरक्षण था, उसे छीन लिया, और मुझे भी हिंदुस्तान लीवर की तरह ही टैक्स का भुगतान करना पड़ता है. मैं कैसे बचता? कानपुर के चारों ओर देखो, मेरे जैसे दर्जनों लोग हैं.”
यह एक मात्र उदाहरण नहीं हैं. लगभग एक दर्जन फैक्ट्रियों के मालिकों ने दिप्रिंट को बताया कि पिछले कुछ वर्षों में उनके कारोबार को लगभग 15-20 प्रतिशत का नुकसान हुआ है. एक बड़ी और बार-बार दोहराई जाने वाली शिकायत यह है कि सरकार ने कथित तौर पर महामारी के दौरान छोटे उद्योगों को कोई सहायता नहीं दी. एक केमिकल फैक्ट्री के मालिक ने नाम न छापने की शर्त पर अनुरोध करते हुए कहा, “हमें बिजली बिल, बैंक ब्याज आदि के मामले में कोई रियायत नहीं दी गई. हमें अपने कर्मचारियों को पूरा वेतन देना पड़ा और सरकार ने यह सोचने की ज़हमत नहीं उठाई कि हमें भी मदद की ज़रूरत हो सकती है.”
उन्होंने आगे कहा, “वे बड़े-बड़े निवेश शिखर सम्मेलन करते हैं, लेकिन छोटे व्यवसायों के प्रति उनकी नीतियां और रवैया बिल्कुल प्रतिकूल है… बड़े व्यवसाय हमारे व्यवसायों को खा रहे हैं.”
कुकरेजा जैसे कुछ लोगों को अपनी दुकान बंद करनी पड़ी है. ऐसा कहा जाता है कि कुछ लोगों को जीवित रहने के लिए अपने घर बेचने पड़े.
सरकारी अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लाजिमी हैं. प्लास्टिक व्यवसाय के मालिक और आईआईए के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष सुनील वैश्य कहते हैं, ”सरकारी विभागों द्वारा जबरन वसूली तेजी से बढ़ी है. अगर पहले कोई काम 1000 रुपये में होता था, तो अब वह 50,000 में हो रहा है… भ्रष्टाचार अब अधिक संगठित और सुव्यवस्थित हो गया है.”
‘पर आएगा तो मोदी ही’
फिर भी, जब मोदी के नेतृत्व में भाजपा को समर्थन देने की बात आती है तो ये सभी शिकायतें दूर हो जाती हैं. वैश्य कहते हैं, ”हमें कम बुरे लोगों में से किसी एक को चुनना होगा. हम उन क्षेत्रीय पार्टियों को वोट देने नहीं जा सकते, जिनके पास कोई विज़न नहीं है… बीजेपी के अलावा मेरे पास अभी कोई विकल्प नहीं है.”
यह बात कि कांग्रेस “मुश्किल से लड़ रही है” भाजपा को समर्थन का एक बड़ा कारण है. “अभी, सरकार के प्रति बहुत गुस्सा है. अगर कांग्रेस थोड़ी भी मजबूत स्थिति में होती तो बीजेपी के कोर वोटर्स के अलावा फ्लोटिंग वोट्स जरूर कांग्रेस के खाते में चले गए होते…लेकिन ऐसा होते हुए कहीं दिखाई नहीं दे रहा है.”
कुछ कट्टर भाजपा समर्थकों को ऐसा लगता है. यदि भाजपा के पास एक प्रतिबद्ध वोट आधार है, और एक फ्लोटिंग वोट भी है, तो चुनावी मैदान में कांग्रेस की कथित अनुपस्थिति सरकार के साथ शिकायतों के बावजूद, भाजपा के पक्ष में काफी हद तक जाती हुई दिख रही है.
फिर भी, कुछ व्यवसायियों के लिए, सरकार की उपलब्धियां उनके अपने नुकसान से कहीं अधिक हैं.
अग्रवाल बताते हैं, ”ये दो अलग चीजें हैं.” वे कहते हैं, ”हम व्यवसायी हैं और हम नागरिक हैं… एक नागरिक के रूप में, हमें राम मंदिर, अनुच्छेद 370 निरस्तीकरण, सीएए-एनआरसी, ढांचागत विकास, विदेशों में भारत की छवि, अपराध पर नियंत्रण और हिंदू धर्म पर ध्यान केंद्रित करने पर बेहद गर्व है.”
अग्रवाल कहते हैं, “वाजपेयी सरकार इन चीजों को लागू क्यों नहीं कर सकी? क्योंकि उनके पास बहुमत नहीं था… केवल बहुमत के साथ ही सरकार ये चीजें हासिल कर सकती है.” हालांकि, वह मानते हैं कि पूर्ण बहुमत की वजह से सरकार कई बार लोगों की प्रतिक्रिया पर ज्यादा ध्यान नहीं देती, जैसा कि इस मामले में है.
कानपुर में आईआईए के कॉन्फ्रेंस हॉल में बैठकर, जहां इसके कई सदस्य हर शाम मिलते हैं, बातचीत धीरे-धीरे इस संभावना पर पहुंच जाती है कि सरकार विशेषाधिकार को रद्द भी कर सकती है, अगर इसे बहुमत आता है तो. यह एक ऐसी बात है जो वहां बैठे ज्यादातर लोगों को खुश कर देती है .
यूपी की कानून-व्यवस्था की स्थिति में स्पष्ट सुधार को भी भाजपा को समर्थन देने का एक प्राथमिक कारण बताया गया है. फिर भी, यह जल्द ही एक मुस्लिम-विरोधी हमले में बदल जाता है, जैसा कि ज्यादातर बिजनेसमैन का मानना है.
प्लास्टिक व्यवसाय के मालिक संजय जैन कहते हैं, “अखिलेश (यादव) के समय में उनका (मुसलमानों का) शहर पर पूरा नियंत्रण था. वे कुछ भी कर सकते हैं और बच सकते हैं. वे हर समय अपनी टोपी के साथ स्वरूप नगर के आसपास मंडराते रहते थे… यह केवल योगी जी के कारण रुका है.”
अग्रवाल कहते हैं, “स्वाभाविक रूप से, हम हिंदू हैं, इसलिए हम ऐसी सरकार को वोट देंगे जो हमारे हितों का ख्याल रखेगी. हम देखते हैं कि यूरोप जैसी जगह का भी क्या हुआ है.”
कई कारणों से, और इसके बावजूद कि वे दशकों से चल रहे व्यवसाय में वे सबसे कठिन समय से गुज़रे हैं, पर कानपुर के व्यवसायी एक बात के बारे में स्पष्ट हैं: ‘आएगा तो मोदी ही.’
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