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Friday, 21 June, 2024
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मध्य प्रदेश में BJP ने किया क्लीन स्वीप, लेकिन पड़ोसी राजस्थान में क्यों लगा झटका

नेताओं ने कहा कि चार चरणों में मतदान, प्रदेश अध्यक्ष का कार्यकाल बढ़ाने से मध्य प्रदेश को फायदा हुआ, लेकिन राजस्थान में अनुभवहीन मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष को बदलना और वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करना भाजपा के खिलाफ गया.

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नई दिल्ली/भोपाल: पिछले साल दिसंबर में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने एक प्रयोग किया था, जब उसने विधानसभा चुनाव जीतने के बाद राजस्थान और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के रूप में नए चेहरों को चुना. राजस्थान में पार्टी ने पहली बार विधायक बने और ब्राह्मण चेहरे भजनलाल शर्मा को चुना, जबकि मध्य प्रदेश में उसने वरिष्ठ नेता मोहन यादव को चुना.

भाजपा ने पिछले दो आम चुनावों में दोनों राज्यों में अच्छा प्रदर्शन किया था, दोनों बार राजस्थान में क्लीन स्वीप किया था, इसने 2014 में सभी 25 सीटें और 2019 में 24 सीटें जीती थीं, जबकि एक सहयोगी ने शेष सीट जीती थी. मध्य प्रदेश में 2014 में 29 में से 27 और 2019 में 28 सीटें जीती थीं.

हालांकि, दोनों राज्यों में 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजे चर्चा का विषय बन गए हैं. मध्य प्रदेश में पहली बार भाजपा ने क्लीन स्वीप किया, लेकिन राजस्थान में उसे झटका लगा, जहां उसे 25 में से सिर्फ 14 सीटें मिलीं, बाकी सीटें कांग्रेस (आठ सीटें) और उसके सहयोगियों के हाथों चली गईं.

चार चरणों में मतदान, चुनाव प्रबंधन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की भागीदारी, भाजपा द्वारा प्रदेश अध्यक्ष वी.डी. शर्मा का कार्यकाल बढ़ाना और जातिगत समीकरणों को साधे रखना — ये कुछ ऐसे कारक हैं, जिन्हें पार्टी नेता मध्य प्रदेश में अपनी जीत के लिए मुख्य बता रहे हैं.

नेताओं ने कहा, इसके विपरीत राजस्थान में वसुंधरा राजे जैसे कद्दावर नेताओं को दरकिनार करना, मार्च 2023 में प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया की जगह सी.पी. जोशी को लाना, एक अनुभवहीन मुख्यमंत्री और मौजूदा सांसदों को टिकट न देना, ये सभी बातें पार्टी के खिलाफ काम करती दिख रही हैं.

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, “राजस्थान में चुनाव दो चरणों में हुए और पहले चरण में कम मतदान के मुद्दे ने अहम भूमिका निभाई. 19 अप्रैल को जब राजस्थान में 12 सीटों के लिए मतदान हुआ, तो कम मतदान ने पार्टियों और उनके उम्मीदवारों को हैरान और चिंतित कर दिया. इन 12 सीटों में से हम आठ हार गए और मतदान 57 प्रतिशत से अधिक रहा.”

हालांकि, इसके तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों से बड़ी संख्या में अपने मताधिकार का प्रयोग करने की अपील की और भाजपा कार्यकर्ताओं से भी मतदाताओं को संगठित करने और बेहतर मतदान सुनिश्चित करने के लिए कहा गया.

नेता ने कहा, “दूसरे चरण में हमारा मतदान 64.07 प्रतिशत हो गया और यह नतीजों में भी दिखाई दिया, क्योंकि हमने 13 में से 10 सीटें जीतीं.”

एक अन्य नेता ने कहा कि कम मतदान का मतलब है कि प्रतिबद्ध या “ऑर्गेनिक” भाजपा मतदाता वोट डालने के लिए बाहर नहीं आए. नेता ने कहा, “साथ ही, यह तथ्य कि कई विधायकों ने चुनावों में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई, इससे भी कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा और इसलिए वे मतदाताओं तक उस तरह नहीं पहुंच पाए, जैसा भाजपा आमतौर पर करती है.”

पार्टी सूत्रों के अनुसार, टिकट बंटवारे में जातिगत गणित के अलावा टिकट नहीं मिलने वालों की बगावत और नेताओं के बीच मतभेद भी पार्टी के खराब प्रदर्शन का कारण हो सकता है. इतना ही नहीं, संघ और भाजपा के बीच कड़ी का काम करने वाले महासचिव (संगठन) की अनुपस्थिति ने भी पार्टी के चुनाव प्रबंधन को प्रभावित किया. राजस्थान में इस पद पर रहे चंद्रशेखर को विधानसभा चुनाव के बाद जनवरी में तेलंगाना भेज दिया गया था.


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‘जाट-राजपूत विवाद, CM की अनुभवहीनता’

एक अन्य नेता ने कहा कि मध्य प्रदेश में स्थानीय मुद्दों को राष्ट्रीय मुद्दों के साथ जोड़ दिया गया, जबकि राजस्थान में बिजली और पानी के मुद्दों सहित उन्हें पूरी तरह से नज़रअंदाज कर दिया गया.

उन्होंने कहा, “स्थानीय मुद्दों को नज़रअंदाज कर दिया गया, क्योंकि राष्ट्रीय मुद्दों को प्राथमिकता दी गई. ऐसा कोई नेता नहीं था जो राज्य में जाति आधारित राजनीति को समझ सके और उसका समाधान कर सके. जाट-राजपूत विवाद एक मार्च को भाजपा द्वारा लोकसभा उम्मीदवारों की पहली सूची जारी किए जाने के साथ शुरू हुआ और पुरुषोत्तम रूपाला के विवादास्पद बयान ने इसे और हवा दे दी.”

गुजरात से केंद्रीय मंत्री रूपाला द्वारा मार्च में की गई टिप्पणियों के कारण उनके राज्य और अन्य जगहों पर राजपूतों में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी.

नेता ने कहा, “चुरू के सांसद राहुल कस्वां को टिकट न देना, जो लगातार चुनाव जीत रहे थे, टकराव की शुरुआत बन गया और इसके तुरंत बाद विभिन्न क्षेत्रों में पूरा चुनाव जाति-केंद्रित हो गया.”

कस्वां को पैरालिंपिक स्वर्ण पदक विजेता देवेंद्र झाझरिया के पक्ष में टिकट देने से मना कर दिया गया. हालांकि, दोनों जाट समुदाय से हैं, लेकिन कस्वां ने राजपूत नेता राजेंद्र राठौर पर टिकट न दिए जाने के पीछे होने का आरोप लगाया, जिससे जाति के आधार पर ध्रुवीकरण बढ़ गया. कस्वां कांग्रेस में चले गए, उन्हें चूरू से उम्मीदवार बनाया गया और उन्होंने झाझरिया को हराकर चुनाव जीत लिया.

उक्त नेता ने कहा, “पार्टी के पास ऐसा कोई नेता नहीं था जो इसे समझ सके, पहले से उपाय कर सके और नुकसान की भरपाई कर सके, क्योंकि प्रदेश अध्यक्ष सी.पी. जोशी अपने चुनाव में व्यस्त थे और बाकी नेता भी अपनी-अपनी सीटों से चुनाव लड़ रहे थे.”

भाजपा के एक प्रदेश पदाधिकारी ने कहा कि जाट-राजपूत विवाद केवल चूरू तक सीमित नहीं था, बल्कि पूरे राजस्थान में फैल गया था. उन्होंने पूर्व प्रदेश अध्यक्ष पूनिया, जो जाट नेता हैं, की जगह जोशी, जो ब्राह्मण चेहरा हैं, को लाने के पार्टी के फैसले का भी ज़िक्र किया, जिसने लोगों को चौंकाया — पिछले साल के विधानसभा चुनावों के दौरान नहीं, बल्कि लोकसभा चुनावों के दौरान जाति के सामने आने के बाद.

चूरू के अलावा, दौसा, बाड़मेर, सीकर, भरतपुर और टोंक-सवाई माधोपुर जैसी सीटों पर जातिगत विभाजन ने चुनावों को प्रभावित किया. नेता ने कहा, “ऐसे माहौल में पार्टी की रणनीति और तैयारी ज़मीनी स्तर पर हो रहे बदलावों से मेल नहीं खा सकी. भाजपा नेताओं से नाराज़गी के कारण राजपूत मतदाताओं ने पूरे उत्साह के साथ चुनावों में हिस्सा नहीं लिया. यह भाजपा के लिए बड़ा नुकसान था. गठबंधन करके कांग्रेस ने अन्य दलों के लिए सीटें छोड़ दीं, जिससे उसे अपनी सीटें मिल गईं.”

भाजपा के एक अन्य नेता ने पूर्वी राजस्थान से भाजपा के “बड़े नेताओं” में से एक किरोड़ीलाल मीणा को राज्य सरकार में उपमुख्यमंत्री नहीं बनाए जाने के कारण अनुसूचित जनजातियों के समर्थन में कमी आने की ओर इशारा किया.

पार्टी के एक पदाधिकारी ने कहा, “इसके बाद भी उन्हें उनकी पसंद के मंत्रालय नहीं दिए गए. यही कारण है कि उन्होंने देर से कार्यभार संभाला. किरोड़ी अपने भाई के लिए टिकट मांग रहे थे, लेकिन उन्हें यहां भी निराशा हाथ लगी. किरोड़ी की उदासीनता और उनकी आंतरिक नाराज़गी ने पूर्वी राजस्थान में भाजपा का सफाया कर दिया. इसी तरह शेखावाटी की तीन सीटें — सीकर, चूरू और झुंझुनू — कांग्रेस गठबंधन के हाथों में आ गईं.”

भाजपा नेताओं के अनुसार, एक और कारक यह है कि इस चुनाव में पार्टी द्वारा मैदान में उतारे गए मौजूदा सांसदों को भारी सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ा और सीएम शर्मा की “अनुभवहीनता” ने भी प्रचार को प्रभावित किया.

एक नेता ने कहा,“राजस्थान में पूरे चुनाव का नेतृत्व शर्मा ने किया. वरिष्ठ नेता अपने-अपने प्रचार में व्यस्त थे और शर्मा का पूरे राज्य में राजनीतिक अनुभव पांच महीने तक ही सीमित है. वे पहली बार विधायक बने हैं, इसलिए वे भी केंद्र से समर्थन की उम्मीद कर रहे थे.”

राज्य के पदाधिकारियों ने अनुभवी नेतृत्व की इस कमी की तुलना पूर्व मुख्यमंत्री राजे के नेतृत्व में लड़े गए पिछले दो चुनावों से की, जो इस बार हाशिये पर थीं और केवल झालावाड़ में सक्रिय थीं, जहां उनके बेटे दुष्यंत सिंह भाजपा के उम्मीदवार थे और विजयी हुए.


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मध्य प्रदेश में सफलता का फॉर्मूला

एक नेता ने कहा, दूसरी ओर, मध्य प्रदेश में भाजपा संगठन ने जनवरी से ही उन क्षेत्रों में अपनी संभावनाओं को मजबूत करने के लिए काम करना शुरू कर दिया, जहां वह कमज़ोर थी, जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और उन सीटों पर विशेष ध्यान दिया गया, जहां पिछली बार जीत का अंतर 2,000 वोटों से कम था.

भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और राज्य मंत्री कैलाश विजयवर्गीय को छिंदवाड़ा जैसी महत्वपूर्ण सीटों का प्रभारी बनाया गया और उन्होंने दलबदल और मतदाताओं तक पहुंच बनाने का काम देखा. राज्य विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर ने ग्वालियर-चंबल क्षेत्र की सीटों की कमान संभाली, जिसमें मुरैना और भिंड शामिल हैं, जहां भाजपा उम्मीदवार संध्या रे का मुकाबला कांग्रेस के फूल सिंह बरैया से था.

बीजेपी के एक नेता ने कहा, “जब भाजपा उम्मीदवार संध्या रे सत्ता विरोधी लहर से जूझ रही थीं, तब भाजपा संगठन ने एक नई रणनीति अपनाई, फूल सिंह बरैया के वीडियो जारी किए, जिसमें वे अन्य जातियों, खासकर ब्राह्मणों की आलोचना करते नज़र आए. प्रत्येक सीट पर इन गतिशील रणनीतियों ने सुनिश्चित किया कि उम्मीदवारों को जीत हासिल करने के लिए ज़रूरी समर्थन मिले.”

भाजपा संगठन के प्रयासों को और अधिक स्थिरता देने वाली बात यह रही कि न केवल प्रदेश अध्यक्ष वी.डी. शर्मा, बल्कि भाजपा के प्रदेश महासचिव हितानंद शर्मा भी बने रहे.

हितानंद शर्मा के नेतृत्व में सात सीटों — खासकर आदिवासी बहुल महाकौशल क्षेत्र, जिसमें मंडला, छिंदवाड़ा और बैतूल के साथ-साथ मालवा-निमाड़ क्षेत्र की झाबुआ, धार और बड़वानी सीटें शामिल हैं — की पहचान की गई और लोगों तक पहुंच बनाने का काम शुरू किया गया.

1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद भाजपा की सरकार बनाने में असमर्थता जैसे उदाहरणों के माध्यम से, मध्य प्रदेश में पार्टी कार्यकर्ताओं से अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के प्रभाव को अधिक महत्व न देने का आग्रह किया गया.

इसके बजाय उन्हें राज्य और केंद्र सरकार की योजनाओं के लाभार्थियों तक पहुंचने के लिए अपने प्रयासों को दोगुना करने के लिए प्रेरित किया गया. उपरोक्त निर्वाचन क्षेत्रों के भीतर गांवों की पहचान की गई और इन स्थानों पर रहने वाले लाभार्थियों को एक डेटाबेस के माध्यम से चिन्हित किया गया. फिर, इन लाभार्थियों को बूथ प्रभारियों और अर्ध-पन्ना प्रमुखों के बीच विभाजित किया गया, जिन्होंने उनसे संपर्क किया.

पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा शुरू की गई एक लोकप्रिय योजना लाडली बहना योजना, जो महिलाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करती है, को न केवल प्रभावी रूप से जारी रखा गया, बल्कि स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से यह सुनिश्चित करने के उपाय किए गए कि योजना बंद होने के बारे में गलत सूचना दूर हो.

उक्त नेता ने कहा, इसके विपरीत, राजस्थान में “ऐसी कोई योजना या रियायतें, जिनकी लोग नई सरकार से उम्मीद कर रहे थे, भजन लाल शर्मा सरकार द्वारा घोषित नहीं की गईं.”

‘मध्य प्रदेश भाजपा का प्रतिबद्ध राज्य’

उज्जैन में मध्य प्रदेश सामाजिक विज्ञान अनुसंधान संस्थान के प्रोफेसर और निदेशक यतींद्र सिसोदिया ने दिप्रिंट को बताया, “मध्य प्रदेश 2003 से भाजपा का गढ़ बन गया और भाजपा के कार्यकर्ताओं का धीरे-धीरे विस्तार हुआ.” उन्होंने कहा कि पिछले चार लोकसभा चुनावों में भाजपा के प्रतिबद्ध मतदाताओं की संख्या में वृद्धि हुई है, जिसके परिणामस्वरूप राज्य में बहुसंख्यक राजनीति बहुत मजबूत हो गई है.

उन्होंने कहा, “दूसरी ओर राजस्थान में 2003 के बाद से बारी-बारी से सरकारें आती रही हैं. यहां जाति की राजनीति मजबूत है और दो समुदाय — जाट और राजपूत — भाजपा से नाखुश होने के कारण कांग्रेस और अन्य दलों के पक्ष में काम करते रहे, लेकिन राजस्थान के विपरीत, मध्य प्रदेश में जाति की राजनीति कभी काम नहीं आई. न केवल अभी, बल्कि 1990 से ही यह कभी काम नहीं आया. गुजरात के बाद अब मध्य प्रदेश ही भाजपा का मजबूत राज्य है.”

सिसोदिया ने कहा कि कांग्रेस को छिंदवाड़ा और शायद ग्वालियर-चंबल क्षेत्र की एक सीट को छोड़कर किसी भी सीट पर अच्छे नतीजे मिलने की उम्मीद नहीं थी. हालांकि, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के पास अभी भी ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में एक समर्पित वोट बैंक है, जिसने कांग्रेस के लिए खेल बिगाड़ा और तीन विधायकों और हज़ारों कार्यकर्ताओं सहित कई दलबदलुओं ने मतदाताओं को भ्रमित कर दिया.

सिसोदिया ने कहा, “कांग्रेस मतदाताओं के सामने कोई निर्णायक राजनीतिक कहानी पेश नहीं कर सकी. उसके कार्यकर्ता हतोत्साहित थे. अपनी पार्टी को डूबते जहाज के रूप में देखते हुए, वे भाजपा का सामना करने में विफल रहे. यह साफ तौर पर दिख रहा था.”

मध्य प्रदेश में चार चरणों में से पहले दो चरणों के दौरान मतदान प्रतिशत में गिरावट के साथ, भाजपा संगठन ने एक विशेष कॉल सेंटर शुरू किया, जहां महिलाओं को महिला मतदाताओं को कॉल करने के लिए नियुक्त किया गया और आदिवासी लोगों को मतदान बढ़ाने के लिए आदिवासी मतदाताओं को कॉल करने के लिए नियुक्त किया गया.

पार्टी नेताओं ने कहा कि विधानसभा चुनाव के दौरान मतदान के दिन पार्टी की राज्य इकाई कार्यकर्ताओं को संगठित करने में सफल रही और लोकसभा चुनाव के दौरान भी लोगों को जागरूक करने का काम जारी रखा.

पूर्व गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने ‘नई ज्वाइनिंग टोली’ नामक पहल की अगुआई की और असंतुष्ट विपक्षी नेताओं की पहचान की और उन्हें भाजपा में शामिल होने में मदद की, जिससे कांग्रेस की स्थिति और कमजोर हुई.

भाजपा के पदाधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, “विधानसभा चुनाव में हार के बाद भले ही कांग्रेस के कई नेता भाजपा में शामिल हुए, लेकिन वे ज़मीनी स्तर पर वोटों को बदलने में कारगर नहीं रहे, लेकिन उनके भाजपा में शामिल होने से मनोवैज्ञानिक हमला हुआ, जिससे कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल और भी कम हुआ.”

इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण छिंदवाड़ा है, जहां अमरवाड़ा सीट से विधायक कमलेश प्रताप शाह और छिंदवाड़ा के मेयर विक्रम अहाके ने न केवल भाजपा का दामन थामा, बल्कि कई अन्य कांग्रेस कार्यकर्ताओं को भी पार्टी में शामिल किया गया.

भाजपा सूत्रों ने कहा कि खुद कमल नाथ के भाजपा में शामिल होने की अफवाहों ने छिंदवाड़ा में कांग्रेस को और प्रभावित किया. असमंजस के बीच, कई भाजपा बूथ एजेंटों ने कांग्रेस द्वारा नियुक्त लोगों से मुलाकात की और सोशल मीडिया पर इसकी तस्वीरें डालीं, जिससे कांग्रेस एजेंटों की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा हुआ.

भाजपा संगठन के लिए एक और बात काम आई वे थी मुख्यमंत्री मोहन यादव की मौजूदगी — जो आरएसएस कार्यकर्ता और तीसरी बार विधायक हैं और पिछली सरकार में मंत्री थे — जिन्हें दो डिप्टी राजेंद्र शुक्ला का समर्थन प्राप्त था, जो विंध्य क्षेत्र की रीवा सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं और चार बार विधायक रहे हैं और मंदसौर के मल्हारगढ़ से जगदीश देवड़ा, जो पूर्व मुख्यमंत्री चौहान की कैबिनेट में वित्त मंत्री थे. पार्टी नेताओं के अनुसार, तीनों ने प्रशासन पर प्रभावी नियंत्रण बनाए रखा, जिससे भाजपा को और मदद मिली.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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