लखनऊ: विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का गुस्सा कुछ हद तक शांत हो सकता है लेकिन विपक्षी नेताओं और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अकेले इस कदम से हवा का रुख भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के पक्ष में मुड़ जाने की संभावना नहीं है. उनका कहना है कि इलाके के आंदोलित किसान, कृषि कानूनों से ज्यादा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी), गन्ना बकाया, डीजल कीमतों और बिजली की ऊंची दरों को लेकर चिंतित हैं.
लेकिन बीजेपी नेताओं को लगता है कि विवादास्पद कानूनों को रद्द करने के बाद जाट मतदाता पार्टी के पास वापस आ जाएंगे.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश किसानों का इलाका है, जहां मुख्य रूप से जाटों और मुसलमानों का दबदबा है. 2017 के विधानसभा चुनावों में जाटों ने भारी संख्या में बीजेपी को वोट दिया था.
पश्चिमी यूपी के 14 जिलों में फैली 71 विधानसभा सीटों में से, जहां जाटों की एक अहम भूमिका होती है, 2017 में बीजेपी ने 51 सीटें जीतीं थीं. राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) के एकमात्र विधायक सहेंदर सिंह रामला के बीजेपी में शामिल होने के बाद, ये संख्या बढ़कर 52 हो गई. समाजवादी पार्टी (एसपी) ने 16 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस ने दो और बीएसपी तथा आरएलडी के हिस्से में एक-एक सीट आई थी.
इस बार, आरएलडी-एसपी गठबंधन उम्मीद कर रहा था कि किसान आंदोलन की वजह से वो बीजेपी की संख्या में सेंध लगा पाएगा. दिप्रिंट से बात करते हुए आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी ने कहा कि गठबंधन कानून वापस लिए जाने से ‘विचलित नहीं’ है.
उन्होंने कहा, ‘पिछले एक साल में बहुत से बीजेपी नेताओं ने किसानों को आंदोलनजीवी और देश विरोधी कहकर पुकारा था. फिर अब किसान उन्हें वोट क्यों देंगे? इस फैसले के बाद भी वो इस सरकार के बहुत आभारी नहीं हैं’.
उन्होंने आगे कहा, ‘ये सरकार जनता के दबाव के आगे झुकी है. कल तक वो कह रहे थे कि जाट किसान नहीं हैं. आज वो कह रहे हैं कि किसानों को फायदा हुआ है. कल तक कृषि कानून लाभकारी थे, आज रोलबैक फायदेमंद है. इसलिए कुल मिलाकर ये केवल चुनावों के लिए प्रचार है. लेकिन पश्चिमी यूपी के किसान हमारे साथ हैं और वो हमें समर्थन देते रहेंगे’.
पूर्व यूपी सीएम और एसपी प्रमुख अखिलेश यादव ने भी कानून वापसी के पीछे राजनीतिक कोण की ओर इशारा किया था. शुक्रवार को लखनऊ में पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार का फैसला शुद्ध रूप से यूपी चुनावों में हार के डर से लिया गया है. उन्होंने कहा, ‘साफ नहीं है इनका दिल, चुनाव के बाद फिर ले आएंगे बिल ’.
एसपी के दूसरे नेताओं ने दिप्रिंट से कहा कि कानून वापसी से बीजेपी को सिर्फ ये फायदा हासिल हुआ है कि उसके नेताओं को अब इलाके में कम विरोध का सामना करना पड़ेगा.
‘जाटों का एक बड़ा वर्ग एसपी-आरएलडी गठबंधन के साथ है. वो बीजेपी के साथ नहीं जा रहे हैं, लेकिन ये सच है कि कम से कम अब बीजेपी सांसद और विधायक, पहले की अपेक्षा लोगों से ज़्यादा खुलकर बात कर सकते हैं, क्योंकि जाट क्षेत्रों में कई जगहों पर लोगों ने उनका बहिष्कार किया था,’ ये कहना था पूर्व राज्य सभा सांसद हरेंद्र मलिक का, जो हाल ही में कांग्रेस छोड़कर एसपी में आए हैं.
उन्होंने आगे कहा कि नए कानून क्षेत्र में कृषि से जुड़ा एक मात्र मुद्दा नहीं हैं.
उन्होंने कहा, ‘हज़ारों गन्ना किसानों को अपना बकाया भुगतान नहीं मिला है. पश्चिमी यूपी एक गन्ना क्षेत्र है और यहां पार्टियां गन्ने के मुद्दों पर हारती हैं. किसान ऊंचे बिजली बिलों से भी आहत हैं, इसलिए वो बीजेपी को वोट क्यों देंगे? मुझे यकीन है कि वो हमारे गठबंधन को अपना समर्थन देंगे’.
एसपी के एक सूत्र ने दिप्रिंट को बताया कि पार्टी अपना ध्यान किसानों के दूसरे मुद्दों की तरफ मोड़ेगी. सूत्र ने कहा, ‘पार्टी अब अपना ध्यान कई दूसरे स्थानीय मुद्दों पर लगाएगी, जैसे आवारा पशु, बिजली बिल, किसानों की आत्महत्याएं और यूरिया की किल्लत वगैरह. पार्टी ने सभी स्थानीय नेताओं को ऐसी समस्याओं की सूची बनाने को कहा है, जिसे पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में शामिल किया जाएगा’.
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भाजपा को कानून वापसी से चुनावों में मोहलत की उम्मीद
प्रदेश बीजेपी एक राहत की सांस ले रही है और उसे उम्मीद है कि कानून वापसी से पश्चिमी यूपी में लहर फिर उसके समर्थन में वापस आ जाएगी.
बागपत से बीजेपी विधायक योगेश धामा ने कहा, ‘हमारे लिए अब ये एक अच्छा फैसला है. हम अपने क्षेत्र में किसानों को आश्वस्त करेंगे कि हमारी सरकार बहुत किसान-समर्थक है. कृषि कानून बुरे नहीं हैं लेकिन विपक्षी नेताओं ने ऐसा प्रचार किया कि जैसे ये किसानों के लिए शाप हैं’.
उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन अब पीएम मोदी ने विपक्ष का मुख्य चुनावी मुद्दा उनसे छीन लिया है. इसलिए मुझे उम्मीद है कि किसानों का बहुमत बीजेपी के पक्ष में वोट देगा’.
उन्हीं के विचारों का समर्थन प्रदेश बीजेपी सचिव चंद्रमोहन ने भी किया, जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पार्टी गतिविधियों के प्रभारी हैं.
चंद्रमोहन ने कहा, ‘पीएम मोदी का ये कदम स्वागत योग्य है. जो किसान कृषि कानूनों से नाराज़ थे, अब हमारे पास वापस आ जाएंगे. वो भी हमारे ही लोग हैं, हालांकि बीजेपी के खिलाफ एक नकारात्मक नेरेटिव तैयार करके, विपक्षी दलों ने उन्हें लुभाने का प्रयास किया. लेकिन दिल से वो हमारे साथ थे और अब वो हमें ही वोट देंगे’.
लेकिन एक और बीजेपी विधायक ने, जो सामने नहीं आना चाहते थे, स्वीकार किया कि कृषि कानूनों ने जाट किसानों के एक वर्ग को पार्टी से दूर कर दिया था.
विधायक ने कहा, ‘ये हम सबके लिए बड़ी राहत है, जो जाट क्षेत्र में काम करते हैं. जाट किसानों का एक वर्ग मुस्लिम+यादव वोट बैंक के साथ एकजुट हो रहा था लेकिन अब वो समझ जाएंगे कि हम उनकी देखभाल करते हैं और हमारे पास लौट आएंगे. गैर-यादव ओबीसी हमारे साथ हैं, गुर्जर हमारे साथ हैं, इसलिए अगर जाटों का एक बड़ा वर्ग हमें वोट देता है, तो हम यहां से फिर भारी जीत हासिल करेंगे’.
लेकिन राजनीतिक विश्लेषक बीजेपी के आशावाद से सहमत नज़र नहीं आते.
यूपी स्थित राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर कविराज ने कहा, ‘कृषि कानूनों की वापसी विधानसभा चुनावों से बस कुछ महीने पहली ही हुई है. अब विपक्ष निश्चित ही इस बात को उठाएगा कि ये राजनीति से प्रेरित है, जिसका मकसद किसानों और खासकर जाटों के वोट हासिल करना है’.
उन्होंने आगे कहा, ‘अगर ये वापसी पहले हो जाती, तो बीजेपी के लिए ज्यादा फायदेमंद रहती. लेकिन मुझे लगता है कि उन्होंने देर कर दी है. इन तीन कृषि कानूनों के अलावा, किसान दूसरे मुद्दों से भी बहुत नाराज़ हैं, जैसे एमएसपी, गन्ना किसानों का बाकाया, यूरिया और आवारा पशु वगैरह. अगर आप किसी गांव में जाएं, तो आपको हर दूसरा व्यक्ति आवारा पशुओं के बारे में बात करता मिलेगा’.
उन्होंने आगे कहा, ‘इसके अलावा, पश्चिमी यूपी में जाटों का एक बड़ा वर्ग आरएलडी के पीछे है, जिसने एसपी के साथ हाथ मिलाया है. अगर आप जाट, मुसलमान, यादव और कुछ अन्य ओबीसी वर्गों को मिला लें, तो इस मेल के पास पश्चिम यूपी के 35 प्रतिशत से अधिक वोटों का असर होगा’.
दूसरी ओर मेरठ विश्वविद्यालय की राजनीतिक शास्त्र फैकल्टी के सदस्य, प्रोफेसर पवन शर्मा का कहना था कि कृषि कानूनों की वापसी, चुनावों में कोई मुद्दा ही नहीं रहेगा.
उन्होंने कहा, ‘लोग विकास और दूसरे स्थानीय मुद्दों पर वोट देंगे. एक छोटा हिस्सा राष्ट्रवाद के मुद्दे पर वोट दे सकता है, क्योंकि जानता के बीच खासकर युवाओं में वो अभी भी मौजूद है. इसलिए कृषि कानूनों की वापसी का एक ‘गेम-चेंजर’ के तौर पर विश्लेषण करना सही नहीं है. पहले भी, मुझे लगता है कि कृषि कानून एकमात्र मुद्दा नहीं थे. पश्चिमी यूपी की सियासत में स्थानीय मुद्दों की एक बड़ी भूमिका रहती है’.
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