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Sunday, 23 June, 2024
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श्यामा प्रसाद मुखर्जी के रूप में भाजपा ने 2021 के विधानसभा चुनावों के लिए बंगाली हिंदुत्व आइकन की खोज कर ली है

मोदी सरकार ने जनवरी में 150 साल पुराने कोलकाता पोर्ट का नाम बदलकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी पोर्ट कर दिया था. बंगाल बीजेपी ने एक महान बंगाली नेता के तौर पर, उनके गुणगान के लिए कार्यक्रम लॉन्च किए हैं.

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कोलकाता: बीजेपी की पश्चिम बंगाल इकाई ने 2021 के विधानसभा चुनावों की तैयारी शुरू कर दी है, जहां पिछले कुछ दिन से ये काफी पैठ बना रही है और बंगाली आइकन के तौर पर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की ओर देख रही है.

मुखर्जी जो किसी समय पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में शामिल थे, बाद में अलग हो गए और भारतीय जनसंघ का गठन किया, जो बीजेपी की पूर्ववर्ती थी.

लेकिन बंगाल में वो गुमनामी के अंधेरे में चले गए- वो राज्य जो उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी को ‘बांगलार बाघ’ (बंगाल टाइगर) के तौर पर याद करता है, जो अग्रेज़ी शासन के खिलाफ खड़े हुए थे.

अपने समय के एक सबसे प्रतिष्ठित बैरिस्टर, शिक्षाविद और न्यायविद होने के नाते, कोलकाता में बहुत से कॉलेजों और सड़कों के नाम, आशुतोष मुखर्जी और उनकी मां जोगामाया देवी के नाम पर हैं लेकिन प्रदेश की राजधानी में केवल एक सड़क जनसंघ के संस्थापक और हिंदू महासभा के लीडर की याद में समर्पित है.

बंगाल की पाठ्यपुस्तकों में भी मुखर्जी का उल्लेख नहीं है, न ही राज्य में किसी अन्य रूप में उनका गुणगान किया जाता है.

बीजेपी अब इसे बदलने पर विचार कर रही है.

पिछले एक साल में, केंद्र सरकार के कुछ प्रमुख अधिष्ठानों का नाम मुखर्जी के नाम पर कर दिया गया है और साथ ही उन्हें राज्य और देश में फिर से प्रासंगिक बनाने के लिए कुछ पुराने दस्तावेज़ों को फिर से छापा जा रहा है.

इस साल जनवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 150 साल पुराने, नदी किनारे बने कोलकाता पोर्ट का नाम बदलकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी पोर्ट कर दिया.

राज्य के गवर्नर के सरकारी आवास, एक शताब्दी पुराने राजभवन में भी कॉरीडोर के अंदर उनकी एक तस्वीर लगाई गई है, जिसके साथ रबींद्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे दूसरे बंगाली आइकन्स की तस्वीरें हैं. राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने पिछले महीने राजभवन में मुखर्जी का जन्मदिवस मनाया- ऐसा करने वाले वो राज्य के पहले गवर्नर थे.

डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक अनिर्बान गांगुली के अनुसार इंडियन एसोसिएशन ऑफ कल्टीवेशन ऑफ साइंस के स्मार्ट कैम्पस को भी केंद्र सरकार उन्हीं का नाम देगी.

गांगुली ने कहा कि फाउंडेशन साउथ कोलकाता में, उनके एक घर के एक हिस्से को भी मेमोरिल में तब्दील करना चाहती थी लेकिन परिवार के कुछ एतराज़ के बाद ऐसा नहीं हो पाया.

गांगुली ने कहा, ‘सिलेबस और किताबों में मुखर्जी के उल्लेख को, जानबूझकर और सियासी कारणों से दबाया गया. पिछले साल से हमने एक कार्यक्रम शुरू किया है, जिसमें उनके नाम को बंगाल के सभी छोटे बड़े शहरों तक ले जाया जाएगा’.

उन्होंने आगे कहा, ‘अमित शाह जी ने हमसे उनके कार्यों और भूमिका पर बहस शुरू करने के लिए कहा है. हमने सभी ज़िलों का दौरा करके, स्थानीय बुद्धिजीवियों के साथ बैठकें कीं हैं. लेकिन हमें ये देखकर हैरत हुई कि वो बंगाल में अभी भी प्रासंगिक हैं’.


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बीजेपी का कथानक

प्रदेश नेताओं का कहना है कि मुखर्जी को बंगाल के महान नेता के तौर पर महिमा मंडित करने का विचार गृह मंत्री अमित शाह के दिमाग की उपज है.

नाम न बताने की शर्त पर एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने इस बात की तरफ इशारा किया कि शाह और मोदी की भारत की परिकल्पना, मुखर्जी की राष्ट्र की अवधारणा से मेल खाती है. ‘यही वजह है कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासन में, मुखर्जी और उनके विचारों को उतनी शोहरत नहीं मिली, जितनी अब मिल रही है’.

अपने पूरे जीवन में मुखर्जी, जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे के खिलाफ रहे.

वरिष्ठ बीजेपी नेता और मेघालय के राज्यपाल तथागत रॉय, जो मुखर्जी के जीवनीकार भी हैं, ने कहा, ‘1952 तक देश में, जम्मू-कश्मीर जिसका एक अभिन्न अंग था, दो प्रधानमंत्री थे, नेहरू और (शेख) अब्दुल्लाह, दो राष्ट्राध्यक्ष थे, भारतीय गणतंत्र के राष्ट्रपति और जम्मू-कश्मीर के सदर-ए-रियासत, दो संविधान थे, जिनमें से एक अभी अधूरा था और दो ध्वज थे’.

उन्होंने आगे कहा, ‘क्या दुनिया के किसी देश ने जो अपने किसी हिस्से को राष्ट्र का अभिन्न अंग समझता हो, खुद को इतनी अपमानजनक स्थिति में रखा है? यही वो अपमान था जिसके खिलाफ दहाड़ते हुए डॉ मुखर्जी ने कहा था ‘एक देश में दो विधान, दो निशान, नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे’.

रॉय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, लाइफ एंड टाइम्स  के लेखक हैं.

बीजेपी अब बंगाल में मुखर्जी को ‘धरती पुत्र’ के तौर पर प्रोजेक्ट करना चाह रही है जिन्होंने बटवारे के समय पश्चिम बंगाल, खासकर कोलकाता को पश्चिम बंगाल के साथ रखने के लिए आंदोलन की अगुवाई की.

बीजेपी की बुद्धिजीवी विंग, जिसमें अनिर्बान गांगुली और राज्य सभा सांसद स्वपन दासगुप्ता शामिल हैं, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, बटवारे और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के कथानक को आगे बढ़ाने के लिए, अलग-अलग समूहों तक पहुंच रही है.

बीजेपी सीएए को मुखर्जी की एक और ‘इच्छा’ बता रही है, ये कहकर कि इससे बटवारे के शिकार हिंदू बंगाली पीड़ितों को नागरिकता मिल जाएगी.

लेकिन राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि इस रणनीति की सफलता काफी कुछ इस पर निर्भर करेगी कि ‘औसत बंगाली भद्रलोक’ इस कथानक से कितने संतुष्ट होते हैं.

कलकत्ता यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर समीर दास ने कहा, ‘बीजेपी ने एक ऐसी शख़्सियत को चुना है जिसे बंगाल लगभग भूल चुका है. अब देखना ये है कि एक औसत बंगाली भद्रलोक, उनके और उनकी विचारधारा के साथ कैसे जुड़ेग’. उन्होंने कहा कि राज्य में युवा और अधेड़ लोग, मुखर्जी के बारे में कुछ ज़्यादा नहीं जानते.

‘डॉ मुखर्जी को लेकर ये अचानक उत्साह, कम्युनिस्टों के उस सोचे समझे एक्शन का दूसरा चरम रूप है, जिसमें उन्होंने मुखर्जी को गुमनामी में धकेल दिया था’. उन्होंने आगे कहा, ‘इस तरह के स्विच-ऑन, स्विच-ऑफ फेज़, उनके चरित्र या अखंड भारत के उनके साहसी और अनोखे विचारों को, कभी सामने नहीं ला सके. वो हमेशा से इन दो चरम स्थितियों के बीच झूलते रहे हैं’.

उन्होंने आगे कहा, ‘2012 में जेएनयू में अपने कार्यकाल के दौरान, वहां मैं उनके बारे में चर्चाएं सुनता और देखता था. लेकिन उनका गृह राज्य उनके विचारों से ज़्यादातर अंजान ही रहा. कुछ समय से बीजेपी उन्हें एक बंगाल आइकन के रूप में प्रोजेक्ट कर रही है. लेकिन मुझे लगता है कि ये अधूरे मन से हो रहा है और राजनीति से प्रेरित है. संघीय भारत और देश की सीमाओं और राज्यों के बारे में उनके विचारों का कोई विश्लेषण नहीं हो रहा है. भारतीय राजनीति में वो पहले भी अकेले थे, अभी भी अकेले हैं’.


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‘सबसे गलत समझा गया, सबसे कम विश्लेषण हुआ’

बीजेपी मुखर्जी को प्रकाश में लाना चाह रही है लेकिन कोलकाता में उनके परिवार के सदस्यों को लगता है कि ‘निहित राजनीतिक स्वार्थों’ के लिए उनका व्यापक रूप से इस्तेमाल हो रहा है.

दिप्रिंट से बात करते हुए मुखर्जी के भतीजे जस्टिस (रिटा.) चित्ततोष मुखर्जी, जो कलकत्ता और बॉम्बे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश रह चुके हैं, ने कहा, ‘उनके चरित्र और उनके विचारों का सही से मूल्यांकन नहीं हुआ है. सिर्फ संस्थानों और अधिष्ठानों का नाम उनके ऊपर रख देने से, उनके विचारों और उनकी शख़्सियत के साथ इंसाफ नहीं होगा’.

उन्होंने आगे कहा, ‘मुझे देखकर दुख होता है कि बहुत सी गलत जानकारियां, कुछ पत्र और डॉक्युमेंट्स टुकड़ों-टुकड़ों में या तो छप रहे हैं या फिर चलन में हैं. वो तथ्यों को गलत ढंग से पेश करते हैं. कुछ राजनेता उन्हें बटवारे के लिए ज़िम्मेदार मानते हैं, संदर्भ से हटकर हवाला देते हैं. उस समय बटवारा लाज़मी था और सही सोच रखने वाले सभी बंगाली बुद्धिजीवियों ने उसकी हिमायत की’.

पूर्व जज ने कहा कि पश्चिम बंगाल ‘कभी वजूद में न आता’ अगर सूबे के दो हिस्से न किए गए होते. ‘अगर कोई बटवारा न होता तो पश्चिम बंगाल कभी वजूद में न आता और वो पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा होता. सबसे अहम बात ये है कि भारत, उत्तर-पूर्वी प्रांतों तक पहुंचने का रास्ता गंवा देता’.

उन्होंने आगे कहा, ‘वो (मुखर्जी) उस समय ट्रीटी ऑफ सॉवरन बंगाल के खिलाफ थे क्योंकि मुस्लिम लीग पूर्वी पाकिस्तान में ऐसा चाहती थी. इतिहास में कई जटिल मुद्दे होते हैं, जिनसे अब कोई डील नहीं करना चाहता और सभी पार्टियां उनके व्यक्तित्व पर सियासत कर रही हैं’.

बीजेपी के प्रयासों पर जस्टिस मुखर्जी ने कहा कि उनके अंकल वीडी सावरकर के ‘हिंदू महासभा के उग्रवादी विचारों’ से कभी उत्साहित नहीं थे.

श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिंदू महासभा के लीडर रहे थे, जिसकी स्थापना विनायक दामोदर सावरकर, मदन मोहन मालवीय और लाला लाजपत राय ने की थी.

जस्टिस मुखर्जी ने बताया, ‘वो सावरकर के हिंदू महासभा के विचार से सहमत नहीं थे. इसको लेकर पत्र भी लिखे गए थे’.

उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन भारत के उनके विचार, बंगाली हिंदुओं के लिए उनके संघर्ष और तुष्टीकरण की नीतियों के खिलाफ उनकी लड़ाई पर कभी कोई चर्चा नहीं हुई. अपने निहित स्वार्थ साधने के लिए सियासी पार्टियां उनका पार्ट-टाइम अध्ययन करती हैं’.

उनका कहना था कि मुखर्जी ने नेतृत्व के उस खाली स्थान को भरने की कोशिश की जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस विदेशी सहायता लेने के लिए बंगाल छोड़कर चले गए थे और उसके बाद एक अन्य वरिष्ठ कांग्रेसी नेता शरत बोस को जेल में डाल दिया गया था.


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‘हीरो कभी नहीं’

लेकिन सत्ताधारी त्रिणमूल कांग्रेस को लगता है कि मुखर्जी को एक बंगाली आइकन के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं किया जा सकता.

टीएमसी के वरिष्ठ सांसद प्रोफेसर सौगत रॉय ने कहा, ‘बीजेपी के पास कोई बंगाली आइकन नहीं है. पहले उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय को लाने की कोशिश की लेकिन यहां उनके बारे में कोई कुछ नहीं जानता’.

उन्होंने आगे कहा, ‘किसी बंगाली चेहरे की ज़रूरत महसूस करते हुए उन्होंने श्यामा प्रसाद का नाम लेना शुरू कर दिया. लेकिन उनके बारे में ज़रा सी रिसर्च से पता चल जाएगा कि उनके जीवनकाल में बंगालियों ने उन्हें कभी हीरो या आइकन नहीं समझा. जितने भी बंगाली देशभक्त आज़ादी की लड़ाई में शरीक थे, वो सब जेल गए, सिवाय उनके. केवल जनसंघ के सदस्यों और बाद में कम्युनिस्टों का आज़ादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं रहा’.

रॉय ने ये भी कहा, ‘स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका बंगाल में और भी बदनाम हुई, चूंकि वो अब्दुल कासिम फज़लुल हक़ की कैबिनेट में शामिल हो गए थे. उस समय उन्हें श्यामा हक़ कहा जाता था. आज़ादी के बाद कुछ समय के लिए उनकी बहुत बड़ी छवि बन गई, जब वो बंगाली हिंदुओं के लिए लड़े और पश्चिम बंगाल को भारत में शामिल करने में अहम भूमिका निभाई. शिक्षा में भी उनका प्रमुख योगदान रहा और वो कलकत्ता यूनिवर्सिटी के सबसे युवा वाइस-चांसलर बने’.

रॉय मेघालय के गवर्नर तथागत रॉय के छोटे भाई हैं, जो मुखर्जी के एकमात्र जीवनीकार हैं.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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