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Saturday, 16 November, 2024
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भाजपा 2022 में पंजाब चुनाव में सहयोगी अकाली दल से हो सकती है अलग, ग्रामीण कैडर तैयार करने पर जोर

अकाली दल प्रमुख सुखबीर सिंह बादल की सीएए पर टिप्पणियों के बाद तनावपूर्ण संबंधों के साथ भाजपा ने अगले विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव लड़ने की तैयारी शुरू कर दी है.

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चंडीगढ़: दशकों पुराने गठबंधन सहयोगी शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) के साथ संबंधों में तनाव के कारण भाजपा 2022 पंजाब विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने की उम्मीद के साथ तैयारी शुरू कर दी है. यह बदलाव पार्टी की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा है.

भाजपा नेताओं ने दिप्रिंट को बताया, पंजाब में शहरी क्षेत्रों तक सीमित अपने मूल वोट के साथ पार्टी पंजाब के ग्रामीण इलाकों में नए कैडर को बढ़ाने का फैसला किया है, जिसका लक्ष्य प्रमुख सिख नेताओं को साथ लाने का है, जिसमें से कई नेता अकाली दल के हैं.

भाजपा सूत्रों ने कहा, ‘अकाली दल को सिख किसानों की एक पंथ पार्टी माना जाता है- अकाली दल से अलग होने पर भाजपा हिंदुओं के अपने मूल वोट में खींचने की कोशिश कर रही है. पंजाब में हिंदू बड़े पैमाने पर कांग्रेस को वोट देते रहे हैं.

दिप्रिंट से बात करते हुए पंजाब के पूर्व कैबिनेट मंत्री और राज्य के वरिष्ठ भाजपा नेता मदन मोहन मित्तल ने कहा कि पार्टी ने ग्रामीण क्षेत्रों में काम करना शुरू कर दिया है.

उन्होंने कहा, ‘हमें इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि पंजाब मुख्य रूप से एक कृषि राज्य है और किसान प्रमुख हितधारक हैं. भाजपा ने कभी भी किसानों पर ध्यान केंद्रित नहीं किया. अगर बीजेपी का इरादा राज्य में पार्टी को बढ़ाने का है तो वर्तमान में इसे किसानों तक पहुंचाना होगा.

मित्तल ने कहा, ‘पार्टी पहले से ही पंजाब के ग्रामीण इलाकों में अपना कैडर बढ़ाने पर काम कर रही है.’

नया नेतृत्व और सीट साझा करने का मुद्दा

पूर्व विधायक अश्विनी शर्मा ने पिछले महीने नए पंजाब भाजपा अध्यक्ष के रूप में पदभार संभाला है, इसलिए पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने गठबंधन के बिना राज्य में 2022 के विधानसभा चुनाव लड़ने की इच्छा व्यक्त की है. जब शर्मा ने पदभार संभाला, तो पूर्व कैबिनेट मंत्री मास्टर मोहन लाल ने पत्रकारों से कहा कि यह सही समय है कि पार्टी को अकाली दल से गठबंधन तोड़ लेना चाहिए.

हालांकि, मित्तल अपनी मांग में अधिक व्यावहारिक थे और उन्होंने कहा कि भाजपा को अब राज्य में बड़े भाई की भूमिका में आना चाहिए. अकाली दल और भाजपा के बीच सीटों को समान रूप से बांटा किया जाना चाहिए. 117 सीटों वाले सदन में बीजेपी को 59 और अकाली दल के पास 58 सीटें होनी चाहिए.


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सहयोगी दलों के साथ वर्तमान सीट-बंटवारे के फार्मूले के अनुसार विधानसभा चुनाव में अकालियों ने 94 सीटों और भाजपा ने 23 सीटों पर चुनाव लड़ा था. वहीं पंजाब की 13 संसदीय सीटों में से अकालियों ने 10 पर और भाजपा ने तीन पर चुनाव लड़ा था.

तनावपूर्ण संबंध

दिसंबर में पुराने सहयोगी अकाली दल और भाजपा के संबंधन तनाव में आ गए थे, जब अकाली दल के प्रमुख और लोकसभा सांसद सुखबीर सिंह बादल ने नागरिकता संशोधन विधेयक (कैब) पर संसद में बहस के दौरान पहली बार सार्वजनिक तौर पर हमला बोला था.

अकाली दल ने संसद में विधेयक पारित होने का समर्थन किया था, लेकिन उन्होंने मुसलमानों को बाहर करने के लिए इसकी आलोचना की और उनके समावेश की मांग की थी. फिर उन्होंने विभिन्न मंचों पर इस बात को दोहराया. यह वह समय था जब नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर बीजेपी विपक्ष के निशाने पर थी, जो 2014 के बाद बीजेपी के पहले बड़े आंदोलन में बदल गया.

अपने मज़बूत सहयोगी की इस चुनौती ने भाजपा नेतृत्व को दिल्ली विधानसभा चुनाव में अकाली दल को बाहर रखने के लिए मजबूर कर दिया.

दिल्ली की नाकामयाबी

दिल्ली चुनाव के लिए सहयोगी दलों के बीच अलिखित एग्रीमेंट के अनुसार, अकाली दल चार सीटों (राजौरी गार्डन, शहादरा, हरिनगर और कालकाजी) पर चुनाव लड़ेगी, लेकिन भाजपा के चुनाव चिन्ह पर 2013 के दिल्ली चुनाव में अकालियों ने इन चार में से तीन पर जीत हासिल की थी. वहीं 2015 में फिर से चुनाव हुए उनमें से सभी हार गए. 2017 में, अकाली दल के मनजिंदर सिंह सिरसा ने राजौरी उपचुनाव जीता था.

हालांकि, अकालियों ने कई वर्षों से भाजपा से दिल्ली में अपने प्रतीक पर चुनाव लड़ने की अनुमति देने के लिए दबाव डालती रही है. लेकिन, भाजपा ने इसे अस्वीकार्य कर दिया.

अकाली दल के सूत्रों ने कहा कि बादल ने इस बार मांग नहीं की. परिणामस्वरूप, दिल्ली चुनाव में गठबंधन ख़त्म हो गया.

हालांकि, अकाली दल ने जल्दबाजी में वापसी की और भाजपा को बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा की. इसका मुख्य कारण यह था कि अकाली दल को एक आंतरिक संकट का सामना करना पड़ा था, क्योंकि राज्यसभा सदस्य सुखदेव सिंह ढींडसा अपने विधायक बेटे परमिंदर सिंह ढींडसा के साथ बागी अकालियों की श्रेणी में शामिल हो गए थे.

बीजेपी में बगावत का बिगुल?

सूत्रों ने कहा कि भाजपा नेतृत्व ने संगरूर और बरनाला में अकाली दल के खिलाफ अपनी रैलियों के दौरान ढींडसा को मौन समर्थन दिया था, अकालियों ने इस संभावना का खंडन किया.

अकाली दल के महासचिव दलजीत सिंह चीमा ने कहा, ‘मदन मोहन मित्तल रविवार को संगरूर में अकाली रैली में मौजूद थे और उन्होंने स्पष्ट किया कि दोनों दलों के बीच गठबंधन हमेशा की तरह मजबूत है.’


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मित्तल ने कहा कि भाजपा के पास कई सिख नेताओं का प्रस्ताव है, जो भाजपा में शामिल होना चाहते हैं, लेकिन भाजपा किसी भी अकाली बागी को नहीं लेना चाहती. इन नेताओं ने दिखाया है कि वे किसी के प्रति वफादार नहीं हैं और ऐसे राजनेताओं के लिए भाजपा में कोई जगह नहीं है.

ढींडसा ने कहा कि उनका समूह चुनावों में अकाली दल के खिलाफ निश्चित रूप से तैयार हो जाएगा, लेकिन यह कहना जल्दबाजी होगी कि क्या वे भाजपा के साथ जुड़ेंगे या राज्य में अकेले जाएंगे.

ढींडसा ने कहा, हमने अभी-अभी अपने ऑपरेशन शुरू किए हैं. किसके साथ हाथ मिलाना है, यह तय करने का वक्त है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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