रायपुर/छत्तीसगढ़: छत्तीसगढ़ की आदिवासी राजनीति, जो राज्य के 23 वर्षों में काफी हद तक एक द्विध्रुवीय मामला रही है, ये पिछले साल के भानुप्रतापपुर उपचुनाव में जबरदस्त प्रदर्शन के बाद से इसके हौंसले बुलंद है.
सर्व आदिवासी समाज संगठव (एसएएसएस), आईपीएस, आईएएस और आईआरएस के साथ-साथ राज्य सिविल सेवाओं के रिटायर अधिकारियों के एक मंच द्वारा मैदान में उतारे गए उम्मीदवार को दिसंबर 2022 के उपचुनाव में 16 प्रतिशत वोट मिले थे.
पूर्व उप महानिरीक्षक (डीआईजी) अकबर राम कोर्रम ने चुनाव में तीसरा स्थान हासिल किया, कांग्रेस ये चुनाव आसानी से जीत गई थी.
एसएएसएस अब साल के अंत में होने वाले चुनाव में राज्य की 90 विधानसभा सीटों में से 50 पर चुनाव लड़ना चाह रही है.
29 आदिवासी-आरक्षित सीटों के अलावा, संगठन लगभग 20 सामान्य सीटों पर नज़र गड़ाए हुए है जहां अनुसूचित जनजाति (एसटी) की आबादी 20,000-40,000 है.
पूर्व सांसद अरविंद नेताम, जिन्होंने इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकारों में मंत्री रहे थे अब, एसएएस का नेतृत्व करते हैं.
दिप्रिंट से बात करते हुए, नेताम ने कहा कि छत्तीसगढ़ की आदिवासी राजनीति पिछले 23 वर्षों में “दिशाहीन” हो गई है.
भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली राज्य की कांग्रेस सरकार का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, “जल, जंगल, भूमि कानूनों और पेसा कानून जैसे मसलों को लेकर जो आदिवासी पिछले 15 साल से भाजपा की सरकार से लड़ता रहा वह भी ठगा गया.”
उन्होंने आगे कहा, “पेसा कानून तो लागू हुआ लेकिन भाषा बदल दी गई. आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के अधिग्रहण या उपयोग के लिए ग्राम सभा से अनुमति, लेने का पेसा कानून में उल्लेख है लेकिन राज्य सकार ने इसे लागू करते समय, अनुमति, की जगह, परामर्श, शब्द का नियम बना दिया.”
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आदिवासी राजनीति
छत्तीसगढ़ की आबादी 2.75 करोड़ है, जिसमें से 34 फीसदी आदिवासी हैं.
आदिवासियों के लिए आरक्षित 29 सीटों के अलावा, समुदाय के सदस्य दो अन्य सीटों से भी चुनाव लड़ते हैं जहां वे बहुमत में हैं.
2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 28 आदिवासी सीटों पर जीत हासिल की थी.
इस बीच, लोकसभा स्तर पर, राज्य की 11 सीटों में से 4 – बस्तर, कांकेर, रायगढ़ और सरगुजा – एसटी के लिए आरक्षित हैं. कांग्रेस ने 2019 में सिर्फ बस्तर जीता, बाकी 3 बीजेपी के खाते में गईं.
सरगुजा की सांसद रेणुका सिंह केंद्रीय जनजातीय मामलों की राज्य मंत्री हैं.
मुख्यमंत्री के रूप में, बघेल एक गहन आदिवासी आउटरीच का प्रयास कर रहे हैं. शपथ ग्रहण करने के तुरंत बाद, उन्होंने आदिवासियों की हजारों एकड़ जमीन वापस कर दी, जिसे राज्य सरकार ने एक प्रस्तावित टाटा स्टील परियोजना के लिए अधिग्रहित किया था, लेकिन उसमें काम शुरू ही नहीं हुआ.
इसके अलावा सरकार ने जिस तरह किसानों के धान का समर्थन मूल्य बढ़ाया उसी तरह वनोपज में न केवल मूल्य बढ़ाया बल्कि उसके बाजार की व्यवस्था सुनिश्चित की.
पूर्व स्थानीय निर्वाचन आयुक्त व राजनीतिक विश्लेषक डॉ. सुशील कुमार त्रिवेदी का मानना हैं कि अविभाजित मध्यप्रदेश से लेकर मौजूदा छत्तीसगढ़ तक राजनीतिक तौर पर दोनों ही राज्यों में सिर्फ आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग ही होती रही है.
उन्होंने कहा, लेकिन उनके सामाजिक और आर्थिक उत्थान के नाम नाम पर बड़े आदिवासी नेताओं के परिवार फलते फूलते रहे और अब भी वही हो रहा है.
लेकिन बस्तर से ही पूर्व मंत्री और प्रदेश भाजपा के नेता महेश गागड़ा इस तरह की दलीलों को खारिज करते हुए कहते हैं कि यदि राजनीतिक तौर पर आदिवासी जागृत नहीं होता तो नौकरशाही का रूझान इधर नहीं होता.
वे अपना स्वंय का उदाहरण देते हुए कहते हैं उनके परिवार से कोई राजनीति में नहीं था लेकिन वे विधायक बने मंत्री बने.
दि प्रिन्ट से बातचीत में गागड़ा ने कहा कि दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दलों में रिटायर्ड आइएएस आइपीएस और अन्य सेवाओं के अफसर विधायक बने हैं. हाल ही में एक और आइएएस अफसर ने चुनाव लड़ने की तैयारी से इस्तीफा दिया है. इसलिए यह कहना ठीक नहीं कि होगा कि आदिवासी राजनीति की धार कुन्द हो गई हो या कमतर है.
जोगी फैक्टर
दरअसल राज्य की आदिवासी राजनीति को भौगोलिक दृष्टि से भी देखने की जरूरत हैं क्योंकि राज्य के दक्षिण में बस्तर और उत्तर में सरगुजा संभाग हैं . बस्तर में 12 और सरगुजा मे 14 आदिवासी सीटे हैं.
वर्ष 2000 में अजीत जोगी जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होने अपने आप को दस्तावेजों में आदिवासी घोषित कर आदिवासी के लिए सुरक्षित मरवाही विधानसभा सीट से उपचुनाव लड़ा और जीता.
उस समय सरगुजा संभाग के कद्दावर आदिवासी नेता रहे नंदकुमार साय को भाजपा ने छत्तीसगढ़ विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया था. तब साय के सामने दोहरी चुनौती थी. पहली ये कि अजीत जोगी को नकली आदिवासी साबित करना और दूसरी यह कि भाजपा को राज्य में स्थापित करना.
मसलन 2003 में भाजपा को 25 आदिवासी सीटें मिलीं जिसमें 11 बस्तर में और 14 सरगुजा संभाग में . 2008 में भाजपा को 19 आदिवासी सीटें मिलीं जिसमें 11 बस्तर में और 8 सरगुजा में. 2013 में 11 सीटें मिली जिसमें 5 बस्तर में 6 सरगुजा में .
इन आदिवासी सीटों के बूते भाजपा सत्ता में आती रही लेकिन जैसे ही अजीत जोगी कांग्रेस की राजनीति से अप्रासंगिक हुए 2018 में कांग्रेस को आदिवासियों ने जमकर वोट दिया और 27 सीटें मिली और भाजपा को सिर्फ 2 सीटें .
अविभाजित मध्य प्रदेश से लेकर अब तक देखा जाय तो कांग्रेस के राजनीतिक इतिहास में आदिवासी क्षेत्रो में ऐसी सफलता नही मिली थी.
हाल ही में कांग्रेस में आए वरिष्ठ आदिवासी नेता नंदकुमार साय ने प्रिन्ट से कहा कि भाजपा में आदिवासियों को मुखौटे के रूप में उपयोग करने का प्रचलन हैं.
उन्होंने बताया, “23 साल से मेरे साथ यही हुआ.”
उन्होंने कहा कि जिस तरह एक आदिवासी महिला (द्रौपदी मुर्मू)को राष्ट्रपति बनाकर पूरे देश में आदिवासी सम्मान का ढिढ़ोरा पीटा गया और जब संसद भवन के उद्घाटन का समय आया तो राष्ट्रपति के हाथों उद्घाटन तो दूर उन्हें बुलाया तक नहीं गया, उन्होंने कहा, “इसे आप क्या कहेगें?
(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार है.)
(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)
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