अगरतला: त्रिपुरा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के स्टेट सेक्रेटरी जितेंद्र चौधरी ने दावा किया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और अन्य प्रमुख नेताओं के चुनाव प्रचार में उतरने के बावजूद राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा इस सप्ताह होने वाले विधानसभा चुनावों में इकाई के आंकड़े पर सिमटकर रह जाएगी.
माकपा नेता चौधरी ने रविवार को दिप्रिंट से बातचीत में कहा, ‘‘मैं पुरजोर तरीके से कह सकता हूं कि भाजपा को मिलने वाली सीटों संख्या इकाई के आंकड़े में ही रह जाएगी. सच्चाई यही है. भाजपा का एक भी उम्मीदवार यह नहीं कह सकता कि मेरी सीट सुरक्षित है. यही कारण है कि असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा—जो पिछले पांच सालों से त्रिपुरा भाजपा सरकार के फ्रैंड, फिलॉस्फर और गाइड रहे हैं और राज्य में मौजूदा अराजकता के लिए भी जिम्मेदार हैं—उनके जैसे लोग बड़े-बड़े दावे करने में लगे हैं.’’
चौधरी ने यह बात आगामी चुनाव में राज्य में वाम-कांग्रेस गठबंधन का मिलने वाली सीटों के संदर्भ में बिस्व सरमा के ‘जीरो प्लस जीरो बराबर जीरो’ वाले ताने के जवाब में कही.
गौरतलब है कि 25 साल में पहली बार त्रिपुरा में वाम मोर्चे का चेहरा पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार नहीं बल्कि चौधरी हैं, जो कई बार राज्य के मंत्री रहे हैं और लोकसभा के पूर्व सांसद भी हैं.
हालांकि, कोई औपचारिक घोषणा नहीं हुई है, लेकिन कांग्रेस और वाम दोनों के शीर्ष सूत्रों ने दिप्रिंट से पुष्टि की है कि गठबंधन के सत्ता में आने की स्थिति में चौधरी ही मुख्यमंत्री होंगे.
हालांकि, चौधरी ने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर उनके नाम की घोषणा करने में उनकी पार्टी की हिचकिचाहट से जुड़े सवाल को टाल दिया. इसके बजाय, उन्होंने भारत पर एकात्मक नजरिये को लेकर भाजपा पर जमकर निशाना साधा.
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‘आदिवासियों के प्रति भाजपा का रुख नकारात्मक है’
तिपराहा स्वदेशी प्रगतिशील क्षेत्रीय गठबंधन (टीआईपीआरए) मोथा के उदय ने राज्य में आदिवासियों के मुद्दों को सभी दलों के चुनावी एजेंडे में सबसे आगे ला दिया है. तिपरा मोथा आदिवासियों के लिए ग्रेटर तिप्रालैंड बनाने की वकालत भी कर रहा है.
खुद एक आदिवासी नेता चौधरी ने कहा, ‘‘अपने 35 साल के शासन में हमने साबित कर दिया है कि आदिवासियों के विकास के लिए राज्य का बंटवारा ज़रूरी नहीं है.’’
हालांकि, उन्होंने आदिवासी आबादी के प्रति भाजपा के दृष्टिकोण की सबसे अधिक आलोचना की.
चौधरी ने कहा, ‘‘देश में 11 करोड़ अनुसूचित जनजाति आबादी है. उनके प्रति भाजपा का दृष्टिकोण नकारात्मक ही है. भारत के बारे में उनकी दृष्टि हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान है जहां आदिवासियों के लिए कोई जगह नहीं है. वे उस शब्द का उपयोग भी नहीं करते हैं. क्योंकि वे उन्हें स्वदेशी लोगों के रूप में स्वीकार ही नहीं करते हैं. वे उन्हें वनवासी कहते हैं. यह अपमानजनक है.’’
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‘लोगों ने कांग्रेस-वाम दलों को साथ आने पर मजबूर किया’
चौधरी ने कहा कि त्रिपुरा में दो पारंपरिक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों वाम मोर्चा और कांग्रेस ने साथ आने का फैसला लोगों की इच्छा को देखते हुए लिया था.
चौधरी ने कहा, ‘‘आम तौर पर चुनाव के दौरान राजनीतिक दल एजेंडा सेट करते हैं, लेकिन इस बार त्रिपुरा में लोगों ने एजेंडा तय किया और यह एजेंडा है कानून और संवैधानिक व्यवस्था की बहाली. लोगों ने धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक पार्टियों को साथ आने के लिए बाध्य कर दिया. कांग्रेस के साथ वैचारिक और व्यावहारिक तौर पर मतभेद कायम हैं, लेकिन अगर संसद या विधानसभा नहीं होगी तो कोई बहस नहीं हो सकती. हम मोथा का भी साथ चाहते थे, लेकिन बात नहीं बनी.’’
उन्होंने माना कि मोथा को कुछ आदिवासी सीटों पर बढ़त हासिल होगी, लेकिन उन्हें विश्वास है कि गठबंधन भाजपा की बुरी तरह हार सुनिश्चित करेगा. उन्होंने भाजपा के घोषणापत्र को एक ऐसी टीम की तरफ से लाया गया दस्तावेज़ करार दिया, जिसे ‘पहले से ही हार की आशंका की सता रही है’.
उन्होंने कहा, ‘‘ऐसा लगता है कि भाजपा का घोषणापत्र एक पराजित मानसिकता वाली टीम ने बनाया है. 2018 के चुनावों के दौरान तथाकथित विजन डॉक्यूमेंट 299 चुनावी वादों के साथ हिमालय से भी ऊंचा था. इस बार यह संख्या घटकर 24 रह गई है और रोजगार सृजन का कोई ज़िक्र नहीं है. पिछली बार उन्होंने सरकारी कर्मचारियों को लुभाया. अब कल्याणकारी उपायों का कोई उल्लेख नहीं है. वे राज्य के आदिवासियों को झांसा देने की कोशिश कर रहे हैं. पिछले चुनाव में उन्होंने वादा किया था कि सरकार बनने के छह महीने के भीतर राज्य का विभाजन कर दिया जाएगा. अब उस वादे पर मौन हैं.’
आगामी विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की जीत की संभावनाओं को खारिज करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘भाजपा जो अन्य राज्यों में कर रही है, तृणमूल वही पश्चिम बंगाल में कर रही है. त्रिपुरा के लोग इसे समझते हैं.’’
यह पूछे जाने पर कि इन चुनावों में माणिक सरकार के मैदान में न उतरने से वाम मोर्चे को फायदा होगा या नुकसान, उन्होंने कहा कि यह उनका अपना फैसला था. उन्होंने कहा, ‘‘किसी को भी उसकी इच्छा के विरुद्ध मजबूर नहीं किया जा सकता, लेकिन लोगों को एहसास है कि वह हमारे साथ हैं.’’
(अनुवादः रावी द्विवेदी | संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
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