नई दिल्ली: एक छात्र नेता के रूप में अपनी राजनीति की शुरुआत करने वाले आरिफ अकील भोपाल उत्तर विधानसभा सीट लगातार 1998 से जीतते आ रहे हैं. मध्य प्रदेश में 1977 में वे कांग्रेस की छात्र ईकाई एनएसयूआई के उपाध्यक्ष नियुक्त किये गये थे.
तब से शुरू हुए राजनीतिक करियर में उन्होंने विधायक के रूप में पहला चुनाव 1990 में जीता. वे निर्दलीय उम्मीदवार थे और उन्होंने कांग्रेस के नेता और पूर्व मंत्री हसानत सिद्दीकी को हराया.
1993 में उन्होंने जनता दल के बैनर तले चुनाव लड़ा पर वे भाजपा के रमेश शर्मा से हार गए. वाद में वे एमपी वक्फ बोर्ड और बार काउंसिल के सदस्य भी बने.
पर उनकी राजनीति एक बार फिर उनके कांग्रेस में शामिल होने के बाद चमकी. 1998 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से लड़े और अबकी बार भाजपा के रमेश शर्मा को हरा के बाज़ी जीती.
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उसके बाद जो जीत का सिलसिला चला वो अभी तक थमा नहीं. आज उनको ‘शेरे भोपाल’ कहा जाता है. पिछले तीन चुनावों में जहां राज्य में भाजपा की सत्ता कायम हुई वहीं भोपाल उत्तर आरिफ अकील का गढ़ बना हुआ है.
उनके एक नज़दीकी सहयोगी कहते हैं कि ‘आरिफ भाई काम में भेदभाव नहीं करते. उनका मानना है कि जो मेरे पास आ गया वो मेरा है.’
उनकी विधानसभा क्षेत्र का कोई भी फरियादी उनके पास आता है तो वो समस्या का निदान करने के लिए तैयार होते हैं. आरिफ अकील ने दिप्रिंट को बताया, ‘सुबह से रात दो बजे तक मेरा समय जनता की सुनने में निकलता है. उनकी समस्या सुलझाने में निकलता है. सब जानते है कि मैं सबके लिए उपलब्ध हूं.’
आरिफ के सहयोगी कहते हैं कि वे ये भेदभाव नहीं करते कि कौन उनकी मदद मांगने आया है- वह कांग्रेस का है या बीजेपी का. पब्लिक जानती है कि कौन उनके काम का है.
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‘अगर कभी कोई झगड़ा सुलझाने के लिए आता है तो आरिफ भाई पुलिस को फोन कर सुलह सफाई करवाने के लिए कहते हैं, तो फरियादी को काम पूरा करवाने के लिए चक्कर नहीं काटने पड़ते. वे खुद पीछे पड़ समस्या का समाधान करवाते हैं.’
इस बार 230 विधानसभा सीटों में जिस एकमात्र सीट पर भाजपा ने मुस्लिम उम्मीदवार उतारा है वह है भोपाल उत्तरी सीट. यहां उन्होंने फातिमा रसूल सिद्दीकी को खड़ा किया है.
ये वही सीट जो कांग्रेस का गढ़ मानी जाती है और जहां 2013 में अकील ने भाजपा के उम्मीदवार आरिफ बेग को 6000 मतों से हराया था.
पर ज़्यादा रोचक बात इस मुकाबले की ये है कि फातिमा, रसूल अहमद सिद्दीकी की पुत्री हैं. रसूल अहमद सिद्दीकी आरिफ अकील के बीच पुराना इतिहास है. सिद्दीकी इसी सीट से कांग्रेस से विधायक थे. ये 1980 और 1985 में कांग्रेस के यहां से उम्मीदवार थे और उनको 1990 में अकील ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में हराया था.
अब सिद्दीकी की बेटी भाजपा से खड़ी होकर अपने पिता को हराने वाले अकील को टक्कर दे रही हैं.
अकील कहते हैं, ‘वो मेरे लिए गुड़िया हैं. जाने क्या मजबूरी थी कि वे एक ऐसी पार्टी से चुनाव लड़ रही हैं जिसके खिलाफ उनके पिता ने हमेशा लड़ाई लड़ी. अपने पिता की इच्छा के खिलाफ वे क्यों लड़ रहीं हैं. जाने उनकी क्या मजबूरी है.’
फातिमा हालांकि इस विश्वास से लड़ रहीं है कि भोपाल के लोग अब भी उनके पिता और उनके काम को जानते हैं, याद करते हैं.
बीएड, एलएलबी की पढ़ाई कर चुके आरिफ अकील चुनाव एफीडेविट में स्वयं को किसान और एडवोकेट बताते हैं. उनके खिलाफ दो मामले दर्ज हुए हैं. उनकी पत्नी सारिया अकील को हाउसवाइफ और किसान बताया गया है. उनके एक बेटी इरम है और तीन बेटे माजिद, आतिफ और आबिद हैं.
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अब अकील के पुत्र आतिफ भी यूथ कांग्रेस का हिस्सा हैं और राजनीति में सक्रिय हो रहे हैं. अकील कहते हैं, ‘उनकी बात तब करेंगे जब वो बड़े होंगे.’
अकील का दावा है कि ‘इस बार मैं रिकॉर्ड मार्जिन से जीतूंगा. लिख लें रिकॉर्ड जीत होगी.’
यही नहीं उनको विश्वास है कि राज्य में कांग्रेस को 150 से ज़्यादा सीटें आएंगी और सरकार कांग्रेस की ही बनेगी.
पर ये विश्वास के पीछे क्या है. क्या कारण है कि पिछली तीन विधानसभा चुनावों में जहां मध्य प्रदेश में बीजेपी की तूती बोली वहीं अकील अपनी कुर्सी आसानी से बचा ले गए.
उनके निकट सहयोगी कहते हैं कि इस चुनाव में भी उनके प्रतिद्वंदी बहुत कमज़ोर हैं. ‘रसूल साहब की बेटी का कोई जनाधार नहीं है. मुस्लिम वर्ग से उन्हें कोई वोट नहीं देगा. यहां तक की भाजपा समर्थक भी उन्हें वोट नहीं देने वाले. हां, संघ वाले उन्हें वोट दे देंगे.’
विश्लेषक कह रहे हैं कि संघ इस सीट को भाजपा के पक्ष में करने के लिए काफी ज़ोर लगा रहा है.
अकील के समर्थक कहते हैं कि धर्म और जाति के इतर उनके लिए लोग मतदान करते हैं. उनका काम और जनसंपर्क बोलता है. 15 अगस्त पर वे हर साल रैली निकालते हैं जिसमें 40-50 हजार लोग जुटते हैं और ये उनकी जनसंपर्क की कोशिश का एक हिस्सा है.
उनके समर्थकों की मानें तो आज हालत ये है कि चुनाव प्रचार के खर्च भी उन्हें नहीं करने पड़ते– जनता ही उनके बैनर पोस्टर छपवा देती है!
पर ऐसा हमेशा नहीं था. थोड़ा पीछे मुड़कर देखने पर आप पायेंगे कि उनको आखिरी चुनौती और पटखनी भाजपा के रमेश चन्द्र शर्मा ने 1993 में दी थी. उन्होंने आरिफ अकील को विधानसभा चुनाव में हरा दिया था.
तब 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद भोपाल ने दिसम्बर में दंगे देखे थे और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो गया था. तब भी अकील जनता दल से लड़ते हुए दूसरे नंबर पर आए थे और कट्टर मुस्लिम चेहरे और मुस्लिम हितैषी के रूप में वे स्वयं को प्रोजेक्ट कर रहे थे.
उसके बाद से अकील लगातार 1998, 2003, 2013 में 50 प्रतिशत के आसपास वोट प्रतिशत हासिल कर रहे हैं और जीत रहे हैं. कुछ विश्लेषक मानते हैं कि मुस्लिम बहुल इस विधानसभा क्षेत्र में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पूरी तरह से हो चुका है और बीजेपी को भी अकील के खिलाफ कोई मज़बूत उम्मीदवार नहीं मिल रहा है.
शायद एक मुस्लिम उम्मीदवार को खड़ा करके मुस्लिम बनाम मुस्लिम लड़ाई का प्रयोग करने का पासा भाजपा ने इस बार फेंका है.