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Thursday, 5 September, 2024
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केशव मौर्य को साधने की कोशिश या कुछ और; UP में उदयभान करवरिया की सजा से छूट के क्या हैं मायने

यूपी की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने उदय भान करवरिया को समय से पहले सज़ा से छूट देने का आदेश दिया है. वह भुक्कल महाराज के बेटे हैं, जिनका कि 1980 के दशक में इलाहाबाद में आपराधिक साम्राज्य हुआ करता था

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लखनऊ: 1981 में उत्तर प्रदेश का गृह मंत्री बनने के तुरंत बाद चौधरी नौनिहाल सिंह ने लंबे समय से अंडर ग्राउंड चल रहे रेत और रियल एस्टेट डॉन भुक्कल महाराज को इलाहाबाद के तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) से मिलवाया.

वह यह देखकर हैरान रह गए कि नौनिहाल सिंह उस वक्त के सबसे कुख्यात डॉन की शान में उस शहर इलाहाबाद में कसीदे गढ़ रहे थे जो कि तत्कालीन मुख्यमंत्री (बाद में पीएम) विश्वनाथ प्रताप सिंह का गृह ज़िला था. एसएसपी हरिदास राव ने कहा, “आपकी कृपा से मैंने सबसे बड़े बदमाश की शकल देख ली.”

नाम न बताने की शर्त पर यूपी पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दिप्रिंट से कहा, “कुछ ही दिनों में मामला सीएम तक पहुंच गया और गृह विभाग नौनिहाल सिंह से छीन लिया गया और उन्हें शिक्षा मंत्री बना दिया गया. विश्वनाथ सिंह एक सख्त सीएम थे.”

कांग्रेस के पूर्व विधायक अनुग्रह नारायण सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि वशिष्ठ नारायण करवरिया उर्फ ​​भुक्कल महाराज ने इलाहाबाद (उत्तर) और इलाहाबाद (दक्षिण) से निर्दलीय चुनाव लड़ा था, लेकिन हार गए. बाद में उनके बेटे उदय भान करवरिया 2002 में बीजेपी के टिकट पर बारा विधानसभा सीट जीतकर राजनीतिक सफलता का स्वाद चखने वाले करवरिया परिवार के पहले व्यक्ति बने. बाद में 2007 में उन्होंने इस सीट पर फिर से जीत हासिल की.

यूपी की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल द्वारा जेल से समय से पहले उनकी रिहाई के आदेश के बाद उदय भान अब विवादों के घेरे में हैं. वह अपने भाइयों कपिल मुनि करवरिया और सूरज भान करवरिया के साथ प्रयागराज की नैनी सेंट्रल जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं. अगस्त 1996 में समाजवादी पार्टी (सपा) के विधायक जवाहर यादव उर्फ ​​पंडित की हत्या के सिलसिले में दोनों भाइयों को जेल में डाला गया था – ऐसा माना जाता है कि इलाहाबाद में पहली बार इस अपराध में एके-47 का इस्तेमाल किया गया था.

उदय भान की रिहाई के लिए पटेल का आदेश प्रयागराज के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी), जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) और उनकी दया याचिका समिति की सिफारिश पर आधारित था, जिसमें कहा गया था कि “जेल में उनका आचरण सर्वोच्च स्तर का है”.

19 जुलाई 2024 को यूपी के जेल प्रशासन और सुधार विभाग के सचिव कृष्ण कुमार सिंह द्वारा जारी किए गए छूट आदेश में उल्लेख किया गया है कि 31 जुलाई 2023 तक उदय भान ने आठ साल, तीन महीने और 22 दिन जेल में बिताए हैं.

योगी 2.0 के तहत, भान को एक साल के भीतर दूसरी बार किसी दोषसिद्ध अपराधी को सजा से छूट मिली है, इससे पहले बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के पूर्व मंत्री और पूर्वी यूपी के कद्दावर नेता अमरमणि त्रिपाठी (66) और उनकी पत्नी मधुमणि (61) को भी अगस्त 2023 में इसी तरह सजा में छूट दी गई थी. त्रिपाठी दंपती को 2003 में लखनऊ में कवियित्री मधुमिता शुक्ला (26) की हत्या के मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद जेल भेज दिया गया था.

नैनी जेल के जेलर आलोक कुमार ने दिप्रिंट को बताया कि वे डीएम कार्यालय से उदय भान की रिहाई के आदेश का इंतजार कर रहे हैं, जिसके बाद उदय भान को रिहा किया जा सकेगा.

भुक्कल महाराज ने कथित तौर पर इलाहाबाद में एक आपराधिक साम्राज्य चलाया और रेत खनन, रियल एस्टेट, सरकारी ठेकों, भूमि सौदों – विशेष रूप से विवादित संपत्तियों, भूमि पर कब्जा करने आदि में लिप्त रहा. उन्हें और उनके भाई श्याम नारायण करवरिया उर्फ ​​’मौला महाराज’ को यमुना घाटों से रेत खनन का कारोबार विरासत में उनके पिता जगत नारायण करवरिया से मिला था और राज्य में तत्कालीन कांग्रेस सरकारों द्वारा दिए गए संरक्षण की बदौलत उन्होंने इसे एक अलग स्तर पर पहुंचा दिया.

कांग्रेस के अनुग्रह नारायण सिंह ने कहा कि जगत नारायण करवरिया ने भी पूर्व सीएम हेमवती नंदन बहुगुणा के खिलाफ 1967 में सिराथू विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा था, लेकिन हार गए थे. हालांकि राजनीतिक रूप से असफल रहे उनके बेटे भुक्कल महाराज ने यह कमान अपने तीन बेटों को सौंप दी, जिन्होंने बाद में चुनाव जीते.

भाजपा के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार, यूपी में भाजपा की लोकसभा में चुनावी हार की पृष्ठभूमि में ब्राह्मण नेता उदय भान की रिहाई से इलाहाबाद-कौशाम्बी-फतेहपुर क्षेत्र में पार्टी की संभावनाओं के बेतहर होने की उम्मीद है. प्रयागराज क्षेत्र की पांच सीटों में से पार्टी ने हाल ही में संपन्न चुनाव में चार – इलाहाबाद, कौशाम्बी, प्रतापगढ़ और फतेहपुर – खो दिए और केवल फूलपुर ही बरकरार रख पाई.

इसके अलावा, करवरिया की रिहाई से क्षेत्र में एक समानांतर सत्ता का केंद्र विकसित होने की संभावना है. वर्तमान में, योगी आदित्यनाथ सरकार में प्रयागराज क्षेत्र का मुख्य चेहरा डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य हैं. मौर्य द्वारा “पार्टी सरकार से बड़ी है” जैसे बयानों और आरक्षण पर सीएम के विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव को पत्र लिखकर योगी को परेशान करने के बाद, भाजपा के अंदरूनी सूत्र करवरिया की रिहाई को सीएम और उनके डिप्टी के बीच शीत युद्ध में एक और चिंगारी के रूप में देख रहे हैं.

दिप्रिंट से बात करते हुए यूपी बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, “उदय भान करवरिया एक दबंग व्यक्ति हैं, जिनका परिवार प्रयागराज क्षेत्र में दबदबा रखता है, लेकिन उनके और मौर्य के बीच कोई दोस्ती नहीं है. करवरिया की रिहाई से क्षेत्र में उनकी ताकत और बढ़ेगी – जो मौर्य को पसंद नहीं आएगा. करवरिया की रिहाई से आदित्यनाथ ने मौर्य को संदेश दिया है.”

जवाहर यादव की हत्या की साजिश

दिप्रिंट से बात करते हुए यूपी के पूर्व डीजीपी सुलखान सिंह ने कहा कि 1970 के दशक के बाद, जब यूपी समेत पूरे उत्तर भारत में अपराधियों का जमावड़ा हुआ, तो सबसे पहले दो गिरोह उभरे.

उन्होंने कहा, “इलाहाबाद क्षेत्र में एक मौला-भुक्कल गैंग था, जबकि दूसरा गैंग पूर्वांचल में हरि शंकर तिवारी की अगुवाई वाला था. मौला-भुक्कल कौशांबी, इलाहाबाद और फतेहपुर क्षेत्रों में सक्रिय था और रेत खनन, रियल एस्टेट, सरकारी ठेके, प्रॉपर्टी डीलिंग आदि में लिप्त था.”

भुक्कल को एक चालाक अपराधी बताते हुए, यूपी के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह ने कहा, “जबकि अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी जैसे गैंगस्टर का कद काफी ऊंचा था, भुक्कल को जब भी पुलिस पकड़ने की कोशिश करती थी तो वह भूमिगत हो जाता था और कभी भी सत्ता से भिड़ने की कोशिश नहीं की.”

जब जवाहर यादव जौनपुर से इलाहाबाद आए और जीविका चलाने के लिए बोरे सिलने का काम शुरू किया, तो करवरिया को नहीं पता था कि उन्हें जल्द ही उनमें से कोई उन्हें चुनौती देने वाला मिल जाएगा. जवाहर यादव ने धीरे-धीरे खनन और शराब का कारोबार शुरू किया और सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के साथ उनकी निकटता के कारण जब सपा का उत्थान हुआ तो उनके लिए संभावनाओं के दरवाजे खुल गए.

1993 में जब सपा ने यूपी में सरकार बनाई, तो जवाहर यादव झूंसी से विधायक बने और मुलायम ने जिले में सपा का खाता खोलने के लिए उन्हें गले लगाया. तब से उनका कारोबार तो बढ़ा ही, साथ ही करवरिया की असुरक्षा भी बढ़ती गई.

पूर्व डीजीपी सुलखान सिंह ने कहा, “जवाहर यादव की करवरिया से से प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो गई थी, जिसकी वजह से करवरिया को लगता था कि कोई व्यक्ति उनके व्यापारिक हितों में हस्तक्षेप करने के लिए सामने आ गया है.”

अदालती रिकॉर्ड के अनुसार, जवाहर यादव की पत्नी विजमा यादव ने 13 अगस्त 1996 की शाम को हुई हत्या के बारे में बताते हुए कहा कि अपने निर्वाचन क्षेत्र के दौरे के बाद उनके पति अपनी मारुति में घर के लिए निकले थे, तभी उनके ड्राइवर गुलाब यादव ने उन्हें बताया कि एक वैन उनकी कार का पीछा कर रही है.

अदालत के रिकॉर्ड के अनुसार, विजय यादव ने कहा, “जब वे व्यस्त सिविल लाइंस इलाके में पैलेस टॉकीज के पास पहुंचे, तो वैन ने उन्हें ओवरटेक किया और बीच सड़क पर कार रोक दी, और इससे पहले कि मारुति में बैठे लोग कुछ कर पाते, वैन के अंदर बैठे हमलावरों ने उन पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसानी शुरू कर दीं.”

पूर्व डीजीपी ने दिप्रिंट को बताया, “एके-47 से कई राउंड फायर किए गए. जहां तक ​​मुझे याद है, इससे पहले इलाहाबाद में किसी भी आपराधिक घटना में एके-47 का इस्तेमाल नहीं किया गया था.” उन्होंने कहा कि हमलावरों ने देसी पिस्तौल का भी इस्तेमाल किया था.

इस झड़प में जवाहर यादव, गुलाब और वहां से गुज़र रहे कमल कुमार दीक्षित की मौत हो गई, जबकि यादव के निजी गनर कल्लन यादव और पंकज श्रीवास्तव घायल हो गए.

जवाहर यादव के भाई सुलाकी यादव ने तीनों करवरिया भाइयों, चाचा श्याम नारायण करवरिया और साथी राम चंद्र त्रिपाठी के खिलाफ आईपीसी की धारा 147 (दंगा), 148 (घातक हथियार से लैस होकर दंगा), 149 (अवैध रूप से एकत्र होना), 302 (हत्या), 307 (हत्या का प्रयास), 34 (साझा इरादा) और 7 सीएलए एक्ट के तहत एफआईआर दर्ज कराई.

BSP और BJP सरकारों के दौरान जांच ठंडे बस्ते में

यह मामला अगस्त 1996 में तब दर्ज किया गया था जब उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन था, लेकिन मायावती, कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह की सरकारों के दौरान आठ साल तक इस मामले में कोई खास प्रगति नहीं हुई.

अदालत के रिकॉर्ड के अनुसार, जांच की शुरुआत सिविल लाइंस थाने से हुई थी, लेकिन इलाहाबाद से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के तत्कालीन सांसद मुरली मनोहर जोशी द्वारा सरकार को पत्र लिखकर अनुरोध करने के बाद 7 सितंबर 1996 को जांच को अपराध जांच विभाग की अपराध शाखा (सीबी-सीआईडी) को सौंप दिया गया.

अदालती दस्तावेजों से पता चला कि सीबी-सीआईडी ​​इलाहाबाद ने 7 सितंबर 1996 से 27 सितंबर 1996 तक मामले की जांच की, फिर इसे फिर से सीबी-सीआईडी ​​वाराणसी और फिर 22 जून 2002 को सीबी-सीआईडी ​​लखनऊ को स्थानांतरित कर दिया गया.

हत्या के लगभग आठ साल बाद, सीबी-सीआईडी ​​लखनऊ ने 20 जनवरी 2004 को जांच पूरी की और इलाहाबाद में एक विशेष मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत के समक्ष सीआरपीसी 1973 की धारा 173 के प्रावधानों के तहत एक रिपोर्ट फाइल की.

अदालती दस्तावेजों से पता चला कि विजमा यादव ने आरोप लगाया कि करवरिया बंधुओं के परिचित प्रभावशाली राजनीतिक हस्तियों के हस्तक्षेप के कारण मामला ठंडे बस्ते में चला गया. अपने बयानों के अनुसार, कपिल मुनि करवरिया और राम चंद्र त्रिपाठी ने अदालत में यह भी दावा किया था कि वे अपराध के समय इलाहाबाद में नहीं थे, बल्कि तत्कालीन यूपी भाजपा अध्यक्ष कलराज मिश्र के साथ बैठक में शामिल होने गए थे.

मिश्र ने यह भी कहा था कि कपिल मुनि करवरिया और राम चंद्र त्रिपाठी उनके साथ लखनऊ में थे, लेकिन कोर्ट ने उनके बयान को स्वीकार नहीं किया.


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अपराध और राजनीति

27 जनवरी 2004 को कोर्ट द्वारा मामले का संज्ञान लेने के बाद आरोपी कपिल मुनि करवरिया ने 27 जुलाई 2008 को आगे की जांच के लिए एक आवेदन दायर किया.

अदालती रिकॉर्ड के अनुसार, 19 नवंबर 2008 को राज्य सरकार ने सीबी-सीआईडी ​​इलाहाबाद को मामले की आगे की जांच करने का आदेश दिया और इसने 28 अक्टूबर 2009 को अपनी जांच पूरी कर ली.

2017 में यूपी में भाजपा के सत्ता में लौटने के बाद, उदय भान की पत्नी नीलम करवरिया, जो 2017 में भाजपा के टिकट पर मेजा सीट से विधायक बनी थीं, ने योगी सरकार पर अपने पति और मामले के अन्य आरोपियों के खिलाफ मुकदमा वापस लेने का दबाव बनाया.

जवाहर यादव के परिवार ने सरकार पर न्याय में देरी करने का आरोप लगाया है, उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सरकार ने करवरिया बंधुओं के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही वापस लेने की कोशिश की.

यादव की पत्नी ने कहा, “तीन लोगों की हत्या हो गई, और फिर भी इसने (भाजपा) करवरिया परिवार को चुनाव लड़ाया.”

इस मामले से संबंधित इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2019 के फैसले के अनुसार, 17 जुलाई 2017 को नीलम करवरिया ने सरकार से कई मामलों में आरोपियों को अभियोजन से हटाने की गुहार लगाई थी.

आवेदन पर कार्रवाई करते हुए न्याय विभाग के विशेष सचिव ने इलाहाबाद डीएम से रिपोर्ट मांगी, जिन्होंने कहा कि मामले की गंभीरता और साक्ष्यों को देखते हुए आरोपियों को अभियोजन से हटाना उचित नहीं होगा.

डीएम ने विशेष लोक अभियोजक (स्पेशल पब्लिक प्रॉसीक्यूटर) और इलाहाबाद एसएसपी से भी विस्तृत रिपोर्ट मांगी, जिन्होंने कहा कि अभियोजन वापस लेना उचित नहीं होगा, क्योंकि सितंबर 2017 में पारित एक आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने एक ट्रायल कोर्ट को तीन सप्ताह के भीतर मामले का फैसला करने का निर्देश दिया था. डीएम ने दोनों अधिकारियों से सहमति जताते हुए अपनी रिपोर्ट में कहा कि मामले की गंभीरता और सबूतों को देखते हुए आरोपियों को अभियोजन से वापस लेना उचित नहीं होगा.

इसके बाद न्याय विभाग के विशेष सचिव ने इलाहाबाद डीएम से जांच से संबंधित केस डायरी मांगी और 20 सितंबर 2018 को प्राप्त हुई. राज्य सरकार ने भी मुकदमे के दौरान दर्ज बयानों की प्रतियां मांगी और प्राप्त कीं. फिर, इसने महाधिवक्ता की राय मांगी, जिन्होंने लिखित राय में कहा कि “अभियोजन से वापसी के लिए एक वैध कारण बनाया गया था”.

करवरिया की राजनीतिक सफलता

जबकि वशिष्ठ नारायण करवरिया और जगत नारायण करवरिया राजनीति में असफल रहे, इंजीनियरिंग (इलेक्ट्रॉनिक्स) में स्नातक उदय भान करवरिया 1996 में कौशाम्बी से जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष बनकर अपने परिवार में सफलता का स्वाद चखने वाले पहले व्यक्ति बने.

उदय भान चुनाव जीतने वाले परिवार के पहले सदस्य के रूप में भी उभरे. उन्होंने 2002 में भाजपा के टिकट पर बारा विधानसभा सीट जीती. उन्होंने 2007 में फिर से सीट जीती, लेकिन जब 2012 में यह आरक्षित (एससी) सीट बन गई, तो उन्हें उसी साल बाद में इलाहाबाद (उत्तर) सीट पर स्थानांतरित कर दिया गया.

हालांकि, वह चुनाव कांग्रेस के अनुग्रह नारायण सिंह से हार गए थे. 2009 में उदय भान के बड़े भाई कपिल मुनि करवरिया बीएसपी के टिकट पर चुनाव लड़कर फूलपुर के सांसद बने थे और उन्होंने तत्कालीन समाजवादी पार्टी के मौजूदा सांसद और माफिया अतीक अहमद को हराया था. इससे पहले 2007 में तीसरे भाई सूरज भान बीएसपी एमएलसी बने थे.

जबकि उदय भान करवरिया हत्या के मामले की सुनवाई के दौरान निचली अदालत में पेश होने से बचते रहे, उन्हें 2013 में आत्मसमर्पण करना पड़ा, जब अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने सफलतापूर्वक यह इंगित किया कि उनकी गिरफ्तारी पर कोई रोक नहीं है और मामले में उनकी संपत्तियों की कुर्की शुरू कर दी.

अप्रैल 2015 में, एक जिला अदालत ने कपिल मुनि करवरिया और सूरज भान को जेल भेज दिया, जब सूरज भान उस वक्त बसपा से एमएलसी थे.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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