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Tuesday, 7 May, 2024
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बीजेपी के भव्य हैदराबाद प्रचार के पीछे है अमित शाह की 2017 की एक योजना

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और यूपी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, सब 1 दिसंबर को होने वाले जीएचएमसी चुनावों के लिए, रैलियों को संबोधित करेंगे.

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नई दिल्ली/मुम्बई: ऐसा लग सकता है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा, और यूपी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को, एक दिसंबर को होने वाले ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम (जीएचएमसी) चुनावों के प्रचार में उतारकर, बीजेपी एक बड़ा प्रयास करने जा रही है.

लेकिन ये क़दम उस रोडमैप से प्रेरित लगता है, जिसका ख़ाका शाह ने 2017 में तैयार किया था, जब वो बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे. रोडमैप में परिकल्पना की गई थी, कि बीजेपी शासन के हर स्तर पर- पंचायतों से पार्लियामेंट, या ‘पी टु पी’ तक- सत्ता में होगी.

उस समय, शाह की निगरानी में, बीजेपी पहले ही इस मॉडल का प्रयोग करके सफलता पा चुकी थी. 2017 में ओडिशा के स्थानीय निकायों के चुनावों में, जहां पार्टी कभी सत्ता में नहीं रही थी, बीजेपी ने कई सीनियर नेताओं को प्रचार मैदान में उतार दिया, जिनमें छत्तीसगढ़ और झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री- रमन सिंह और रघुबर दास- और केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान शामिल थे, जिनका ताल्लुक़ उसी राज्य से है.

पार्टी का ओडिशा फोकस काम कर गया, जब उसने ज़िला परिषद की 853 में से 297 सीटें जीत लीं, जो 2012 में सिर्फ 36 थीं, और प्रमुख विपक्षी दल के रूप में सामने आई. सत्ताधारी बीजू जनता दल (बीजेडी) 473 सीटों पर आ गई, जो 2012 में 651 थीं.

उस प्रदर्शन ने, 2019 के विधान सभा चुनावों में बीजेपी के लिए, बीजेडी के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनने का रास्ता साफ कर दिया.

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चुनावों के बाद ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में, पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को संबोधित करते हुए, शाह ने कार्यकर्ताओं का आह्वान किया, कि हर स्तर पर बीजेपी का विस्तार करने के लिए, सुनिश्चित करें कि बीजेपी ‘पंचायत से पार्लियामेंट तक राज करे’.

आज, उसी रणनीति पर अमल करके, जीएचएमसी की 150 सीटों पर चुनाव लड़ा जा रहा है, जो हैदराबाद और आसपास के कुछ इलाक़ों को कवर करती हैं.

बीजेपी इस चुनाव को कितनी अहमियत दे रही है, इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है, कि सीनियर लीडर भूपेंद्र यादव- जिन्होंने इसी महीने हुए बिहार विधान सभा चुनावों में, पार्टी प्रभारी का ज़िम्मा निभाया था- अब जीएचएमसी में उसके प्रचार की निगरानी कर रहे हैं. पार्टी की आकांक्षाओं को इस महीने हुए, दुबक्का विधान सभा उपचुनाव में जीत से भी बल मिला है, जिसे मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की, तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) का गढ़ माना जाता है.

जीएचएमसी चुनावों पर ज़ोर बीजेपी के पूरे दक्षिण भारत में, पैर फैलाने की कोशिशों का हिस्सा है, जहां वो सिर्फ कर्नाटक में सत्ता में रही है. पिछले हफ्ते ही, शाह ने तमिलनाडु का अपना दौरा पूरा किया, जहां अगले वर्ष के शुरू में विधान सभा चुनाव होने हैं.

पिछले जीएचएमसी चुनाव में, टीआरएस ने 99 डिवीज़नों में जीत हासिल की थी. हैदराबाद सांसद असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लेमीन (एआईएमआईएम) को 44 सीटें मिलीं थीं, जबकि बाक़ी सीटें दूसरी पार्टियों और निर्दलीयों की झोली में गईं थीं.


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एक नई घटना

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को, विधान सभा चुनावों के लिए देश भर का दौरा करते हुए देखा गया है, लेकिन जीएचएमसी में पहली बार होगा, कि स्थानीय निकाय चुनावों के लिए बीजेपी ने इतने वरिष्ठ नेताओं को प्रचार मैदान में उतारा है.

ऐसा तो तब भी नहीं हुआ जब बीजेपी ने, अपनी पूर्व सहयोगी शिव सेना के खिलाफ, 2017 का बृहन्मुम्बई नगर निगम चुनाव लड़ा था, जो आपस में लड़ रहे सहयोगियों के लिए, प्रतिष्ठा की लड़ाई बन गया था.

शिवसेना के लिए, ये अपने दो दशक पुराने गढ़ को बचाने का सवाल था, जबकि बीजेपी ये दिखाना चाहती थी, कि मुम्बई अब सिर्फ शिवसेना की जागीर नहीं रह गई है, और वो अब इतनी मज़बूत हो गई है, कि महाराष्ट्र-केंद्रित पार्टी को, उसके ही गढ़ में चुनौती दे सकती है-बल्कि उससे आगे निकल सकती है.

फिर भी, प्रचार का काम महाराष्ट्र के तब के मुख्यमंत्री, देवेंद्र फड़णवीस पर छोड़ दिया गया था, जिन्होंने सूबे की राजधानी में कई रैलियों को संबोधित किया था. एक मात्र बाहरी नेता जो प्रचार में मदद के लिए आए, वो थे उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ (ये चुनाव बहुत कम अंतर पर ख़त्म हुआ, जिसमें शिवसेना ने 227 सदस्यों के निगम में 84 सीटें जीतीं, जो बीजेपी से दो अधिक थीं).

राजनीतिक टीकाकार हेमंत देसाई ने कहा, कि बीजेपी आज जो आक्रामकता दिखाती है, वो 1990 के दशक में नज़र भी नहीं आती थी, जब वो एक पार्टी के तौर पर बढ़ ही रही थी. उन्होंने कहा कि उस समय, अटल बिहारी वाजपेई और एलके आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेता, विधान सभा चुनावों के लिए भी, इतनी रैलियां संबोधित नहीं करते थे.

उन्होंने आगे कहा, ‘स्थानीय चुनावों के लिए शीर्ष नेतृत्व से, प्रचार की अपेक्षा करने का सवाल ही नहीं होता था. ये चुनाव काफी हद तक स्थानीय नेता लड़ते थे. मुम्बई स्थानीय निकाय एक अपवाद थी, जहां (भूतपूर्व शिवसेना संस्थापक) बाल ठाकरे निजी तौर पर प्रचार किया करते थे, चूंकि स्थानीय निकाय शिवसेना के लिए बहुत अहम है. लेकिन तब भी दूसरी पार्टियां कभी अपने बड़े नेताओं को प्रचार में नहीं उतारतीं थीं’.

उन्होंने आगे कहा, ‘इस समय, मोदी और अमित शाह सोच-समझकर, पार्टी को उन जगहों पर पहुंचाने के लिए केंद्रित प्रयास कर रहे हैं, जहां उसकी कोई मौजूदगी नहीं है. उस ज़माने में, नेतृत्व इन चीज़ों को लेकर इतना व्यवस्थित और आक्रामक नहीं होता था’.

एक्सपर्ट्स के अनुसार, स्थानीय चुनावों तक में केंद्रीय नेताओं, और मंत्रियों को प्रचार के लिए उतारने की रणनीति, बीजेपी ने अपने काडर को प्रेरित रखने, और अपने पदचिन्हों का विस्तार करने के लिए अपनाई है.

दिल्ली स्थित शोध संस्थान, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डिवेलपिंग सोसाइटीज़ (सीएसडीएस) के प्रोफेसर संजय कुमार ने कहा, ‘आपको समझना चाहिए कि अमित शाह के अंतर्गत, बीजेपी के लिए हर चुनाव अहमियत रखता है, और वो हर चुनाव जीतने के लिए लड़ते हैं’.

तब और अब की बीजेपी में अंतर पर, देसाई से सहमति जताते हुए उन्होंने कहा, ‘जहां तक अतीत की बीजेपी का सवाल है, स्थानीय चुनावों में प्रचार के मामले में, उस समय पार्टी और सरकार के बीच एक स्पष्ट अंतर होता था. पहले, सीनियर नेता पंचायत या नागरिक चुनावों में प्रचार नहीं करते थे.

उन्होंने आगे कहा, ‘शाह ने एक बार कहा था, कि हम पी-टु-पी मॉडल पर चलते हैं- पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक राज करना. इनके बीच कोई अंतर नहीं है, चूंकि ये सभी एक समान महत्व रखते हैं. जहां तक हैदराबाद का सवाल है, इसके दो कारण हैं: बीजेपी उसे एक उपजाऊ ज़मीन समझती है, जहां वो आगे बढ़ सकती है, ख़ासकर आबादी के स्वरूप को ध्यान में रखते हुए’.

कुमार ने कहा कि हैदराबाद में, कम से कम 52 प्रतिशत आबादी हिंदू है, और 44 प्रतिशत मुस्लिम है.

उन्होंने आगे कहा, ‘सीनियर नेताओं को स्थानीय चुनावों में प्रचार करता देखना, निश्चित रूप से कार्यकर्ताओं को प्रेरित करता है, जो अभी इलाक़े में पार्टी को आकार देने की कोशिश कर रहे हैं. बीजेपी के लिए ये एक ऐसा तरीक़ा भी है, जिससे वो 2024 और 2023 के प्रदेश चुनावों के लिए ज़मीन तैयार कर सकती है. चाहे वो जीते या हारे, लोग उसके प्रयासों को ज़रूर देख सकते हैं’.

जीएचएमसी के दायरे में 24 विधान सभा चुनाव क्षेत्र आते हैं, जो तेलंगाना सदन की 119 सीटों का 20 प्रतिशत हैं.

‘स्थानीय स्तर पर पार्टी को मज़ूबत करना’

दिप्रिंट से बात करते हुए, बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अगरवाल ने कहा, कि पार्टी का ‘मूल विचार चुनाव लड़ना और स्थानीय स्तर पर पार्टी को मज़बूत करना है’.

उन्होंने कहा, ‘वहां पर वरिष्ठ नेताओं की सहभागिता से एक संदेश जाता है, कि पार्टी सभी चुनावों को लेकर गंभीर है- केंद्र, राज्य, और स्थानीय इकाइयां’.

उन्होंने आगे कहा, ‘सिर्फ हैदराबाद में ही नहीं, बल्कि जम्मू-कश्मीर में भी (आगामी) ज़िला विकास परिषद (डीडी) चुनावों में, हमारे वरिष्ठ मंत्री और नेता प्रचार कर रहे हैं’.

उन्होंने कहा, ‘कुछ साल पहले, उत्तर प्रदेश पंचायत चुनावों में हम अपने निशान पर लड़ते भी नहीं थे, लेकिन अब चीज़ें बदल गईं हैं. इससे पार्टी के पदचिन्हों को विस्तार देने में मदद मिलती है, और लोगों के साथ संवाद भी क़ायम होता है’.

अगरवाल ने कहा कि ऐसे अवसर, ‘स्थानीय नेतृत्व को भी ऊपर उठने का मौक़ा देते हैं’.

उन्होंने कहा, ‘पिछले कुछ समय में हमारी संस्था बहुत मज़बूत हो गई है, और मंडल और बूथ लेवल ढांचा क़ायम हो गया है’. उन्होंने आगे कहा, ‘हमारे अपने 18 करोड़ सदस्य हैं, जबकि पहले हमें भी आरएसएस कार्यकर्ताओं पर निर्भर करना पड़ता था’.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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