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Sunday, 22 December, 2024
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पीडीपी से निकले अल्ताफ बुखारी बनाएंगे ‘अपनी’ पार्टी, क्या जम्मू कश्मीर में ये राजनीतिक प्रयोग सफल होगा

अल्ताफ़ बुख़ारी व भारतीय जनता पार्टी की ‘दोस्ती’ कहां तक चलती है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा मगर गत एक-डेढ़ वर्ष के दौरान बने तीन अन्य राजनीतिक संगठनों की दशा व दिशा देख कर राजनीतिक पंडित बहुत अधिक आशान्वित नही हैं.

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जम्मू: एक पूर्ण राज्य से केंद्र शासित प्रदेश में परिवर्तित हो चुके जम्मू-कश्मीर में गत पांच अगस्त से जारी राजनीतिक ख़ामोशी के बीच एक नया राजनीतिक दल जन्म लेने जा रहा है. जम्मू-कश्मीर में इसे एक नए राजनीतिक प्रयोग के रूप में देखा जा रहा है.

इस नए राजनीतिक दल का गठन पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी(पीडीपी) के वरिष्ठ नेता अल्ताफ़ बुख़ारी द्वारा किया जा रहा है. बुख़ारी कश्मीर के एक बड़े व्यवसायी हैं और महबूबा सरकार में वित्त मंत्री भी रह चुके हैं.

पार्टी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती के साथ मतभेदों के कारण बुख़ारी को गत वर्ष पीडीपी से निष्कासित कर दिया गया था. अब वे अन्य कई असंतुष्ट पीडीपी नेताओं को लेकर अपना अलग राजनीतिक दल बनाने जा रहे हैं. ऐसी भी संभावनाएं हैं कि पीडीपी के संरक्षक व वरिष्ठ नेता मुज़्ज़फर हुसैन बेग भी बुख़ारी के साथ जा सकते हैं. दल का गठन इस रविवार हो सकता है और अटकले हैं कि इसका नाम जम्मू और कश्मीर ‘अपनी’ पार्टी हो सकता है.

अल्ताफ़ बुख़ारी और उनके नए बन रहे राजनीतिक दल पर इन दिनों सभी की नज़रें लगी हुई हैं. भारतीय जनता पार्टी के साथ बुख़ारी की नज़दीकियां भी चर्चा में हैं. हाल ही में मशहूर पर्यटन स्थल गुलमर्ग में अल्ताफ़ बुख़ारी और भारतीय जनता पार्टी के महासचिव राम माधव के बीच हुई लंबी मुलाकात ने बदल रहे राजनीतिक समीकरणों के साफ व गहरे संकेत दिए हैं.


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ऐसी संभावना है कि अल्ताफ़ बुख़ारी के प्रस्तावित राजनीतिक दल की घोषणा अगले कुछ दिनों में हो सकती है. इस दल में पीडीपी से अलग हुए असंतुष्ट नेताओं के अलावा कांग्रेस सहित कईं अन्य छोटे राजनीतिक दलों से जुड़े नेताओं के भी शामिल होने की संभावना है. फ़िलहाल कांग्रेस के दो वरिष्ठ नेताओं उस्मान मजीद और शोयब लोन का इस नए दल से जुड़ना तय माना जा रहा है.

यहां यह भी गौरतलब है कि इस नए राजनीतिक दल का गठन ऐसे समय पर हो रहा है जब जम्मू-कश्मीर में लगभग तमाम राजनीतिक गतिविधियां ठप्प पड़ी हुई हैं और नेशनल कांफ्रेस और पीडीपी के शीर्ष नेतृत्व की अभी भी रिहाई संभव नही हुई है. जम्मू-कश्मीर के तीन पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती गत पांच अगस्त से ही नज़रबंद हैं.

क्या हैं संभावनाएं ?

अपने आप में यह नया राजनीतिक प्रयोग कहां तक सफल रहता है और अल्ताफ़ बुख़ारी व भारतीय जनता पार्टी की ‘दोस्ती’ कहां तक चलती है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा मगर गत एक-डेढ़ वर्ष के दौरान बने तीन अन्य राजनीतिक संगठनों की दशा व दिशा देख कर राजनीतिक पंडित बहुत अधिक आशान्वित नही हैं. गत एक-डेढ़ साल के भीतर ही जम्मू-कश्मीर विशेषकर कश्मीर में कई राजनीतिक प्रयोग हो चुके हैं. ऐसे में अल्ताफ़ बुख़ारी के प्रस्तावित नए राजनीतिक दल को लेकर क्या संभावनाएं बनेंगी यह देखना काफी महत्वपूर्ण होगा.

राजनीतिक पंडितों की शंकाओं के अपने कई ठोस कारण हैं. दरअसल जम्मू कश्मीर में अभी तक हुए इस तरह के राजनीतिक प्रयोग बहुत अधिक सफल नही रहे हैं. जिस तरह से अल्ताफ़ बुख़ारी के नेतृत्व में पीडीपी और अन्य दलों के अंसतुष्ट नेता इकट्ठे हो रहे हैं, उसे देखते हुए भी यह कहना कठिन है कि कब तक सभी एक साथ रहेंगे.

यहां यह बात काफी महत्वपूर्ण है कि जम्मू-कश्मीर में हाल ही में जितने भी नए दल गठित हुए उनमें शामिल होने वालों में अधिकतर का संबंध पीडीपी से ही रहा है. तमाम कोशिशों के बावजूद जम्मू-कश्मीर के सबसे पुराने और बड़े राजनीतिक दल नेशनल कांफ्रेस को किसी भी तरह का नुक्सान नही पहुंचा है. नए गठित होने वाले लगभग सभी दलों ने नेशनल कांफ्रेस का विकल्प बनने का दावा तो किया मगर किसी को भी नेशनल कांफ्रेस को ठोस चुनौती देने में कामयाबी नही मिल सकी.

वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी कुमार का कहना है, ‘जम्मू-कश्मीर में पहले भी कईं राजनीतिक प्रयोग हो चुके हैं मगर बहुत अधिक सफलता कभी किसी को नही मिली.’

कुमार मानते हैं, ‘तमाम तरह के नए दलों के गठन के बावजूद नेशनल कांफ्रेस के मजबूत किले में सेंध लगाने में किसी को कामयाबी नही मिली है और न ही उसका कोई विकल्प बन सका है.’

एक-डेढ़ वर्ष में बन चुके हैं तीन दल

गौरतलब है कि गत एक-डेढ़ वर्ष में जम्मू-कश्मीर में तीन राजनीतिक दल पहले भी गठित हो चुके हैं. अगर देखा जाए तो गिनती के अनुसार अल्ताफ़ बुख़ारी के नेतृत्व में गठित होने वाला नया राजनीतिक दल ऐसा चौथा दल होगा जो हाल के दिनों में आकार ले रहा है.

उल्लेखनीय है कि अलगाववादी राजनीति छोड़ कर मुख्यधारा में आए सज्जाद लोन ने गत वर्ष ही अपनी पार्टी पीपुल्स कांफ्रेस का पुनर्गठन किया था. उन्होंने 1978 में अपने पिता अब्दुल गनी लोन द्वारा गठित की गई पार्टी को पिछले साल नया रूप दिया और पार्टी के चुनाव चिन्ह सहित कईं अन्य बदलाव किए.

पीपुल्स कांफ्रेस में यह बदलाव गत वर्ष जनवरी में उस समय किए गए थे जब शिया नेता इमरान रज़ा अंसारी के नेतृत्व में पीडीपी के लगभग दस वरिष्ठ नेता पीपुल्स कांफ्रेस में शामिल हो गए थे.


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लंबे समय तक अलगाववादी राजनीति से जुड़े रहे सज्जाद लोन उस समय अचानक चर्चा में आए थे जब उन्होंने नवंबर 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लंबी मुलाक़ात कर सबको चौंका दिया था. मुलाकात के बाद सज्जाद लोन ने प्रधानमंत्री मोदी की ज़बरदस्त ढंग से प्रशंसा की थी. बाद में जम्मू-कश्मीर में बनी भाजपा-पीडीपी गठबंधन सरकार में सज्जाद लोन भाजपा के कोटे से मंत्री भी बने. उस समय ऐसे तमाम संकेत मिल रहे थे कि भारतीय जनता पार्टी कश्मीर में सज्जाद लोन के साथ मिल कर एक लंबी पारी खेल सकती है. लंबे समय तक सज्जाद लोन व भारतीय जनता पार्टी के दोस्ताना संबंधों की चर्चा चलती रही.

लेकिन पांच अगस्त 2019 को धारा-370 की समाप्ति के बाद जब कई राजनीतिक नेता नज़रबंद किए गए तो उनमें सज्जाद लोन भी शामिल थे. लेकिन बदल चुकी परिस्थितियों में फ़िलहाल सज्जाद लोन और भारतीय जनता पार्टी दोनों ही एक दूसरे को लेकर ख़ामोश हैं.

इसी तरह से गत वर्ष 17 मार्च को भारतीय प्रशासनिक सेवा के युवा नेता शाह फ़ैसल ने भी अचानक इस्तीफ़ा देकर राजनीति में शामिल होने का ऐलान कर सबको हैरान कर दिया था. शाह फ़ैसल द्वारा ‘नाटकीय’ ढंग से भारतीय प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र देना और बाद में फ़ैसल द्वारा एक राजनीतिक दल का गठन किए जाने को भी एक प्रयोग का रूप में देखा गया था.

लेकिन यह प्रयोग भी बहुत आगे नही बढ़ पाया और पांच अगस्त 2019 के बाद बने हालात में शाह फ़ैसल भी नज़रबंद बनाए गए थे. तब से उनका दल भी चुप्पी साधे हुए है.

कश्मीर की तरह गत वर्ष एक राजनीतिक प्रयोग जम्मू में भी हुआ और भारतीय जनता पार्टी से नाराज पूर्व मंत्री लाल सिंह ने ‘डोगरा स्वाभिमान संगठन’ नाम से एक संगठन भी बनाया. जिस तरह से लाल सिंह ने अपने संगठन का गठन किया और थोड़े ही समय में ज़बरदस्त लोकप्रियता हासिल की उससे एक समय पर ऐसा माना जाने लगा था कि लाल सिंह और उनका संगठन जम्मू क्षेत्र में अच्छी पकड़ स्थापित कर लेगा. मगर दो जगह से एक-साथ गत लोकसभा चुनाव लड़ने और बुरी तरह से हारने के बाद लाल सिंह व उनके संगठन को भारी झटका लगा.

पांच अगस्त 2019 के बाद बदली राजनीतिक परिस्थितियों के बाद लाल सिंह और उनका ‘डोगरा स्वाभिमान संगठन’ भी पूरी तरह से निष्क्रिय है. एक तरह से कहा जाए तो यह राजनीतिक प्रयोग भी असफल रहा है.

(लेखक जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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