बेंगलुरु: असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने कर्नाटक चुनाव में कुल 224 सीटों में से लगभग 25 सीटों पर चुनाव लड़ने की योजना बनाई है. अपने इस कदम से वह उन छोटे दलों में शामिल हो जाएगी, जो चुनावी नतीजों में उलटफेर करने का माद्दा रखते हैं.
हैदराबाद स्थित पार्टी सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (SDPI), गली जनार्दन रेड्डी के नेतृत्व वाली कल्याण राज्य प्रगति पक्ष (KRPP), आम आदमी पार्टी (AAP) और कई अन्य छोटे दलों ने भी इस बार अकेले अपने दम पर चुनावों में उतरने का फैसला किया है.
एआईएमआईएम के कर्नाटक अध्यक्ष उस्मान गनी ने दिप्रिंट को बताया, ‘कांग्रेस ने हमें (मुसलमानों को) पिछले 70 सालों से वोट बैंक बनाकर रखा है और किया कुछ नहीं है. भाजपा हमारे खिलाफ आक्रामक रूप से आगे बढ़ रही है, चाहे वह नकाब (हिजाब) का मसला हो या तीन तलाक या फिर सीएए का… हम कांग्रेस और भाजपा विरोधी हैं.’
AIMIM ज्यादातर उत्तरी जिलों जैसे विजयपुरा, हुबली, रायचूर, बेलागवी, कालाबुरगी में चुनाव लड़ेगी और यहां तक कि बेंगलुरु से भी एक सीट पर लड़ने का विचार कर रही है.
दरअसल 2021 के शहरी स्थानीय निकाय चुनावों में जीत ने इसे बड़ी पार्टियों को चुनौती देने के लिए कुछ आधार दिया है. और वैसे भी जहां पार्टी ने हार का सामना किया था वहां कई सीटों पर तो काफी करीबी मुकाबला रहा था. हालांकि चुनाव पूर्व गठबंधन के लिए AIMIM ने जनता दल (सेक्युलर) से संपर्क किया है, लेकिन क्षेत्रीय संगठन से अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है.
जहां तक कांग्रेस की बात है तो छोटे दलों के उसके वोट शेयर में सेंध लगाने की संभावना है. एक कांग्रेस नेता ने कहा, ‘हालांकि उत्तर प्रदेश में उन्हें (एआईएमआईएम) 0.5 फीसदी से ज्यादा वोट नहीं मिले थे . लेकिन, वे अपने प्रोपेगेंडा के साथ आगे आ सकते हैं, अपने (ओवैसी) भाषणों से माहौल खराब कर सकते हैं और उल्टा ध्रुवीकरण कर सकते हैं.’
डेटा से पता चलता है कि कम से कम चार चुनावों में, कुछ चुनिंदा निर्वाचन क्षेत्रों को छोड़कर, मतदाताओं ने निर्दलीय या छोटे दलों के लिए ज्यादा समर्थन नहीं दिखाया है. लेकिन पिछड़े वर्गों की सूची से मुसलमानों को बाहर करने के साथ ही यह एक विवादास्पद मसला बन गया है. खास समुदाय में पहुंच रखने वाले छोटे दलों के पास अपने आपको भुनाने के बेहतर अवसर हैं.
2018 में भाजपा 35.43 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 104 सीटें जीतने में सफल रही. कांग्रेस को सिर्फ 78 सीटों पर संतोष करना पड़ा था, लेकिन उसके पास 38.61 प्रतिशत का उच्च वोट शेयर था. जद (एस) ने 20.61 प्रतिशत (जिन सीटों पर उसने चुनाव लड़ा) के वोट शेयर के साथ 37 सीटों पर जीत दर्ज की थी.
कुल मिलाकर, छह राष्ट्रीय दल, आठ राज्य दल और 69 पंजीकृत लेकिन अभी तक गैर-मान्यता प्राप्त दल मैदान में हैं. यह 2013 की तुलना में दलों की संख्या में 41 फीसदी की वृद्धि को दर्शा रहे हैं.
कई सीटों पर जीत का अंतर बहुत कम था. इस देखते हुए चुनाव परिणामों को निर्धारित करने में हर एक वोट महत्वपूर्ण हो जाता है. वहीं दूसरी तरफ, ऐसे राज्य में जहां गठबंधन का चलन है और बहुमत दूर की बात है, वहां प्रत्येक सीट आधे रास्ते को पार करने के लिए मायने रखती है.
मस्की का ही मामला लें: 2018 में कांग्रेस के प्रतापगौड़ा पाटिल महज 213 वोटों के अंतर से जीते थे. इसी तरह, कांग्रेस के वेंकटरमणप्पा ने पावागड़ा में 409 वोटों के अंतर से जीत हासिल की थी.
निर्दलीय सहित गैर-मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल 2018 में 4.11 प्रतिशत वोट शेयर हासिल करने में कामयाब रहे. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि एसडीपीआई ने 10.50 फीसदी वोट शेयर हासिल किए थे जबकि एआईएमआईएम ने जेडी (एस) का समर्थन किया था.
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‘मतदाताओं की राय जानना’
जहां एसडीपीआई ने 100 सीटों पर और केआरपीपी ने 51 सीटों पर उम्मीदवार उतारने की घोषणा की है, वहीं आप ने सभी 224 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है.
आप से करीबी से जुड़े एक व्यक्ति ने कहा, ‘सबसे पहले तो इन चुनावों में स्थिति को भांपना यानी लोगों की राय जानना है, दूसरा किसी को हराना है और तीसरा जीतना है.’
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के अनुसार, 2018 में विजयी उम्मीदवारों ने कुल पंजीकृत मतदाताओं में से औसतन 36 फीसदी के साथ जीत हासिल की थी. उन्होंने कहा, ‘इसका मतलब है कि विजेता कुल मतदाताओं के औसतन 36 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करते हैं. 2013 में यह 32 फीसदी था.’
यहां तक कि बड़े नेताओं ने भी महसूस किया है कि छोटी पार्टियां उनके वोट काट रही हैं. 2019 में जद (एस) के संरक्षक एच.डी. देवेगौड़ा तुमकुरु लोकसभा क्षेत्र में एक अपेक्षाकृत अज्ञात भाजपा उम्मीदवार जी.एस. बसवराज से 12,000 से ज्यादा मतों के अंतर से हारे थे. छोटे दलों के अन्य उम्मीदवारों और निर्दलीय उम्मीदवारों को 55,608 मत मिले थे.
बेंगलुरु स्थित राजनीतिक विश्लेषक और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज (एनआईएएस) के नरेंद्र पाणि ने कहा, ‘एक करीबी लड़ाई में, अगर वे (छोटी पार्टियां) 3 से 4 हजार वोट भी पा लें, तो यह बहुत है. उनका बस इतना ही काम है. वे चुनाव नहीं जीत सकते हैं, लेकिन निश्चित रूप से विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में स्थितियों को बदल सकते हैं.’
उन्होंने कहा कि यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा कि वे किसके वोट खाते हैं और उससे किस पार्टी को फायदा होता है.
कांग्रेस और भाजपा दोनों ही AIMIM और SDPI जैसी छोटी पार्टियों का खुद के फायदे के लिए इस्तेमाल करने का एक दूसरे पर आरोप लगा रही हैं. मार्च में, SDPI ने कहा कि 2018 के चुनाव से पहले वह कांग्रेस के साथ थे, क्योंकि दोनों भाजपा को रोकने के लिए आगे आ रहे थे.
हालांकि एसडीपीआई ने 2013 में 23 सीटों पर चुनाव लड़ा और 3.27 फीसदी वोट शेयर हासिल किया था. लेकिन इसने 2018 में अधिकांश सीटों से अपना हाथ खींच लिया और जिन तीन सीटों पर लड़ाई लड़ी, उनमें 10.50 प्रतिशत वोट हासिल किए. पार्टी ने 45,781 वोट हासिल किए और उस चुनाव में कुल वोट शेयर का 0.12 प्रतिशत हिस्सा उसके पास था.
SDPI और AIMIM दोनों ने 2021 के शहरी स्थानीय निकाय चुनावों में जीत दर्ज की. ये आंकड़े बता रहे हैं कि जमीन पर उनकी कुछ उपस्थिति है.
बेंगलुरु के कांग्रेस विधायक रिजवान अरशद ने दिप्रिंट को बताया, ‘करीबी लड़ाई वाले निर्वाचन क्षेत्रों में, इसका असर पड़ सकता है क्योंकि कई सीटों पर कांटे की टक्कर है. इसलिए वोटों के बंट जाने में ये चीजें (छोटी पार्टियां) मायने रखती हैं. लगभग 50 निर्वाचन क्षेत्रों में इसी तरह का खतरा है.’
(अनुवाद: संघप्रिया मौर्या | संपादन: आशा शाह )
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