असम में अवैध घुसपैठ के खिलाफ छह साल तक चले आंदोलन के बाद हुए असम समझौते के लगभग 35 साल बाद इसके अनुच्छेद छह को लागू करने के लिए बनी उच्च-स्तरीय समिति ने अपनी सिफारिशें तो राज्य की सर्बानंद सोनोवाल सरकार को सौंप दी हैं. लेकिन इनमें से कुछ सिफारिशों पर राज्य में विवाद गहराने लगा है. सिर मुंड़ाते ही ओले पड़ने की तर्ज पर मंगलवार को गुवाहाटी में जब मुख्यमंत्री को सीलबंद लिफाफे में यह रिपोर्ट सौंपी गई तो समिति में शामिल अखिल असम छात्र संघ (आसू) के तीनों सदस्य—मुख्य सलाहकार समुज्ज्वल भट्टाचार्य, अध्यक्ष दीपंकर कुमार नाथ और महासचिव लुरिनज्योति गोगोई गैरमौजूद थे. दूसरी ओर, मीडिया में समिति की कुछ सिफारिशें छपने के बाद विभिन्न संगठनों ने इसका विरोध शुरू कर दिया है.
स्थानीय मीडिया में विभिन्न सूत्रों के हवाले सामने आने वाली खबरों में कहा गया है कि समिति ने असम के मूल निवासियों की पहचान के लिए वर्ष 1951 को कटआफ वर्ष तय करने औऱ पूरे राज्य में इनर लाइन परमिट (आईएलपी) शुरू करने की सिफारिश की है. इसके अलावा असम में उच्च सदन की स्थापना औऱ मूल असमिया लोगों के लिए विधानसभा और नौकरियों में 67 फीसदी आरक्षण की भी सिफारिश की गई है.
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अस्सी के दशक में विदेशी घुसपैठ के खिलाफ असम आंदोलन का नेतृत्व करने वाला आसू नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का भी विरोध कर रहा है. वर्ष 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर के बावजूद इसके सबसे अहम अनुच्छेद छह को लागू करने में न तो केंद्र की किसी सरकार ने दिलचस्पी दिखाई औऱ न ही राज्य की. यहां तक कि उस समझौते के बाद चुनाव जीत कर सत्ता में आने वाली असम गण परिषद (अगप) ने भी इसें कोई रुचि नहीं ली जबकि आसू के नेताओं ने ही अगप का गठन कर चुनाव लड़ा और जीता था.
Receiving report of the High Level committee for implementation of Clause 6 of Assam Accord in presence of fellow colleagues of Assam Council of Ministers in Guwahati as per direction of Hon'ble HM Shri @AmitShah ji. pic.twitter.com/4F1md2vaSL
— Sarbananda Sonowal (@sarbanandsonwal) February 25, 2020
केंद्र सरकार को इस अनुच्छेद को लागू करने का ख्याल उस समय आया जब एनआरसी के खिलाफ असम में बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन शुरू हुआ. इसे इस विरोध को दबाने के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया. पहले सरकार ने इस अनुच्छेद को लागू करने के लिए समुचित सिफारिशों के लिए बेजबरुआ समिति का गठन किया था. लेकिन एनआरसी के विरोध में उस समिति के तमाम सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया. उसके बाद न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) बिप्लब कुमार शर्मा की अध्यक्षता में एक उच्च-स्तरीय समिति बनाई गई.
इस समिति ने बीती 15 फरवरी को ही अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली थी. लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय को रिपोर्ट सौंपने की बजाय समिति ने यह रिपोर्ट मुख्यमंत्री को सौंपी. इसके विरोध में ही समिति में शामिल आसू के नेता इस मौके पर गैरहाजिर रहे. आसू के मुख्य सलाहकार समुज्जवल भट्टाचार्य कहते हैं, “समिति की सिफारिशों को असम सरकार के जरिए भिजवाने के केंद्र के निर्देश से साफ है कि अब अनुच्छेद छह को लागू करने में उसकी खास रुचि नहीं है. इस रिपोर्ट के तैयार होने से पहले ही केंद्र ने बांग्लादेशियों की सुरक्षा के लिए नागरिकता संशोधन कानून पारित कर दिया.”
हालांकि एक सरकारी प्रवक्ता ने सफाई दी है कि समिति की रिपोर्ट जमा करने के मुद्दे पर अनावश्यक विवाद पैदा किया जा रहा है. उसका कहना था कि मुख्यमंत्री राज्य प्रशासन के प्रमुख हैं. केंद्र ने उनको रिपोर्ट लेने की जिम्मेदारी सौंपी है. वरिष्ठ भाजपा नेता और वित्त मंत्री हिमंत बिस्व सरमा कहते हैं, ‘रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में है और इसे बुधवार तक केंद्रीय गृह मंत्रालय को सौंप दिया जाएगा.’ उनका दावा है कि केंद्र सरकार समिति की सिफारिशों को लागू करने के प्रति गंभीर है. शर्त यह है कि तमाम सिफारिशें संविधान के दायरे में हों और मूल असमिया की समिति की परिभाषा को विधानसभा भी अनुमोदित कर दे. मंत्री ने कहा कि पहले यह देखना होगा कि समिति की सिफारिशें सुप्रीम कोर्ट के किसी आदेश के खिलाफ नहीं हों और इसमें कोई ऐसी बात नहीं हो जिसे विधानसभा में अनुमोदन नहीं दिया जा सके.
समिति के अध्यक्ष न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) बिप्लब कुमार शर्मा ने 170 पेज की उक्त रिपोर्ट मुख्यमंत्री को सौंपने के बाद पत्रकारों को बताया कि समिति को पूरे राज्य से लगभग 12 सौ सिफारिशें और सुझाव मिले थे. उन सबके अध्ययन के बाद समिति ने आम राय से अपनी रिपोर्ट तैयार की है. समिति के सदस्य और वरिष्ठ पत्रकार वासबीर हुसैन ने बताया, ‘हमने अपनी रिपोर्ट में कई अहम सिफारिशें की हैं. अब गेंद केंद्र के पाले में है.’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस महीने अपने असम दौरे के दौरान भरोसा दिया था कि केंद्र इस समिति की सिफारिशों को लागू करने में देरी नहीं करेगा.
समिति के अध्यक्ष या दूसरे सदस्यों ने हालांकि मीडिया में छपने वाली कुछ अहम सिफारिशों पर कोई टिप्पणी करने से मना कर दिया है. लेकिन इन सिफारिशों की वजह से खासकर बांग्लाभाषी और अल्पसंख्यक समुदाय में भारी नाराजगी है.
एक संगठन गोरिया मोरिया देसी जातीय परिषद के अध्यक्ष हफीजुल अहमद कहते हैं, ‘अनुच्छेद छह मूल असमिया लोगों के हितों की संवैधानिक सुरक्षा का भरोसा देता है. लेकिन 1951 को कटआफ वर्ष मानने पर देश के दूसरे हिस्सों और पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले लाखों प्रवासी लोग भी शामिल हो जाएंगे.’
विरोध करने वाले संगठनों की दलील है कि असम में 1.30 करोड़ अल्पसंख्यक हैं. उनमें से एक तिहाई ही असमिया हैं. अखिल असम अल्पसंख्यक छात्र संघ (आम्सू) का सवाल है कि आखिर सरकार कटआफ की तारीख कैसे तय करेगी ? उस समय तैयार एनआरसी भी अधूरा ही है. उसमें राज्य की लगभग 35 फीसदी आबादी शामिल नहीं थी. आम्सू के अलावा आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फोरम (एआईयूडीएफ) और आल असम बंगाली यूथ स्टूडेंट्स फेडरेशन ने भी इस मुद्दे पर आपत्ति जताई है. फेडरेशन का कहना है कि असमिया की परिभाषा अगर 1951 के कटआफ के आधार पर की गई तो भारी तादाद में हिंदू बंगाली प्रभावित होंगे. फेडरेशन के अध्यक्ष सहदेव दास कहते हैं, ‘हजारों की तादाद में बंगाली हिंदू परिवार वर्ष 1951 के बाद राज्य में आए हैं. 1951 को कटआफ वर्ष मानने पर इन सबको बाहरी माना जाएगा.’
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एआईयूडीएफ के प्रवक्ता अमीनुल इस्लाम सवाल करते हैं, ‘ऐसी स्थिति में आखिर उन लोगों को क्या होगा जो वर्ष 1951 से 1971 के बीच असम में आए हैं ? इन सिफारिशों से मूल असमिया का मुद्दा सुलझने की बजाय और उलझ जाएगा.’ कृषक मुक्ति संग्राम समिति (केएमएसएस) की दलील है कि केंद्र की ओर से समिति की सिफारिशों को सीधे स्वीकार नहीं करना असम के लोगों का अपमान है. असम प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रिपुन बोरा कहते हैं, ‘इससे साफ है कि केंद्र सरकार असम समझौते के अनुच्छेद छह को लागू करने का इच्छुक नहीं है.’
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि समिति की सिफारिशें एक बार फिर विवादों का पिटारा खोल सकती हैं. तीन दशक से भी लंबे समय से अधर में लटके अनुच्छेद छह को लागू करने की राह आसान नहीं नजर आ रही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)