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Friday, 22 November, 2024
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एबीवीपी के 72 साल : वो छात्र संगठन जहां से अमित शाह, नड्डा और राजनाथ सिंह ने राजनीतिक करिअर की शुरुआत की

आरएसएस समर्थित छात्र संगठन की 4,500 से अधिक शहरों और कस्बों के कॉलेजों से लेकर जिला स्तर तक उपस्थिति है और उसके करीब 30 लाख सदस्य हैं.

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नई दिल्ली: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समर्थित छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी), जो यक़ीनन लोकतांत्रिक विश्व का सबसे बड़ा छात्र संगठन है. 9 जुलाई को अपनी 72वीं वर्षगांठ मना रहा है.

भारतीय राजनीति पर इसके प्रभाव का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि केंद्र और राज्यों में मंत्री पदों पर मौजूद भाजपा नेताओं में से लगभग दो तिहाई ने एबीवीपी कार्यकर्ताओं के रूप में सार्वजनिक जीवन में कदम रखा था.

इस सूची में उल्लेखनीय नाम हैं केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह तथा केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, रविशंकर प्रसाद, गिरिराज सिंह, अश्विनी चौबे और पीयूष गोयल, मुख्यमंत्रियों में जयराम ठाकुर (हिमाचल प्रदेश), शिवराज सिंह चौहान (मध्य प्रदेश) और बिप्लब मोहन देव (त्रिपुरा), तथा बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी.

वर्तमान में एबीवीपी के करीब 30 लाख सदस्य हैं. इसकी सदस्यता 2014 के 22 लाख से बढ़कर 2015 में 32 लाख पहुंच गई थी. संभवत: इसमें लोकसभा में भाजपा को पहली बार पूर्ण बहुमत मिलने और नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने तथा इसके कई पूर्व नेताओं के मंत्री बनने की भूमिका थी. उसके बाद से एबीवीपी कार्यकर्ताओं की संख्या 30 लाख के स्तर पर स्थिर रही है.

उत्पत्ति

छात्रों और शिक्षकों के एक समूह ने 1948 में एबीवीपी का गठन किया था. हालांकि इसे आधिकारिक रूप से 9 जुलाई 1949 को पंजीकृत किया गया. संगठन की स्थापना का मुख्य उद्देश्य था, कॉलेज कैंपसों में राष्ट्रवादी आंदोलन खड़ा करना, जहां उन दिनों वामपंथ का बोलबाला था.

ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के वैचारिक अनुगामी भारतीय जनसंघ (बीजेएस) के गठन से भी तीन साल पहले की बात है. बीजेएस का 1977 में जनता पार्टी में विलय हो गया और फिर 1980 में भारतीय जनता पार्टी के रूप में उसका पुनरोदय हुआ.

आरएसएस के पूर्व प्रचारक यशवंत राव केलकर, जो मुंबई विश्वविद्यालय में शिक्षक थे, को एबीवीपी का मार्गदर्शक होने और 1950 के दशक में इसकी दिशा तय करने का श्रेय दिया जाता है.

एबीवीपी का गठन आरएसएस के समर्थन से हुआ था और शुरुआती वर्षों में संघ के प्रचारकों ने इसका मार्गदर्शन किया, लेकिन आगे चलकर बड़ी संख्या में आरएसएस से असंबद्ध छात्र भी इससे जुड़ने लगे. वर्तमान में एबीवीपी की 4,500 शहरों और कस्बों में उपस्थिति है, और संगठन का तेजी से विस्तार हो रहा है.

एबीवीपी का अनूठा मॉडल

एबीवीपी की कार्यप्रणाली भारत के अधिकांश अन्य छात्र संगठनों से अलग है, और इसका दायरा कॉलेज कैंपसों में अपनी इकाइयों की स्थापना से कहीं अधिक व्यापक है. इसने पूरे देश में जिला स्तर पर अपनी इकाइयां गठित की हैं, जिसके कारण इसकी पहुंच वैसे छात्रों तक भी है जोकि पत्राचार के जरिए पढ़ाई करते हैं.


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ऊर्ध्वाधर विस्तार के साथ ही संगठन अपना क्षैतिज विस्तार भी कर रहा है- कुछ दशक पहले इस बात का एहसास होने पर कि छात्रों के विशिष्ट समूहों के अपने विशिष्ट मुद्दे होते हैं. एबीवीपी ने तकनीकी, चिकित्सा और प्रबंधन संस्थानों में विशेष मंचों की स्थापना का काम शुरू कर दिया.

इस प्रकार रिसर्च से जुड़े छात्रों के लिए इसका ‘शोध’ नामक मंच है, जबकि ‘थिंक इंडिया’ नामक एक अन्य फोरम के ज़रिए संगठन एनआईटी, आईआईटी और नेशनल लॉ इंस्टीट्यूट के छात्रों से जुड़ा हुआ है. इसी तरह एबीवीपी ने मेडिकल एवं डेंटल छात्रों के लिए ‘मेडिविजन’ और कृषि विश्वविद्यालों एवं संस्थानों के लिए ‘एग्रीविजन’ नामक मंच बना रखे हैं. कला एवं संस्कृति के छात्रों के लिए इसने ‘राष्ट्रीय कला मंच’ बनाया है.

छात्रों को सामाजिक कार्य से जोड़ने के लिए एबीवीपी ने ‘स्टुडेंट्स फॉर सेवा’ कार्यक्रम संचालित कर रखा है, जिसके तहत छात्र समूहों को झुग्गियों और अन्य पिछड़े इलाकों को गोद लेने के लिए प्रेरित किया जाता है. इसके सदस्य छात्र ज़मीनी स्तर पर सक्रिय रहते हैं.

पूर्वोत्तर में पैठ जमाने और छात्रों को एकजुट करने में सहायक एबीवीपी के सबसे पुराने कार्यक्रमों में से एक है- ‘स्टुडेंट्स एक्सपीरियेंस इन इंटर-स्टेट लिविंग (एसईआईएल)’. इस कार्यक्रम की शुरुआत 1965-66 में की गई थी और इसमें पूर्वोत्तर के छात्रों की देश के दूसरे हिस्सों के राज्यों की यात्रा और साथ ही दूसरे राज्यों से पूर्वोत्तर की यात्रा को बढ़ावा दिया जाता है. इन यात्राओं के दौरान छात्रों को स्थानीय एबीवीपी कार्यकर्ताओं के यहां ठहराया जाता है, जहां उनसे मेहमान की तरह नहीं, बल्कि परिवार के सदस्य की तरह व्यवहार किया जाता है. इस प्रमुख कार्यक्रम की संकल्पना में पीबी आचार्या की महत्वपूर्ण भूमिका थी, जो आगे चलकर नागालैंड के राज्यपाल (2014-19) बने.

ये बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि आपातकाल (1975-77) के दौरान एबीवीपी लोकतंत्र समर्थक आंदोलन में अग्रणी था और इसके 10,000 से अधिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाला गया था, जैसा कि आरंभ में उल्लेख किया गया है, उनमें से कई आगे चलकर प्रमुख राजनीतिक नेता, मंत्री और मुख्यमंत्री बने.

लॉकडाउन के दौरान एबीवीपी की नई भूमिका

कोविड-19 का प्रसार रोकने के लिए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन किए जाने के बाद एबीवीपी ने खुद को नई भूमिका में ढालने का फैसला किया. शुरू में इसने राहत और पुनर्वास अभियान चलाए और फिर छात्रों से निरंतर फीडबैक लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय को उससे अवगत कराने का काम किया.

एबीवीपी ने पीएम केयर्स फंड के लिए 28.64 करोड़ रुपए एकत्रित किए, साथ ही इसने लोगों के बीच 58 लाख से अधिक मास्क, भोजन के 30 लाख पैकेट और 31.7 लाख राशन किट बांटने का काम किया. इसने 17,000 से अधिक छात्रों को उनके घर पहुंचवाने में भी मदद की, जिनमें से बड़ी संख्या पूर्वोत्तर और जनजातीय इलाकों के छात्रों की थी.

लॉकडाउन के दौरान करीब 59,000 एबीवीपी कार्यकर्ता ज़मीनी स्तर पर सक्रिय रहे और संगठन ने 100 दिनों से भी अधिक समय तक 477 किचन संचालित किए, जिनमें से एक किचन उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में फंसे 700 नेपाली मज़दूरों के लिए स्थापित किया गया था.

अपने तरह की एक अनूठी पहल के तहत 11-12 मई को 56,000 एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने देश के 8.86 लाख छात्रों को फोन कर शिक्षा से जुड़े विभिन्न विषयों पर सरकार से अपेक्षाओं पर उनकी राय ली, मसलन ये मुद्दा कि परीक्षाएं वैयक्तिक उपस्थिति वाली हों या फिर ऑनलाइन. फीडबैक आमतौर पर ऑनलाइन परीक्षा के समर्थन में नहीं था, जिससे प्रधानमंत्री कार्यालय को अवगत करा दिया गया.

(लेखक आरएसएस से संबद्ध हैं. वह दिल्ली स्थिति थिंकटैंक ‘विचार विनिमय’ के शोध निदेशक हैं. उन्होंने आरएसएस पर दो किताबें लिखी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यह क्लिक करें)

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