अगरतला, उदयपुर: 8 सितंबर की शाम करीब 4 बजे अगरतला के मध्य स्थित प्रमुख इलाके मेलारमठ में हर तरफ भगवा झंडे लहराते दिखाई देने लगे. दरअसल यहां करीब 500-600 लोगों—भाजपा के कार्यकर्ताओं और नेताओं—ने माकपा के खिलाफ एक जुलूस निकाला था.
इससे दो दिन पहले, त्रिपुरा के धानपुर निर्वाचन क्षेत्र में चार बार मुख्यमंत्री रह चुके माणिक सरकार के काफिले को कथित तौर पर रोके जाने के बाद दोनों दलों के कार्यकर्ता और समर्थक आपस में भिड़ गए थे.
माकपा की राज्य समिति के सदस्य 71 वर्षीय हरिपद दास के लिए भाजपा का 8 सितंबर का जुलूस शहर में पहले भी होते रहे, इसी तरह किसी अन्य आयोजन के जैसा ही था.
लेकिन देखते-देखते इसने एक भयावह मोड़ ले लिया.
जुलूस माकपा के राज्य मुख्यालय के करीब से गुजरने के दौरान, 20-25 भाजपा कार्यकर्ता कथित तौर पर ‘उससे अलग हो गए’ और मुख्य सड़क पर हो रही रैली से हटकर वह पार्टी कार्यालय की तरफ आ गए.
दास ने आरोप लगाया, ‘उन्होंने पहले सामने खड़ी कारों पर हमला किया और उन्हें आग के हवाले कर दिया. फिर कार्यालय में घुस गए, और सब कुछ तोड़-फोड़ दिया, जिसमें अलमारी, दीवारों पर लगे चित्र आदि शामिल थे. धुआं पूरे कार्यालय में भर गया था और हर तरफ राख ही राख नजर आ रही थी. हमें खुद को अपने कमरे में बंद करना पड़ा क्योंकि सांस लेना दूभर हो गया था.’
राज्य में पिछले समय में हिंसा के इस सबसे भयावह दौर में 8 और 9 सितंबर को माकपा के राज्य मुख्यालय के अलावा, पांच मीडिया घरानों के दफ्तरों, वामपंथी पार्टी के जिला और सबडिवीजन कार्यालयों और सैकड़ों माकपा कार्यकर्ताओं के घरों में आगजनी और तोड़-फोड़ की गई.
हिंसा भी घटना यहां कोई नई बात नहीं रह गई है.
दिप्रिंट ने कई पार्टियों के नेताओं से बात की, जिनका मानना है कि 2018 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से ऐसी घटनाएं हो रही हैं और पिछले कुछ महीनों में ये और भी आम बात हो गई हैं.
हिंसा का पूरा घटनाक्रम
हिंसा की हालिया घटना की शुरुआत 6 सितंबर को त्रिपुरा के धानपुर निर्वाचन क्षेत्र से हुई, जहां पूर्व मुख्यमंत्री और विपक्षी नेता माणिक सरकार एक कार्यक्रम को संबोधित करने गए थे.
माकपा नेताओं और मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, सरकार के काफिले को भाजपा कार्यकर्ताओं की तरफ से रोका गया था. इसके तुरंत बाद माकपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों की भीड़ वहां जुट गई और चार बार मुख्यमंत्री रह चुके माणिक सरकार के आसपास घेरा बनाकर उनकी सुरक्षा की.
इस दौरान दोनों पक्षों के समर्थकों के बीच झड़प में कई लोग घायल हुए थे.
दो दिन बाद, इस मामले से असंबंद्ध लगने वाली घटनाओं के क्रम में राज्यभर से हिंसा और आगजनी की खबरें आने लगीं. अगरतला में भाजपा कार्यकर्ताओं ने वाम दल के राज्य और जिला कार्यालयों के साथ-साथ माकपा से संबद्ध समाचारपत्र डेली देशेर कथा और अन्य प्रिंट और विजुअल मीडिया संगठनों के कार्यालयों पर भी हमला किया.
माकपा के एक वरिष्ठ नेता और त्रिपुरा विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष पबित्रा कार ने कहा, उन्होंने हमारे जिला कार्यालय में चेन तोड़ दी और अपने साथ हथियार लेकर आए थे. उन्होंने कार्यालय में तोड़-फोड़ की और कार्यकर्ताओं की मोटरसाइकिलों में आग लगा दी. और यह सब 30 मिनट तक पुलिस के सामने चलता रहा.’
उन्होंने आगे कहा, ‘अग्निशमन सेवा को भी रोक दिया गया था, राज्यभर में हमारे स्थानीय, जिला और सब-डिवीजन कार्यालयों को निशाना बनाया गया. कुछ जगहों पर उन्होंने बुलडोजर चलाया और उन्हें आग लगा दी.’
माकपा की तरफ से जारी एक बयान में कहा गया है, ‘7 से 8 सितंबर के बीच 44 पार्टी कार्यालयों (42 माकपा के, 1 क्रांतिकारी सोशलिस्ट पार्टी, 1 भाकपा-माले) पर हमला किया गया, वहां आगजनी की गई और पार्टी की संपत्तियों को नष्ट किया गया.’
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दिप्रिंट ने 8 सितंबर, 9 सितंबर और 10 सितंबर की घटनाओं पर वाम दल की तरफ से दर्ज कराई गई कम से कम 15 शिकायतों को एक्सेस किया है, जिनमें बड़ी संख्या में भाजपा कार्यकर्ताओं को जिम्मेदार बताया गया है.
पुलिस महानिरीक्षक (कानून-व्यवस्था) अरिंदम नाथ के मुताबिक, इन घटनाओं के बाद कुल 42 एफआईआर दर्ज की गई हैं, जिनमें 25 माकपा ने दर्ज कराई है जबकि सात भाजपा ने और आठ पुलिस ने दर्ज की हैं. दो एफआईआर मीडिया घरानों की तरफ से दर्ज कराई गई हैं. नाथ ने इसकी भी पुष्टि की कि इन मामलों—19 गैर-जमानती अपराधों और अन्य जमानती अपराधों से जुड़े—में 30 से अधिक गिरफ्तारियां हुई हैं.
दिप्रिंट ने त्रिपुरा भाजपा के महासचिव और रैली का नेतृत्व करने वाले नेताओं में एक पापिया दत्ता से इस मसले पर सवाल करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने जवाब देने से इनकार कर दिया और कहा कि किसी को पश्चिम बंगाल जाकर देखना चाहिए जहां ‘वास्तव में राजनीतिक हिंसा की घटनाएं’ हो रही हैं.
भाजपा प्रवक्ता सुब्रत चक्रवर्ती ने कहा कि उनकी पार्टी हमलों का समर्थन नहीं करती है. उन्होंने कहा, ‘हम इस तरह की हिंसा में विश्वास नहीं रखते, इस तरह की हिंसा का समर्थन नहीं करते हैं. अपराध शाखा इस पर उपयुक्त कार्रवाई करेगी. ऐसी घटनाएं भी सामने आई हैं जिसमें एक भाजपा कार्यकर्ता को बेरहमी से पीटा गया और भाजपा के तीन कार्यालयों को निशाना बनाया गया.’
दिप्रिंट ने मुख्यमंत्री के विशेष कार्य अधिकारी संजय मिश्रा के माध्यम से मुख्यमंत्री बिप्लब देबबर्मा की प्रतिक्रिया हासिल करने की कोशिश की है. और यह प्रतिक्रिया मिलते ही कॉपी को उनकी टिप्पणियों के साथ अपडेट किया जाएगा.
पुलिस दोषी?
दिन में हुई इस तरह की घटनाओं के लिए कई लोगों ने पुलिस की आलोचना की. कुछ मामलों में जिन प्रत्यक्षदर्शियों से दिप्रिंट ने बातचीत की उन्होंने हिंसा भड़कने के लिए पुलिस को दोषी ठहराया.
उदयपुर में, जहां माकपा के जिला कार्यालय के साथ-साथ दर्जनों घरों में तोड़-फोड़ और आगजनी हुई, पुलिस शांति व्यवस्था कायम करने में विफल रही थी. जिन घरों को आग के हवाले किया गया उनमें माकपा के पूर्व विधायक माधव साहा का घर भी था.
साहा ने दावा किया, ‘हमने उस समय 2,000-3,000 युवाओं की एक रैली की योजना बनाई थी, जब भाजपा के गुंडे यहां आए और हमारी कारों में तोड़-फोड़ की और लोगों की पिटाई कर दी. पुलिस के सामने ही वह पार्टी कार्यालय में घुस आए और मोटरसाइकिलों को तहस-नहस कर दिया. हालांकि, पुलिस ने कार्यालय के चारों ओर बैरिकेड लगा रखे थे, लेकिन ‘गुंडे’ उसे पार करने में कामयाब रहे थे.
हरिपद दास के मुताबिक, पुलिस एकदम ‘मूकदर्शक’ बनी रही, यहां तक कि जब भीड़ पत्थर चला रही थी और लाठिया लेकर अंदर घुस गई थी तब भी घटनास्थल पर मौजूद होने के बावजूद उसने कुछ नहीं किया.
आईजीपी नाथ ने कहा कि पुलिस आरोपों की जांच कर रही है. ‘अभी इस बात की जांच की जा रही है कि क्या हमारे अधिकारियों की ओर से कोई लापरवाही बरती गई थी. खासकर ये देखते हुए कि प्रतिबाडी कॉलम पर हमले के मामले में संपादक ने पुलिस अधिकारी के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है.’
घटना के बाद दास ने त्रिपुरा हाईकोर्ट में एक याचिका भी दायर की थी, जिसमें उन्होंने कहा है कि पुलिस प्राथमिकी दर्ज कराने और वीडियोग्राफ और सीसीटीवी फुटेज जमा कराने के बावजूद घटनाओं पर कार्रवाई करने में विफल रही है.
त्रिपुरा हाईकोर्ट ने सोमवार को नोटिस जारी कर 4 अक्टूबर को होने वाली अगली सुनवाई में राज्य सरकार का जवाब मांगा है. राज्य सरकार ने सोमवार को पश्चिमी त्रिपुरा में आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू कर दी, यह कदम तृणमूल कांग्रेस की तरफ से अपने महासचिव अभिषेक बनर्जी के नेतृत्व में एक रैली आयोजित करने की अनुमति मांगे जाने के बाद उठाया गया है.
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‘ऐसा पहले कभी नहीं देखा’
माकपा नेता और उदयपुर निवासी संजीब दास के लिए 8 सितंबर के हमले किसी त्रासदी से कम नहीं थे. गोमती के सलगरा इलाके के आंतरिक हिस्से में स्थित दास का घर तोड़-फोड़ और आगजनी के बाद बुरी तरह तहस-नहस पड़ा है.
जब दिप्रिंट ने सलगरा गांव स्थित उनके घर का दौरा किया, तो अंदर केवल राख और कुछ टूटा-फूटा फर्नीचर ही नजर आ रहा था.
संजीब की पत्नी सुपर्णा रानी दास, जो आगजनी की घटना के वक्त अपने दो बच्चों के साथ घर में मौजूद थीं, ने आरोप लगाया, ‘वे बाहर जय श्रीराम के नारे लगाते रहे, और घर को जलाने के लिए पेट्रोल छिड़कना शुरू कर दिया. उस समय तो मुझे यही लगा कि अब मैं जिंदा नहीं बचूंगी.’
अभी अपने एक रिश्तेदार के घर पर रह रहे संजीब ने कहा, ‘मुझे 50-55 लाख रुपये का नुकसान हुआ है. मैं घर के पुनर्निर्माण के लिए आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हूं. मुझे किसी तरह अपना और परिवार का जीवन चलाना है, मेरे पास कुछ नहीं बचा है. उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि मैं माकपा का नेता हूं.’
विपक्षी दल के नेताओं ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि हालांकि, त्रिपुरा में राजनीतिक संघर्ष कोई नई बात नहीं हैं लेकिन यह पिछले 8-9 वर्षों में राज्य में राजनीतिक हिंसा की सबसे भयावह दौर है.
पूर्व मुख्यमंत्री और त्रिपुरा विधानसभा में नेता विपक्ष माणिक सरकार ने दिप्रिंट से कहा, ‘2018 में विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से भाजपा ने बहुत ही फासीवादी तरीके से हमले शुरू किए हैं और पूरे राज्य में एक सिरे से दूसरे सिरे तक हमारे पार्टी कार्यालयों को जलाया गया, तोड़-फोड़ हुई, लूटपाट की गई और कुछ जगह पर तो कब्जा तक कर लिया गया.’
उन्होंने कहा, ‘चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने जो भी वादा किया था, उसे पूरा करने में नाकाम रहे हैं..और अब ये सब जो कर रहे हैं, वो तो सिर्फ पार्टी के मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाने के लिए है.’
टीआईपीआरए मोथा के अध्यक्ष और त्रिपुरा शाही परिवार के मौजूदा प्रमुख प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा ने दिप्रिंट को पूर्व में दिए गए एक इंटरव्यू में कहा था कि भाजपा उस तरह डराने-धमकाने की राह पर चल रही है, जैसा अपने शासनकाल में माकपा करती रही है.
सरकार के सहयोगी कार ने कहा कि जब वाम मोर्चा सत्ता में था, तब ‘व्यक्तिगत संघर्ष’ होते रहे हैं लेकिन हाल की घटनाएं प्रकृति में राजनीतिक थीं. उन्होंने कहा, ‘पहले किसी को बैठक-रैलियां करने में कोई परेशान नहीं होती थी, अब तृणमूल कांग्रेस ने आने का प्रयास किया, लेकिन रैलियां नहीं कर पा रही है.’
त्रिपुरा टीएमसी नेता सुबल भौमिक भी इस बात पर सहमति जताते हैं.
उन्होंने कहा, ‘यह एकदम जंगलराज है, लोग परेशान हो रहे हैं. अपने समय में माकपा भी ऐसी कई घटनाओं में शामिल रही थी, एक बार तो एक विधायक की हत्या भी हुई थी…लेकिन अराजकता की यह स्थिति गंभीर है. हाल में मुझ पर और हमारे एक युवा नेता पर भी हमला किया गया था, हमारी 13 कारों को निशाना बनाया गया था.’
त्रिपुरा कांग्रेस के अध्यक्ष पिजूस विश्वास के मुताबिक, पिछले कुछ वर्षों में राज्य में पार्टी के कार्यालयों पर भी हमले हुए हैं.
उन्होंने कहा, ‘लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के कुछ कार्यालयों पर कब्जा किया गया, कई जगहों पर उनकी दीवारों पर पेंट पोत दिया गया था. कुछ महीने पहले मुझ पर भी हमला किया गया था.’ साथ ही जोड़ा, ‘लेकिन त्रिपुरा के इतिहास में हमने इस तरह के प्रायोजित हमले कभी नहीं देखे हैं, खासकर मीडिया पर.’
राजनीतिक संघर्ष का एक लंबा इतिहास
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट ‘क्राइम इन इंडिया 2020’ के मुताबिक, प्रति एक लाख लोगों पर 0.5 प्रतिशत राजनीतिक अपराधों के साथ त्रिपुरा पूर्वोत्तर क्षेत्र में शीर्ष पर था.
हालांकि, तमाम लोगों के लिए इन घटनाओं में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि राज्य दशकों से राजनीतिक संघर्ष के ऐसे कई उदाहरणों का गवाह रहा है.
त्रिपुरा राज्य और भारत सरकार के बीच त्रिपुरा विलय समझौते पर हस्ताक्षर के बाद 1949 में त्रिपुरा राज्य को आधिकारिक तौर शामिल किया गया था. तीन तरफ से बांग्लादेश से घिरे इस राज्य में 1951 से ही बंगाली प्रवासियों का आना जारी रहा है, राज्य में मूल निवासियों और प्रवासियों के बीच टकराव का एक बड़ा कारण रहा है.
त्रिपुरा यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर इंद्रनील भौमिक ने कहा कि ये सब हिंसा के शुरुआती दौर के उदाहरण हैं. उन्होंने कहा, ‘यह सब राजनीतिक दखल से प्रभावित था, जिसके बाद राजनीतिक मुद्दे अधिक हावी हो गए.’
यह 1978 की बात है जब त्रिपुरा नेशनल वॉलंटियर (टीएनवी)—जिसकी मूल मांग त्रिपुरा की भारत से आजादी थी—के गठन के समय राज्य ने नृपेन चक्रवर्ती के नेतृत्व में अपनी पहली माकपा सरकार चुनी. बाद के सालों में राज्य सरकार की तरफ से आर्थिक नीतियों और काउंटर इंटरजेंसी के जरिये उग्रवादियों को खत्म करने का प्रयास किया गया.
हालांकि, स्थितियां केवल बदतर होती गईं और जून 1980 में राज्य के सदर सब-डिवीजन स्थित के एक गांव मंडई में करीब 350-400 बंगालियों का नरसंहार किया गया. फिर 1988 में, राज्य में चुनाव संबंधी हिंसा में 100 से अधिक लोग मारे गए.
भौमिक का कहना है कि तबसे ही त्रिपुरा में राजनीतिक हिंसा खासकर चुनाव पूर्व हिंसा भड़कना बहुत ही आम बात हो गई है.
उन्होंने कहा, ‘त्रिपुरा का अतीत हिंसक रहा है. हालांकि, समय और स्थान बदल जाता है. विभिन्न बातों को लेकर नजरिया बदलने के साथ ऐसी गतिविधियों के केंद्र भी बदल गए हैं. पिछले कुछ महीनों में राजनीतिक हिंसा की घटनाएं तेज होने की वजह शायद यह है कि ‘राज्य के चुनाव में डेढ़ साल से कम समय बचा है’ और यह ‘ताकत दिखाने’ की एक राजनीतिक रणनीति हो सकती है.’
प्रद्योत देबबर्मा के मुताबिक, हालिया घटनाओं की शुरुआत त्रिपुरा में तृणमूल कांग्रेस के प्रवेश की कोशिशों के साथ हुई हैं. उन्होंने कहा, ‘बंगाल की हार के घाव ठीक अभी भरे नहीं हैं और तृणमूल के सीधे त्रिपुरा में आने पर भाजपा ने कुछ ज्यादा ही तीखी प्रतिक्रिया दी है.’
उन्होंने कहा, ‘भाजपा ने वामपंथियों के कार्यालयों पर हमले करके और उन्हें जलाकर बेवजह ही उन्हें तूल दे दिया है. भाजपा ने ऐसा करके लगभग खत्म हो चुकी वामपंथियों की पार्टी को एक तरह से जीवनदान ही दिया है. भाजपा अपने ही जाल में फंस गई है.’
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