मोदी के लिए 2019 के लोकसभा में आए मतों का महत्व है, राज्य के चुनावों का नहीं. इसलिए प्रधानमंत्री का सारा ध्यान योजनाओं के कार्यान्वयन पर केंद्रित होगा.
प्रधानमंत्री के पास पूरा 2018 पड़ा है कि वह अपने सरकार के प्रदर्शन के सूचकों पर काम कर सके, ताकि वह 2019 में अपनी सरकार के काम को ‘सुधार-प्रदर्शन-रूपांतरण’ (रिफॉर्म, परफॉर्म, ट्रांसफॉर्म) के बनाए हुए स्कोरकार्ड पर सजा कर पेश करे सकें.
गुजरात चुनाव में शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कड़ी परीक्षा हुई, लेकिन नतीजों ने आखिरकार उनकी स्थिती को मजबूत किया, जहां से वह अब केवल एक चुनाव के लिए योजना बना सकते हैं- 2019 के आम चुनाव.
कैसे? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भले ही भाजपा कितनी भी मोदी-केंद्रित नज़र आए, लेकिन 2013 तक वह भाजपा के कुछ सफल मुख्यमंत्रियों में से एक मात्र थे। हां, वह सबसे वरिष्ठ थे, लेकिन भाजपा के दिल्ली नेतृत्व में हरेक आदमी उनको पसंद भी नहीं करता था.
भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नाम भी आगे बढ़ाया था, पर मोदी ने इन चुनौतियों को बखूबी पार किया और 2014 में शानदार जीत के साथ इसे मुहरबंद कर दिया.
तब से, हरेक विधानसभा चुनाव मोदी की लोकप्रियता के लिए एक लिटमस-टेस्ट ही है औऱ इसी तरह हरेक जीत उनके अधिकार को पुष्ट करती चली गयी. सच्चाई यह है कि न तो मोदी और न ही अमित शाह अपने बढ़े हुए रुतबे को भाजपा के अंदर या बृहत्तर संघ परिवार में हल्के में ले सकते हैं.
मोदी जानते हैं कि उनकी लगातार जीत ने ही उनके विरोधियों को दूर रखा है. इसीलिए, बिहार एक दुर्घटना था। इसीलिए यह महत्वपूर्ण है कि मणिपुर और गोवा में अपनी सरकार बनायी जाए (स्कोरकार्ड को 3-2 रखने के लिए) जबकि उत्तर प्रदेश में इसी साल की शुरुआत में प्रचंड बहुमत से सरकार बनी हो.
सच पूछिए, तो महागठबंधन का टूटना और नीतीश कुमार की राजग में वापसी किसी भी तरह एक राजनीतिक जीत से कम नहीं थी. हालांकि, इस जुनून पर गुजरात के साथ एक रोक लगनी चाहिए, खासकर प्रधानमंत्री मोदी के लिए. मोदी प्रधनामंत्री रहते हुए भी खुद को चुनावों से दूर नहीं रख पाए. इसी का नतीजा है कि दूसरे भाजपा मुख्यमंत्रियों की तुलना में वह अलग लीग में जा खड़े हुए.
चौहान, रमन सिंह और वसुंधरा राजे को पहले तो इस प्रयास की बराबरी करनी होगी, तब कहीं जाकर वह चुनौतियों के तौर पर विचारे भी जाएंगे. यह मोदी के लिए राहत और सांत्वना की बात है. भाजपा में तो उनका बड़ा कद है ही.
इसी तरह, कर्नाटक में आनेवाला चुनाव कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए अधिक महत्वपूर्ण है, बल्कि अग्निपरीक्षा है, मोदी के लिए यह एक चुनाव मात्र है. हालांकि, दूसरे भाजपा मुख्यमंत्रियों की तरह ही वहां पार्टी के स्थानीय क्षत्रप और नेता बी एस येदुरप्पा के लिए यह चुनाव बहुत अहम है.
इसीलिए, यहां से राज्य की चुनावी जीत या हार मोदी के लिए 2019 के आम चुनाव के हिसाब से बहुत कम महत्व के है. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा ने 2003 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की, पर 2004 के आम चुनाव में हार मिली.
इसके ठीक उलट कांग्रेस ने कर्नाटक, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को 2008 में गंवाया, लेकिन 2009 का आम चुनाव जीत गयी. इसीलिए, ऐतिहासिक रूप से भी, इन राज्यों के चुनाव परिणाम सीधे आम चुनाव पर प्रभाव डालें, ऐसा जरूरी नहीं है.
प्रधानमंत्री के पास इसीलिए पूरा 2018 पड़ा है ताकि वह अपने सरकार के प्रदर्शन के सूचकों पर काम करें, जिसे वह 2019 में ‘रिफॉर्म-परफॉर्म-ट्रांसफॉर्म’ के आधार पर पेश करना चाहते हैं.
इस मोरचे पर सरकार मानना चाहेगी कि जीएसटी के कार्यान्वयन और नोटबंदी की आकस्मिकता के तौर पर सबसे बुरा समय बीत चुका है और वे चुनावी मुद्दे नहीं बनेंगे. सारा ध्यान ग्रामीण इलाकों, किसानों को राहत और प्रधानमंत्री आवास योजना के कार्यान्वयन पर केंद्रित होगा, जिसे भाजपा उज्ज्वला योजना के साथ मिलाकर बेचना चाहेगी. यह समय दरअसल पहले की गयी घोषणाओं को जमीन पर और मजबूत करने का होगा.
इसके अलावा, गुजरात नतीजों ने फिर से जातिगत आरक्षण को बहस के केंद्र में ला दिया है. यह ऐसा मसला है, जिसे भाजपा ने यूपी में तो गले लगाया, जिसे अभी कांग्रेस ने गुजरात में मसला बनाया. 2019 के समय तक ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के लिए आरक्षण देखनेवाली समिति अचानक प्रासंगिक हो जाएगी.
इसकी कम संभावना है कि भाजपा पूरी तरह से खुद को किसी अतिशय विभाजनकारी धार्मिक/सांप्रदायिक मुद्दे में खुद को झोंकेगी, जो उसके गवर्नेस के पैकेज से किसी भी तरह ध्यान भटकाए। हालांकि, जब-तब इनको हवा देती रहेगी, ताकि हांडी गरम रहे औऱ काडर संतुष्ट.
मोदी के लिए एक बड़ा अंतर हालांकि यह होगा कि वे एक जीवंत कांग्रेस से जूझ रहे होंगे, जो भाजपा से हरेक स्तर पर निबटने को आतुर है, चाहे वह किसानों के असंतोष को भड़काकर सड़कों पर उतरना हो या फिर अधिक प्रगतिशील मसले जैसे संसद में महिला आरक्षण या फिर सरकारी मसलों पर रोजाना प्रहार.
यह एक करीबी मुकाबला होगा. जिसे मोदी तुलनात्मक तौर पर फायदे की जगह औऱ आराम से खेलेंगे। राहुल गांधी की अब से परीक्षा है, 2019 तक चुनाव-दर-चुनाव.
प्रणब धल सामंता दिप्रिंट के एडिटर हैं.