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Friday, 29 March, 2024
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नियमों के बावजूद पार्टी में एक भी दलित पदाधिकारी न होने से गुस्से में हैं भाजपा के दलित

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दिप्रिंट का दलित इतिहास महीना

सत्तारूढ़ दल के दलित नेताओं का कहना है कि पार्टी ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया है और बीजेपी के गढ राज्यों में विरोध प्रदर्शन को रोकने के लिए अनुसूचित जाति का एक भी वरिष्ठ नेता नहीं है।

नयी दिल्ली: भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अक्सर दलितों के समर्थन का और दलित समुदाय की समस्याओं के पछ में दम भरती है, खासकर जब से 2014 और 2017 में चुनावों में उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अनुसूचित जाति के वोटों का बड़ा हिस्सा प्राप्त हुआ है।

लेकिन जो पार्टी 22 राज्यों की सत्ता में है उस पार्टी के केंद्र में अपने राष्ट्रीय अधिकारी और पदाधिकारियों के बीच एक भी दलित नेता नहीं है – इस प्रकार से पार्टी अपने ही संविधान के एक खंड की अनदेखी कर रही है।

सुप्रीम कोर्ट के एससी / एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के खिलाफ पूरे देश में हिंसक दलित विरोध हो रहा है इसी बीच, सत्तारूढ़ दल अब कुछ आंतरिक कलह का सामना भी कर रहा है – दलित नेताओं के एक वर्ग ने इसके विरोध में आवाज उठाते हुए उन्हें उपेछित करने और समान अधिकार न दिये जाने के आरोप लगाये हैं।

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इन नेताओं में से कई ने केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के दावे को खारिज कर दिया है कि भाजपा दलितों की भलाई के लिए प्रतिबद्ध है। प्रसाद ने दलितों द्वारा किए जा रहे विरोध प्रदर्शन के मुद्दे पर सरकार का बचाव करते हुए इस तथ्य पर ध्यान आकर्षित किया कि भाजपा में सबसे ज्यादा दलित सांसद हैं, हालांकि असंतुष्ट नेताओं ने इस दावे का खंडन करते हुए ये कहा कि यह पूरी तरीके से बनावटी और बिना तर्कसंगत है कि सरकार दलित नेताओं की परवाह करती है।

इस समय यह असंतोष और महत्वपूर्ण हो जाता है जब बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख दलित नेता मायावती द्वारा लिया गया यह फैसला कि अगले वर्ष के लोकसभा चुनावों के लिए समाजवादी पार्टी के साथ बहुजन समाजवादी पार्टी का सहयोग रहेगा। बसपा और सपा का चुनाव के लिए आपसी समायोजन, भजपा के लिए उत्तर प्रदेश की 80 सीटों (दो सीट सहयोगी दल द्वारा जीती गयीं) में से 71 सीटों को दोबारा जीतने में एक गंभीर खतरा माना जा रहा है, जो कि सबसे निर्णायक महत्वपूर्ण राज्य हैं।

भाजपा के पार्टी संविधान के अनुसार

भाजपा के संविधान के, पृष्ठ 12 पर, अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी को बनाने के बारे में उल्लेखित अनुच्छेद 20 के बिंदु 2 का कहना है – “राष्ट्रपति राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों में से 13 उपाध्यक्षों से अधिक उपाध्यक्ष नहीं होने चाहिए, 9 से अधिक सामान्य सचिव नहीं होने चाहिए, एक महासचिव (संगठन) का होना चाहिए, 15 से अधिक सचिव नहीं होने चाहिए और एक कोषाध्यक्ष होना चाहिए। पदाधिकारियों में से कम से कम 13 महिलाएं होंगी और कम से कम तीन (3) अनुसूचित जाति और तीन (3) अनुसूचित जनजाति के सदस्य होंगे।”

लेकिन वर्तमान में, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में छह उपाध्यक्ष, आठ महासचिव, चार संयुक्त महासचिव और 11 सचिवों में से कोई भी दलित नहीं है।

ज्योति धुर्वे, मध्य प्रदेश के बैतूल से सांसद और राष्ट्रीय सचिव ये दावा करते आए हैं कि वह अनुसूचित जनजाति के हैं। हालांकि, राज्य में भाजपा सरकार ने पिछले साल उच्च स्तरीय जांच समिति द्वारा उनको दोषी पाते हुए उनके एसटी प्रमाणपत्र को रद्द कर दिया था।

नगण्य प्रतिनिधित्व की समस्याएं

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने दिप्रिंट को यह बताते हुए कहा की, “यदि पार्टी के शीर्ष स्तर में दलित प्रतिनिधित्व नहीं है तो हम दलित समुदाय की समस्याओं को संगठन के नेतृत्व के सामने कैसे उजागर करेंगे? पार्टी के भीतर दलित नेताओं के प्रति असंवेदनशीलता का कारण यही है कि वर्तमान के संकट से निपटने में दलित नेताओं की बड़ी कमी है। ”
यह भावना पार्टी के वरिष्ठ दलित नेताओं द्वारा उठती है, कि उनमें से कुछ लोगों के अनुसार देश भर में विरोध प्रदर्शन का कारण सरकार द्वारा 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट का अनुसूचित जाति से सम्बंधित दिये गए आदेशों पर सरकार की ‘आलसी’ प्रतिक्रिया है। वे कहते हैं कि अगर भाजपा में जमीनी स्तर पर काम करने वाले पुराने विश्वसनीय नेता होते तो राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्यों में उग्र हुए विरोध प्रदर्शनों पर काबू करना बहुत आसान होता।

“एक अन्य वरिष्ठ दलित नेता के अनुसार- “संगठन में असंतोष की भावना उत्त्पन्न हो रही है, पार्टी के महत्वपूर्ण विषयो पर हम लोगो से चर्चा नहीं होती। हम मुद्दों को नहीं उठा सकते क्योंकी हमें संगठन के भीतर की उपाधियो का प्रतिनिधित्व करने की आवश्यकता है। और जैसा कि जमीनी स्तर पर भी टिकट वितरण के समय हम लोगो से परामर्श नहीं किया जाता है, यहाँ तक पार्टी के कई तथाकथित ‘दलित नेताओं’ को समुदाय के भीतर मान्यता भी नहीं प्राप्त है.

सरकार और पार्टी की संस्कृति की रक्षा में

हालांकि, यह विचार भाजपा के सभी दलित नेताओं द्वारा साझा नहीं किया गया है। कुछ ही नेताओं ने सरकार का बचाव किया और कहा कि सरकार दलितों पर ध्यान दे रही है।

भाजपा के एक दलित नेता ने यह कहा की “2015 में, अत्याचार अधिनियम की समीक्षा की गई और इसके तहत केवल 22 प्रकार के मामले थे जबकि अब उठाए जाने वाले मामलों की संख्या बढ़कर 123 हो गई है। हमने भारतीय राजनीति में दलितों का नेतृत्व किया है ”

यहाँ ऐसे भी लोग हैं जो आरएसएस की एक साथ मिलकर खाने और शाखा के सदस्यों को उनके नाम से पहचानने की परंपरा पर सवाल उठाते हैं। असल में पार्टी प्रमुख अमित शाह ने यह सुनिश्चित किया था कि वह उत्तर प्रदेश में अपने हर चुनाव प्रचार के दौरान एक दलित कार्यकर्ता के घर पर भोजन करेंगे।

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