बिहार में सांप्रदायिक दंगों पर नीतीश चुप्पी साधे रहे, उन्होंने भाजपा से जुड़े संदिग्धों के खिलाफ भी कोई कार्रवाई नहीं की। जबकि एक समय मोदी के योग्य प्रतिद्वंद्वी का संबोधन प्राप्त हो चुका है।
नई दिल्ली: एक समय था जब नीतीश कुमार को केंद्र में नरेंद्र मोदी और भाजपा से लोहा लेने के लिए विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में माना गया था। पर आज, बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में भी उनका कद झूठा लग रहा है।
पिछले दो सप्ताह में, बिहार के विभिन्न हिस्सों से सांप्रदायिक हिंसा की एक श्रृंखला हुई है। कुछ मामलों में, भाजपा नेताओं ने इन घटनाओं को अपने बयानों के माध्यम से उकसाया था – केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के पुत्र अरजीत शाश्वत भागलपुर में मुख्य संदिग्धों में से एक हैं।
शाश्वत के खिलाफ एफआईआर और गिरफ्तारी वारंट के बावजूद राज्य सरकार ने उन्हें गिरफ्तार नहीं किया। वास्तव में, यहां तक कि उन्होंने पटना की सड़कों पर खुलेआम घूमते हुए फेसबुक पर एक लाइव वीडियो द्वारा स्वयं को गिरफ्तार करने के लिए नीतीश को चुनौती दी थी। चौबे ने अपने बेटे को पूरी तरह से समर्थन दिया, यहां तक कहा कि उनके बेटे ने जो कुछ भी किया है, उन्हें उस पर “गर्व” है।
लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश काफी हद तक चुप रहे – उन्होंने केवल एक बार बात की, लेकिन भाजपा या सांप्रदायिक बयान देने वाले नेताओं का नाम लिए बिना।
19 मार्च को साप्ताहिक प्रेस वार्ता के दौरान उन्होंने कहा, “मैं भ्रष्टाचार के साथ समझौता नहीं करूंगा और न ही किसी भी विभाजनकारी राजनीति का समर्थन करूँगा।”
आखिरकार जब पटना उच्च न्यायालय ने उनकी अग्रिम जमानत को खारिज कर दिया तो 31 मार्च को शाश्तव ने आत्मसमर्पण कर दिया था।
विपक्ष के नेता तेजसवी यादव ने नीतीश का उपहास उड़ाने में देर नहीं लगाई। “नीतीश जी का पूरा प्रशासन विफल है। उनकी पुलिस अपराधी को गिरफ्तार तक नहीं कर सकती है और उसने स्वयं आत्मसमर्पण किया है। पुलिस को बुलाने से पहले, उन्होंने मीडिया को संक्षेप में बताया कि बिहार में कानून और व्यवस्था पूरी तरह खत्म हो गई है। यह आपके लिए कुर्सी बाबू का सुशासन है ” उन्होंने ट्वीट किया।
उतार-चढ़ाव
नवंबर 2015 में, जब जेडी(यू)-आरजेडी-कांग्रेस के महा गठबंधन ने बिहार में भाजपा और उसके सहयोगी दलों पर जोरदार जीत दर्ज की तो देश भर में विपक्षी दलों ने इसे 2019 में नरेंद्र मोदी की हार की तरफ पहला कदम माना। एक नेता के रूप में नीतीश का कद कई गुना बढ़ गया, क्योंकि अभियान में मोदी और नीतीश के बीच सीधा चुनावी संग्राम हुआ। वास्तव में जब भाजपा के प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मोदी का नाम घोषित किया गया था, तो नीतीश ने भाजपा के साथ अपना वर्षों पुराना गठबंधन तोड़ लिया था।
जेडी (यू) के प्रमुख विपक्ष के लिए पोस्टर बॉय बन गए, और यहां तक कि कांग्रेस नेताओं ने निजी तौर पर उनकी राष्ट्रीय भूमिका को स्वीकार कर लिया।
हालांकि, पिछले साल जुलाई में हालात बदल गए जब जेडी (यू) ने महा गठबंधन से अलग होकर मोदी और अमित शाह की अगुवाई वाली भाजपा के साथ हाथ मिला लिया।
नीतीश ने उस समय कहा था, “यह लंबे समय के बाद बिहार के हित में लिया गया फैसला है, केंद्र और बिहार में एक समान गठबंधन सरकार होगी। इससे विभिन्न विकास परियोजनाओं के लिए मार्ग प्रशस्त होगा।”
आठ महीने बाद दोनों नेताओं के बीच खुशमिजाजी का कोई संकेत नहीं है। नीतीश की छवि फीकी दिखने लगी है; बिगड़ती कानून और व्यवस्था की स्थिति के कारण उनकी ‘सुशासन बाबू’ (अच्छे शासन वाला व्यक्ति) की छवि खराब हो गई है।
पिछले साल यूपी चुनावों तक, नीतीश सभी विपक्षी पार्टियों को भाजपा के खिलाफ एक साथ लाने की कोशिश कर रहे थे। वे पूर्व में ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस से लेकर उत्तर में अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी तक सभी को स्वीकार्य थे। लेकिन जनता की नजरों में उनका बार बार साथी बदलना उनकी छवि को काफी नुकसान पहुंचा चुका है।
पटना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एन.के.चौधरी ने बताया कि “नीतीश छोटे लाभ से ही संतुष्ट हो गए। वह एक बड़ी राष्ट्रीय भूमिका के लिए राज्य सत्ता की बलि देने के लिए तैयार नहीं थे।”
विरोधियों के हमले
लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव और बड़े (भव्य) गठबंधन सरकार में नीतीश कुमार के डिप्टी ने उनपर भ्रष्टाचार, धर्मनिरपेक्षता और शासन पर अपने ‘गैर-परक्राम्य’ भूमिका की याद दिलाते हुए आरोप लगाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। इसके अलावा, जब टीडीपी ने आंध्र प्रदेश में अपना विशेष दर्जा प्राप्त न होने पर एनडीए छोड़ने का फैसला किया, तो तेजस्वी ने भी नीतीश को जल्दी से याद दिलाया कि उन्हें टीडीपी के जैसी नितियों का पालन करना चाहिए, क्योंकि बिहार को विशेष दर्जा लंबित मांग है।
आखिरकार, नीतीश कुमार को 19 मार्च को एक प्रेस कॉफ्रेंस में इस मुद्दे पर मीडिया को संबोधित करना ही पड़ा: “मैं पिछले 13 वर्षों से विशेष दर्जा पाने की मांग कर रहा हूँ। हम 15वें वित्त आयोग से पहले एक बार फिर इस मुद्दे को उठाएंगे।“
मनोज झा, आरजेडी के प्रवक्ता और राज्यसभा के सांसद, ने कहा, आम तौर पर लोकतंत्र में, मतदाता एक नेता की राजनीतिक पतन सुनिश्चित करते हैं लेकिन नीतीश कुमार ने अपना राजनीतिक पतन खुद ही लिखा है। आज बिहार में भाजपा बनाम आरजेडी है; नितीश की पार्टी तस्वीर में कहीं नहीं है। ”
तेजसवी ने कहा, “नीतीश कुमार की सरकार नागपुर (आरएसएस मुख्यालय) और दिल्ली से चल रही है। वे सिर्फ मोदी और आरएसएस के हाथों में कठपुतली हैं।”
नीतीश को नीचा दिखाना
पिछली दो बार से लगातार एनडीए के मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश ‘हाई कमांड’ थे जो गठबंधन को संचालित कर रहे थे और भाजपा के किसी भी हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं कर रहे थे। लेकिन आज परिस्थितियाँ बदल चुकीं हैं, उनका अपनी सरकार पर कोई नियंत्रण नहीं है जिसका मुख्य कारण केंद्र में मजबूत भाजपा की सरकार होना है। भाजपा स्वयं यह साबित करने का कोई मौका नहीं देना चाहती कि जद(यू) अब उनके जूनियर पार्टनर हैं।
मंत्रिमंडल में फेरबदल
पिछले साल की 3 सितंबर को जब केंद्र की कैबिनेट में फेरबदल हुआ था, तो जेडी (यू) को समारोह के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था, जबकि जेडी(यू) के एक एक-दो सांसदों को मंत्री बनाने की बात की जा रही थी।
जेडी(यू) के वरिष्ठ नेता के.सी.त्यागी ने कहा कि एक उप-मुख्यमंत्री और कुछ महत्वपूर्ण विभागों सहित हमने बिहार के कैबिनेट में भाजपा को उचित प्रतिनिधित्व दिया है, “बदले में, हमें केंद्र में कुछ नहीं मिला।”
बाढ़ राहत जांच
कुछ दिनों बाद, गुजरात सरकार ने नीतीश कुमार को बाढ़ राहत के लिए उनके आवास पर 5 करोड़ रुपये का चेक दान दिया। ठीक यही प्रक्रिया 2010 में हुई थी जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब नीतीश कुमार ने चेक को अस्वीकार किया था और इतना ही नहीं भाजपा के बड़े नेताओं के साथ भोजन करने से भी मना कर दिया था, जो नेता पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारी के लिए पटना में थे।
14 अक्टूबर को, मोदी ने पटना विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह में भाग लेने के लिए पटना विश्वविद्यालय का दौरा किया। नीतीश के एनडीए से दोबारा जुड़ने के बाद यह प्रधानमंत्री की पहली यात्रा थी और यात्रा से बहुत उम्मीद की जा रही थीं। अपने भाषण में, नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री से एक केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने के लिए हाथ जोड़कर अनुरोध किया, लेकिन प्रधानमंत्री ने अनुरोध यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि यहाँ विश्व स्तरीय संस्था होनी चाहिए। प्रधानमंत्री की इस प्रतिक्रिया पर नीतीश कुमार असहज दिखे, लेकिन वे एकदम शांत रहे।
ऊर्जा मंत्रियों का सम्मेलन
10 और 11 नवंबर को राजगीर, बिहार में राज्य के ऊर्जा मंत्रियों की कांफ्रेंस आयोजित होनी थी। चूंकि बिहार पहली बार इस तरह की कांफ्रेंस की मेजबानी कर रहा था, इसलिए वहाँ पर भव्य तैयारी की गई थीं।
केंद्रीय ऊर्जा राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभारी) आरके सिंह को इस कार्यक्रम का उद्घाटन करना था, लेकिन एक दिन पहले 9 नवंबर की दोपहर को, बिहार सरकार को सूचित किया गया कि यह कांफ्रेंस रद्द कर दी गई है, क्योंकि सिंह को 10 नवंबर को मंत्रियों की बैठक में भाग लेने जाना है।
कांफ्रेंस का स्थगित होना बिहार सरकार के लिए एक बड़ी शर्मिंदगी के रूप में सामने आया था। विभिन्न राज्यों के कई ऊर्जा मंत्री इस सम्मेलन में सरीक होने के लिए पटना पहुँच चुके थे, जिसमें कि कुछ विद्युत मंत्रालय के अधिकारी थे, जबकि कुछ रस्ते में थे। गायक सोनू निगम, जिन्हें राजगीर समारोह में अपनी प्रस्तुति करनी थी इसके बजाय उन्हें केवल पटना की जनता के सामने ही प्रस्तुति देनी पड़ी।
नीतीश ने इस बात पर नाराजगी जताई। उन्होंने कहा “मुझे लगता है कि अंतिम क्षण में स्थगित करने की घोषणा करना अव्यावहारिक था। इससे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई है।”
जेडी (यू) के सूत्रों ने द प्रिन्ट से कहा कि नीतीश ने बिहार में बिजली की स्थिति में सुधार लाने और केंद्र एवं अन्य राज्य अपना कार्य किस तरह से कर रहे हैं, पर 45 मिनट का भाषण तैयार किया था। यह कुछ ऐसा था कि भाजपा नीतीश को श्रेय देने के लिए तैयार नहीं थी और सूत्रों ने कहा कि यह सभा सथागित करने के संभावित कारणों में से एक है।
नीतीश यह बहुत अच्छी तरह जानते हैं। 31 मार्च को, नीतीश ने राज्य में शांति और सामंजस्य को बनाए रखने हेतु प्रार्थना की पेशकश करने के लिए मखमल की तंग टोपी पहनकर पटना में एक मंदिर का दौरा किया।
2019 के आम चुनावों की हालत करीब-करीब और भी बदतर हो सकती है। त्यागी ने स्वीकार किया कि “बहुत देर होने से पहले बेहतर सामंजस्य आवश्यक है।”लेकिन अब भी, कुछ जेडी (यू) विधायक कथित तौर पर अन्य दलों के साथ बातचीत कर रहे हैं। यदि ऐसा ही मामला रहता है तो नीतीश कुमार के लिए आने वाला समय कठिन हो सकता है।
पुलिस महानिदेशक की नियुक्ति
इसके बाद इस साल फरवरी में एक नए डीजीपी की नियुक्ति के संबंध में नीतीश कुमार ने नाराजगी जताई। हालांकि नीतीश, रविंद्र कुमार को नियुक्त करना चाहते थे, जबकि बीजेपी ने के.एस. द्विवेदी का नाम सुझाया। के.एस. द्विवेदी के कार्यकाल के दौरान 1989 के अक्टूबर में भागलपुर में सांप्रदायिक दंगे भड़के थे और तब से, उन्हें कभी महत्वपूर्ण पोस्टिंग नहीं मिली थी।
नीतीश की आपत्तियों के बावजूद, भाजपा ने उन्हें द्विवेदी की नियुक्ति के लिए आश्वस्त किया और कहा कि 1984 के बैच अधिकारी अगले साल जनवरी में चुनाव से पहले सेवानिवृत्त हो जाएगे। हालांकि, इस फैसले की वजह से इतनी सारी आलोचनाएं हुईं कि राज्य गृह सचिव अमीर सुभानी को स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा।
उपचुनाव अवसाद
मार्च में, जेडी (यू) के उम्मीदवार की उपचुनाव जहानाबाद विधानसभा में हार ने भी दलों के बीच संबंधों में खटास पैदा कर दी थी। 2015 में भव्य गठबंधन के हिस्से के रूप में यह आरजेडी द्वारा जीता गया था; हालांकि, ऊंची जाति भूमिहार, यादव और ओबीसी के वर्चस्व वाले एक निर्वाचन क्षेत्र में, भाजपा ने जातिवाद की मंशा से यह सीट नीतीश को सौंपी थी।
जेडी (यू) के विधायक ने कहा, “हार ने एक ऐसी भावना का सृजन किया है कि नीतीश, अन्य यादव समुदाय के बीच अपना प्रभाव खो रहे हैं।” जैसा कि उपचुनावों में हुआ था, यदि ओबीसी, दलित और अल्पसंख्यक एक तरफ हो जाएं तो भाजपा प्रभावित हो सकती है। इसलिए, अब भाजपा पुनः अपनी ध्रुवीकरण की नीति अपना रही है।”
जेडी (यू) नेताओं ने इस तथ्य को भी स्वीकार किया है कि दो साथियों के मध्य सामंजस्य निम्नतम बिन्दु पर हैं।
जेडी (यू) नेता त्यागी ने कहा, ” यहाँ तक की हाल के दिनों में केंद्र में मुझे एनडीए साझेदारों की समन्वय बैठक भी याद नहीं है।”
नीतीश के सामने विकल्प
बिहार जैसे जाति-आधारित राज्य में, नीतीश एकमात्र ऐसे नेता हैं जिनके पास महत्वपूर्ण, निष्ठावान जाति के वोट नहीं है। उनका अपना कुर्मी समुदाय ही मतदाता आबादी का एक बड़ा हिस्सा नहीं है और नालंदा तथा बिहार शरीफ जैसे कुछ जिलों में ही प्रभावी हैं। यही कारण है कि उन्हें सत्ता में रहने के लिए भाजपा और राजद जैसे दलों का सहारा लेना पड़ता है। इसी कारण से उन्होंने एक ‘सुशाशन बाबू’ या ‘विकास पुरुष’ (विकासशील मनुष्य) के रुप में अपनी छवि का निर्माण किया है जिससे वह सभी जातियों से वोट अर्जित करते हैं।
कुछ जेडी (यू) नेताओं का कहना है कि अगर उन्हें और परेशान किया गया तो नीतीश फिर राजनीतिक साथी बदल सकते है और एनडीए से बाहर निकल कर तीसरे मोर्चे का गठन कर सकते है या उसमे शामिल हो सकते हैं।
पिछले हफ़्ते में, नीतीश ने बिहार के एनडीए के साथियों रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाह से मुलाकात की। संकेत यह हैं कि जेडी (यू), पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (आरएलएसपी) भाजपा पर कुछ दबाव डालने और एनडीए के भीतर एकजुट मोर्चा बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
2014 में, जब जेडी (यू) ने स्वतंत्र रूप से लोकसभा चुनाव लड़ा था, तब उसने 16 प्रतिशत वोट प्राप्त करने के साथ दो सीटों पर जीत हासिल की थी। एलजेपी के छह प्रतिशत और आरएलएसपी के तीन प्रतिशत वोटों को जोड़कर, नीतीश 2015 विधानसभा चुनावों में भाजपा के 25 फीसदी वोट प्रतिशत के करीब पहुँच जाएंगें।
विशेषज्ञों का कहना है कि नीतीश का 16 फीसदी हिस्सा अतीत की बात है।
“नीतीश का अल्पसंख्यक वर्गों में भी काफी सम्मान था लेकिन वर्तमान दौर के सांप्रदायिक हिंसा के चलते उन्होंने इस निर्वाचन क्षेत्र को खो दिया है। साथ ही पटना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर चौधरी ने यह भी कहा कि नितीश प्रत्येक दिन अपनी छवि को कमज़ोर कर रहे हैं और नीतीश भी यह बहुत अच्छी तरह से जानते हैं।
31 मार्च को, नीतीश ने राज्य में शांति और सामंजस्य को बनाए रखने हेतु एक धार्मिक स्थल का दौरा किया जहाँ उन्होंने मखमल की टोपी पहनकर प्रार्थना करी।
2019 के आम चुनावों में हालत और भी बदतर हो सकती है। त्यागी ने स्वीकार किया कि “बहुत देर होने से पहले बेहतर सामंजस्य आवश्यक है।”
लेकिन अब भी, कुछ जेडी (यू) विधायक कथित तौर पर अन्य दलों के साथ बातचीत कर रहे हैं। यदि ऐसा ही मामला रहता है तो नीतीश कुमार के लिए आने वाला समय कठिन हो सकता है।