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Wednesday, 24 April, 2024
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कर्नाटक से सबक: राहुल गाँधी को क्षेत्रीय दलों को उनकी जगह दे देनी चाहिए

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अपने क्षेत्रीय नेताओं की सलाह पर चलते हुए चुनाव से पहले कांग्रेस ने जेडीएस से गठबंधन नहीं किया लेकिन अगर उन्होंने साथ चुनाव लड़ा होता तो उन्हें 150 सीटों पर विजय प्राप्त होती

नई दिल्ली: राहुल गाँधी चुनाव दर चुनाव एक मेहनती प्रचारक रहे हैं लेकिन हर बार अपनी पार्टी को मजबूत करने के प्रयास में कांग्रेस अध्यक्ष उस रूकावट को हटाने में असमर्थ रहे हैं जो की कांग्रेस को सत्ता की गद्दी तक पहुंचा पाए।

कर्नाटक में भी वही हुआ जो गुजरात में और हाल ही में यूपी के उपचुनाव में हुआ, राहुल उन राज्यों के नेताओं के अति आत्म विश्वास के साथ चुनाव लड़े और वहां के क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन को कोई महत्व नहीं दिया. विधानसभा चुनावों की घोषणा से कुछ महीने पहले, जेडीएस ने कांग्रेस के सामने गठबंधन का प्रस्ताव रखा लेकिन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया समेत कर्नाटक में कांग्रेस के अन्य नेताओं ने राहुल गांधी को आश्वस्त किया कि जेडीएस इन चुनावों में हारने वाली है और इसके साथ गठबंधन करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

कांग्रेस द्वारा प्रस्ताव को नजरअंदाज करने के बाद, जेडीएस ने बीएसपी के साथ गठबंधन बनाया जोकि एक लंबे समय के बाद बीएसपी द्वारा पहला चुनावी गठबंधन था, जिसके परिणामस्वरूप आज, कांग्रेस को केवल जेडीएस को समर्थन देने के लिए ही मजबूर नहीं होना पड़ा बल्कि एच डी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद देने की पेशकश भी करनी पड़ी। और कांग्रेस को ऐसा तब करना पड़ा जबकि कांग्रेस की 78 सीटें की तुलना में जेडीएस की कुल 37 सीटें हैं जोकि कांग्रेस की तुलना में आधे से भी कम हैं।

परिणामों से, यह स्पष्ट है कि यदि कांग्रेस और जेडीएस ने एक साथ चुनाव लड़ा होता तो वे 34 सीटें और जीत सकते थे और स्पष्ट बहुमत हासिल कर सकते थे। पिछले संसद सत्र के दौरान, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी नेता ममता बनर्जी, जिन्होंने दिल्ली में विपक्षी नेताओं से मुलाकात की, ने कांग्रेस से कर्नाटक में जेडीएस के साथ जुड़ने का आग्रह किया था। मंगलवार को जब एक बार परिणाम आने आरम्भ हो गए, तब ममता ने तुरंत ट्वीट किया: “यदि कांग्रेस ने जेडीएस के साथ गठबंधन किया होता, तो परिणाम बिलकुल अलग होते।”

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कर्नाटक में प्रचार के दौरान भी, राहुल गांधी ने कहा था कि अगर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बन जाती है, तो वे अगले प्रधान मंत्री बन सकते हैं। ऐसा लगता है कि कांग्रेस अभी भी इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि पिछले चार सालों में एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस की छवि और महत्व में काफी गिरावट आई है, और तब जबकि कांग्रेस अब केवल तीन राज्यों में ही शाशन में है।

वरिष्ठ राजद नेता और राज्यसभा सांसद मनोज झा कहते हैं, “चुनावी लोकतंत्र के इतिहास में कई बार ऐसा हुआ है, जब एक हार आपको जीत से ज्यादा सिखाती है।” “कांग्रेस को सभी विपक्षी दलों के साथ सामाजिक गठबंधन में बंधना चाहिए।”

जैसा गुजरात में वही कर्नाटक में

कर्नाटक एकमात्र ऐसा राज्य नहीं है जहां पार्टी ने छोटे और नतीजों को प्रभावित करने वाले खिलाड़ियों को नजरअंदाज कर दिया है। गुजरात में, बीएसपी और एनसीपी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने के प्रयास में केवल कुछ ही सीटों पर लड़ने की इच्छा जताई थी। लेकिन राज्य कांग्रेस नेतृत्व ने राहुल को आश्वस्त किया कि पार्टी दो छोटे खिलाड़ियों के साथ सीटों को साझा किए बिना ही चुनाव जीत सकती है और वो भी तब जबकि बीएसपी और एनसीपी का राज्य की राजनीति में कोई बड़ा योगदान नहीं है। नतीजा यह था कि 12 सीटों पर, कांग्रेस बस बीएसपी और एनसीपी द्वारा मतों के बटने की वजह से हार गई। अगर वे एक साथ लड़े होते, तो पार्टी राज्य में सरकार बना सकती थी।

एनसीपी नेता और राज्यसभा के सांसद के माजिद मेमन कहते हैं, “कांग्रेस के लिए यह एक सबक है कि इन्हें छोटे और क्षेत्रीय दलों के महत्व का एहसास होना चाहिए और अगर उन्हें किसी भी सूरत में बीजेपी को हराना है तो छोटे और क्षेत्रीय दलों को गले लगा लेना चाहिए।” “हाल के कुछ नतीजे बताते हैं कि यदि विपक्ष एकजुट होता है, तो वह मोदी लहर का दृढ़ता से सामना कर सकता है। लेकिन इसके लिए, हर किसी को अपने व्यक्तिगत हितों को दूर रखना होगा।”

संभावित भागीदारों को लगातार अनदेखा करके कांग्रेस को मजबूत बनाने में राहुल के दृष्टिकोण ने पार्टी को खतरे में डाल दिया है और जो उनकी मां, पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण के भी विपरीत है, जो विपक्ष को एक साथ लाने के लिए कड़ी मेहनत कर रही हैं। हाल के दिनों में, राहुल ने शरद पवार और लालू यादव जैसे नेताओं के साथ बातचीत की शुरुआत की है लेकिन अभी भी उन्हें क्षेत्रीय दलों के प्रति अपनी नीतियों में बदलाव करना पड़ेगा। कर्नाटक में सोनिया गाँधी ने ही देवेगौडा को फ़ोन करके कांग्रेस की तरफ से सरकार बनाने के लिए समर्थन की पेशकश की थी। वैसा तो पार्टी अध्यक्ष के रूप में ये काम राहुल गाँधी का था।
उत्तर प्रदेश में भी वही कहानी

राहुल को उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में अपना बड़ा दिल दिखाना चाहिए था। कांग्रेस ने अपने प्रत्याशी गोरखपुर और फूलपुर से खड़े करे थे जबकि उनके जीतने की उम्मीद न के बराबर थी, वहीँ राज बब्बर जो की उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं का कहना था कि राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते उन्हें सारे चुनाव लड़ने चाहिए वरना कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट जायेगा। परिणामस्वरुप जहाँ एक तरफ बाकी दल बीजेपी को हराने के लिए एक जुट हो गए वहीँ कांग्रेस के प्रत्याशियों की जमानत तक जप्त हो गई।

इस वजह से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपनी शर्ते रखने की हैसियत को कमजोर कर चुकी है जहाँ सपा और बसपा जैसे विरोधी एक जुट हो गए हैं। हांलाकि बाद में कांग्रेस ने अपनी गलती सुधारते हुए राज्यसभा के चुनावों में बसपा के प्रत्याशी के पक्ष में वोट किया।

कर्नाटक चुनावों ने बात तो इस्पष्ट कर दी है कि जहाँ कहीं भी जरूरत पड़ेगी, कांग्रेस को छोटी पार्टियों को साथ लेना पड़ेगा और अपनी ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की आदत को बदलना पड़ेगा। आरएलडी के उच्च नेता जयंत चौधरी का कहना है कि “जीतना जरूरी होना चाहिए न कि कितनी सीटों पर चुनाव लड़ा जाना है”। आरएलडी कैराना के चुनावों में मैदान में है और उसे सपा का समर्थन भी प्राप्त है।

मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस अध्यक्ष कमल नाथ बसपा से गठबंधन करने की कोशिश में हैं जोकि अभी तक पिछले तीन विधानसभा चुनावों में उनके सामने एक रोड़ा थी।

Read in English:Lessons from Karnataka: Rahul Gandhi should cede space to regional parties

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