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Sunday, 24 November, 2024
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सुप्रीम कोर्ट का संकट दिखाता है राजनीतिक और न्यायिक अराजकता की कड़वी सच्चाई

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कांग्रेस उतावली है, सुप्रीम कोर्ट और मुख्य न्यायाधीश पारदर्शी नहीं हैं और नैतिक आवाजें स्पष्ट रूप से अनुपस्थित हैं

कांग्रेस और भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा से जुड़े चल रहे सुप्रीम कोर्ट के विवाद से तीन प्रमुख मुद्दे निकल कर सामने आते हैं चलिए समझने की कोशिश करते हैं

1) कांग्रेस ने मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ, इशारा करते हुए कि ये सत्ताधारी दल और इसकी सरकार के प्रतिनिधि हैं, धर्मयुद्ध  शुरू करके अपनी राजनीति के बारे में नहीं सोचा है ये जनता के मत को या अपने ही कार्यकर्ताओं को तैयार किये बिना ही सीधे सीधे महाभियोग में कूद गयी यह बिना सोचे समझे एक परमाणु मिसाइल दाग के युद्ध शुरू करने जैसा है जिसमें आप आश्चर्यचकित होकर खुद ख़त्म हो जाते हैं

पार्टी का ‘हम-सही-ठिकाने-पर-हैं-हम-सही-ठिकाने-पर-नहीं-हैं’ वाला दृष्टिकोण भ्रम की स्थिति को दर्शाता है कपिल सिब्बल कांग्रेस की तरफ से बोलते हैं दो सांसद, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका पर हस्ताक्षर किये थे, दावा करते हैं कि वे अपने व्यक्तिगत सामर्थ्य में काम कर रहे हैं पार्टी का शीर्ष नेतृत्व चुप है सिब्बल को छोड़कर, उनके पूर्व कानून मंत्रियों सहित पार्टी के अन्य जाने माने कानूनी सितारे चुप हैं तो बस ये चल क्या रहा है? क्या वह पार्टी, जो भारत के सबसे अनुभवी राजनेताओं का दावा करती है, ने पहले कभी देखे या सुने नहीं गये संस्थागत संकट में खुद को और देश को नींद में चलाया है। शीर्ष पार्टी नेतृत्व को अपना अपराध स्वीकार कर लेना चाहिए। आगे अब और चुप रहने का मतलब गैर जिम्मेदार, लापरवाह और ढीठ राजनीती से होगा।

2) मुख्य न्यायाधीश को यह मानने का अधिकार है कि वह निर्दोष हैं और गलत तरीके से निशाने पर लिए गये हैं। लेकिन क्या उन्हें खुद का बचाव करते हुए देखा जाना चाहिए? कांग्रेस के महाभियोग नोटिस को उप-राष्ट्रपति द्वारा ख़ारिज किये जाने के खिलाफ कांग्रेस की याचिका को सुनने के लिए गठित की गयी पांच सदस्यीय न्यायपीठ पर संवैधानिक या नैतिक रूप से सवाल नहीं उठाये जा सकते। पीठ की अध्यक्षता न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी द्वारा की जाती है, जिनकी छवि उत्कृष्ट और कठोर रही है और जो मुख्य न्यायाधीश मिश्रा के रिटायर होने के बाद दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश होंगे और न्यायाधीश रंजन गोगोई के पदभार सँभालते ही पंक्ति में अगला नंबर इन्हीं का होगा।

मुख्य न्यायाधीश को स्वाभाविक रूप से पक्षपातपूर्ण दल से बाहर रखना होगा। इसी प्रकार, वरिष्ठता में अगले चार न्यायाधीशों को भी बाहर रखना उचित है क्योंकि उन्होंने अपने कार्यों पर सार्वजानिक स्थिति ली है। महाभियोग प्रस्ताव में कई आरोप उनके बयानों और पत्रों से लिए गये हैं। उस हद तक वे भी हितबद्ध पक्ष हैं। इसलिए न्यायपीठ में वरिष्ठता में अगले पांच न्यायाधीश शामिल हैं, जो उचित है। जैसे मुख्य न्यायाधीश पीठ को निर्धारित नहीं कर सकते ठीक वैसे ही याचिकाकर्ता भी न्यायाधीशों को चुन नहीं सकते। समस्या इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट/मुख्य न्यायाधीश ये साफ़ साफ़ प्रकट करने और इस पीठ को चुनने के पीछे के कारण को बताने में स्पष्ट रूप से अनिच्छुकता दिखाते हैं। वे इस सरल सत्य को बोलने में संकोची क्यों हैं, दिलचस्प है। ये उनके आलोचकों को अवसर और मसाला देता है। यदि अदालत दावा करती है कि पीठ के गठन के आदेश का खुलासा नहीं किया जा सकता, तो कांग्रेस “किसी के” उतने महत्वपूर्ण उद्देश्यों पर सवाल उठाने के लिए सही है।

वास्तव में यह निराशाजनक है कि एक संस्था जो अन्य हर जगह पारदर्शिता के लिए जोर देती है वह खुद ही इतनी अपारदर्शी है। ये खुद को आरटीआई से बचाती है, इसने सार्वजानिक कॉलेजियम कार्यवाहियां करने का विरोध किया था और अब ये संस्था यह भी नहीं बताती कि इस पीठ का गठन कैसे किया गया है। अफ़सोस की बात है कि हमें, कोर्ट की भूमिका के रुझान और विशेष रूप से मुख्य न्यायाधीश पर अपने स्वयं के बचाव में इतनी ज्यादा नैतिक पूँजी लगाने के लिए संज्ञान लेना होगा। इसके लिए संस्थान भुगतान कर रहा है।

3) भारतीय न्यायिक और कानूनी/संवैधानिक जगत में नैतिक नेतृत्व की कमी एक खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है। हमारे देश में पिछले संवैधानिक संकटों के दौरान हमने बड़े वकीलों की तरफ और दिशा निर्देश के लिए न्यायपीठ की तरफ देखा है। आज, कल के नेताओं में से बहुत कम नेता बचे हैं, शायद सिर्फ फली नरीमन और सोली सोराबजी। उनके दिमाग अभी भी सक्रिय हैं, वे बोलते हैं और वे अपनी बात में वजन रखते हैं लेकिन वे बहुत कम हैं।

पिछले दो दशकों में एक नया नेतृत्व विकसित नहीं हुआ है। बहुत कम नई आवाजें हैं जो नैतिक अधिकार के साथ अपनी बात में वजन रखती हैं। न्यायपीठ में युवा प्रतिभा की कोई कमी नहीं है और निश्चित रूप से समय के साथ साथ भारतीय न्यायपालिका की समझ रखने वाली नई पीढ़ी उभर कर आयेगी, और हो सकता है कि यही वह टर्निंग पॉइंट हो। आखिरकार, नरीमन और सोराबजी भी चालीस की उम्र के पार थे जब उन्होंने अधिकार प्राप्त किया था। लेकिन इस बोझिल समय में, एक खालीपन है जो न्यायपालिका और भारत को चोट पहुंचा रहा है।

सबसे निराशाजनक पहलू इतने सारे पूर्व मुख्य न्यायाधीशों की चुप्पी है। अगर उनमें से केवल दो या तीन ही मुखर होकर बोलते तो ये संस्थान को बचाने में मदद कर सकता था, वो संस्थान जिसके वो ऋणी हैं। उन्हें क्या परेशान कर रहा है? अतिशयोक्तिपूर्ण राजनीतिक शुद्धता? संस्थान का डर? या इससे उम्मीदें? यह कहना मुश्किल है कि क्या ज्यादा बुरा है।

 

मैं उन्हें याद दिलाने के लिए और बेहतर क्या कर सकता हूँ कि उनके सबसे सम्मानित पूर्वाधिकारियों में से एक, स्वर्गीय न्यायमूर्ति जेएस वर्मा कहा करते थे कि एक व्यक्ति भी एक संस्था का निर्माण कर सकता है, पुनर्निर्माण कर सकता है या उसे बचा भी सकता है लेकिन केवल तब, जब उसके पास दो विशेषताएं हो: अतीत में छुपाने के लिये कुछ भी ना हो और भविष्य में किसी प्रकार की कोई उम्मीद न हो। क्या हमारे पूर्व शीर्ष न्यायाधीश, खासकर हाल ही में सेवानिवृत्त हुए मुख्य न्यायाधीश सोचते हैं कि वे इस परीक्षा में उत्तीर्ण हैं? न्यायाधीश आर.एम. लोढ़ा पिछले सप्ताह अरुण शौरी की पुस्तक के विमोचन पर कुछ तथ्यों को स्पष्टतः बताने वाले पहले व्यक्ति थे। आवाज उठाने के लिए नैतिक साहस नहीं जुटा रहे और न्यायपालिका की मदद करने के बजाय चुपचाप दूर खड़े होकर देख रहे अन्य लोगों को ढूंढना चिंता का विषय है, जबकि ऐसा करना लोगों के लिए आत्म-विनाशकारी है|

उपलेख: अब से एक पखवाड़े में 23 मई को देश की शीर्ष अदालत को इस तमाशे से एक विराम मिलेगा, जैसा कि पूर्व सीएजी विनोद राय, जो अब 70 साल के हैं, को अदालत ने भारतीय क्रिकेट नियामक मंडल(बीसीसीआई) का असली प्रमुख नियुक्त किया था। अदालत ने सबसे सक्रिय “क्रिकेट न्यायपीठ” के सभी बोर्ड अधिकारियों के लिए 70 साल से ऊपर की सीमा निर्धारित की है। अब यह क्या करेगें? राय को बदलने के लिए एक और सेवानिवृत्त सिविल सेवक या न्यायाधीश खोजेंगें? या अपने ही आदेशों का उल्लंघन करेंगे? बेशक, यह अपने फैसले को बदलने की शक्ति रखता है, राय को अपवाद के तौर पर रखे या सभी के लिए उम्र बढ़ाएं। लेकिन वास्तव में, क्या बस यही अदालत की शक्तियां हैं? न्यायपालिका के उच्चतम व्यक्ति को इस बात पर प्रतिबिंबित करने की जरूरत है कि उन्होंने कैसे खुद को इतनी आलोचनीय स्थिति में खींच लिया। क्रिकेट बस एक पक्का उदाहरण है।

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