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Monday, 23 December, 2024
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सीखें विराट कोहली से नेतृत्व के कुछ गुर

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यहां हम बेहतर शासन का नुस्खा तो नहीं पेश कर रहे हैं मगर यह जरूर बता रहे हैं कि नरेंद्र मोदी ज्यादा प्रभावी राजनीतिक नेतृत्व कैसे दे सकते हैं.

भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान और भारत के सबसे महत्वपूर्ण नेता विराट कोहली देश के दूसरे सबसे अहम मुखिया नरेंद्र मोदी को क्या सीख दे सकते हैं? यह सवाल उठाना तब लाजिमी हो जाता है जब हम प्रधानमंत्री को आर्थिक मोर्चे पर लड़खड़ाते (फीका-फीका बजट/रोजगार बढ़ाने की कोई फिक्र नहीं), राजनीतिक मोर्चे पर कमजोर पड़ते (राजस्थान में झटके), और राजनयिक मोर्चे पर असामान्य रूप से नपुंसक होते (पड़ोसी मालदिव में संकट के मामले में) देखते हैं.

मैं पांच ऐसे क्षेत्र गिना सकता हूं जिनमें मोदी कोहली का तरीका अपना सकते हैं. ऐसे प्रयासों पर, जैसा कि आम तौर पर होता है, कुछ विचार-विमर्श हो सकते हैं (जिनमें यह क्षमता है उनके द्वारा) या फिर विरोध हो सकता है (उनकी ओर से जो विचार करने में अक्षम हैं). बेशक यह बेहतर शासन का नुस्खा नहीं है मगर इसकी बजाय यह जरूर बता सकता है कि मोदी ज्यादा प्रभावी राजनीतिक नेतृत्व कैसे दे सकते हैं और ज्यादा प्रबंधकीय मानवीयता किस तरह प्रदर्शित कर सकते हैं.

सिर्फ बातें न करें, काम करें

भारत मशहूर हवाबाजों का देश रहा है और हमेशा यही कामना करता रहा है कि कुछ ठोस काम हो. वह चाहता रहा है कि उसके नेता स्पष्ट सुधार और बदलाव लाएं. कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद से मोदी ने जुमले, नारे और हवाबाजी ही दिए हैं. इनमें से कुछ पर तो सचमुच कोई आपत्ति नही की जा सकती. भला कौन नहीं चाहेगा कि भारत ज्यादा स्वच्छ हो, गंगा कम मैली हो? कौन नहीं चाहेगा कि विदेशी उद्यमी मेक इन इंडिया के तहत भारत में उत्पादन करें? लेकिन हमारा हक है कि हमें केवल डिजाइनर कूड़ा बुहारते नेताओं के फोटो ही हासिल न हों, या विदेशी निवेश के ऊंचे-ऊंचे खोखले वादे ही न मिलें.

विराट कोहली केवल डींग नहीं हांकते, काम भी करके दिखाते हैं. अपने खेल में वे आगे बढ़कर नेतृत्व देते हैं, रनों की ढेर लगा देते हैं और अपने विरोधियों में हार का खौफ पैदा कर देते हैं. उन्होंने कामयाबियों का झंडा गाड़ा है. मोदी ने अब तक तो सिर्फ जुमलो के झंडे फहराए हैं.

विरोधियों के प्रति उदार बनें

मैदान पर कोहली हमेशा सबसे अच्छे इंसान बनकर नहीं रहते लेकिन वे एक उदार लड़ाके हैं, विरोधी की काबिलियत की हमेशा कद्र करते हैं और मैदान के बाहर दोस्ताना बरताव रखते हैं. ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाज फिल ह्यूग्स ने जब खेलते हुए ही सिर में चोट लगने से दम तोड़ दिया था तब कोहली ने लीक से हट कर उन्हें श्रद्धांजलि दी थी और ऑस्ट्रेलिया को यह बेहद मर्मस्पर्शी लगा था. जोहानिसबर्ग में पिछले एकदिवसीय मैच में जब एक दक्षिण अफ्रीकी बल्लेबाज ने भारतीय स्पिनर की गेंद पर छक्का लगाया था तब कोहली के चेहरे पर प्रशंसा का भाव देखने लायक था. यह बताता है कि अपने प्रतिद्वद्वियों के प्रति भी वे कितना सम्मान भाव रखते हैं. मैच के बाद पत्रकार सम्मेलनों में उन्हें प्रायः सबसे हाथ मिलाते, पीठ थपथपाते, तारीफ करते देखा जा सकता है.

इसके विपरीत मोदी को दूसरी पार्टी के किसी समकालीन नेता के बारे में अच्छी बातें कहते कभी नहीं सुना गया है. उनका तरीका द्वैतवादी है- जो उनके खिलाफ है वह उनके शब्दकोश में घृणित है. हाल में राज्यसभा में विपक्षी सांसद रेणुका चौधरी की हंसी पर उन्होंने जो तल्ख तंज कसा वह एक संकीर्ण, अनुदार शख्स के आचरण को उजागर करता है.

पत्रकारों से बात करें

भारत के इतिहास में ऐसा कोई प्रधानमंत्री नहीं हुआ, जिसने पत्रकारों के प्रति इतना तिरस्कार भाव रखा जितना मोदी रखते हैं. मीडिया के साथ उना संवाद दुर्लभ, पटकथा के मुताबिक होता है जिसमें लगभग उनके दुलारे पालतू किस्म के पत्रकार ही शामिल होते हैं और जो चापलूसी वाले सवाल पूछते हैं.

इस मामले में भी मोदी कोहली से कुछ सीख सकते हैं, जो मीडिया से खुल कर बात करते हैं और किसी भी अप्रत्याशित सवाल का उतनी ही निडरता से सामना करते हैं जितनी निडरता से मिशेल स्टार्क के बाउंसरों का करते हैं. इस तरह कोहली पत्रकारों को ईमानदार संवाद करने का सम्मान देते हैं. जब वे मीडिया से बात करते हैं तब हमें खेल की बारीकियों को भी समझने का मौका मिलता है. और तब हमें नेता की समीक्षा करने के अपने अधिकार का उपयोग करने का मौका मिलता है. ‘‘आपने अपनी टीम से रहाणे को क्यों अलग कर दिया है?’’ ‘‘आपने स्टीव स्मिथ पर बेइमानी करने का आरोप क्यों लगाया?’’ किसी भी सवाल को बिना उत्तर दिए नहीं छोड़ा जाता और न ही किसी सवाल को वे वर्जित मानते हैं. लेकिन मोदी, जिनके हाथ में पूरे देश की तकदीर है, किसी सवाल की इजाजत नहीं देते, उनके लिए प्रायः हर बात वर्जित है.

याद रखें कि आप एक टीम के साथ खेल रहे हैं

क्रिकेट टीम का खेल है, तो शासन भी यही है. कोहली (भाइयों के) एक बैंड के मुकम्मल अगुआ है, समान लोगों में एक हैं लेकिन कोई नया खिलाड़ी जब कैच लपकता है तो सबसे पहले दौड़ कर वे ही उसे गले लगा लेते हैं. टीम के बिना कप्तान कुछ भी नहीं होता, लेकिन भारत की सरकार के मंत्रिमंडल के कप्तान मोदी ऐसे कप्तानी करते हैं मानो उनके लिए टीम का कोई वजूद ही नहीं है. उन्होंने सुयोग्य सुषमा स्वराज को दरकिनार कर दिया है और अपने मंत्रिमंडल में आश्चर्यजनक औसत प्रतिभाओं को भर लिया है. इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो प्रधानमंत्री से थोड़ी भी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा कर सके.

याद रखें कि मैं एक ऐसे शख्स के तौर पर यह सब लिख रहा हूं, जो चाहता है कि मोदी कामयाब हों, भारत में ऐसे सुधार और विकास लाएं जिनकी हम इच्छा रखते हैं. लेकिन वे अकेले दम ही यह नहीं कर सकते. क्या हम कोहली को एक साथ बल्लेबाजी और गेंदबाजी और विकेटकीपिंग की कोशिश करते देखते हैं? नहीं, वे जिम्मेदारियां बांटते हैं. तो फिर मोदी हर काम में टांग क्यों फंसाना चाहते हैं, हर पोजिशन पर फील्डिंग क्यों करना चाहते हैं?

जरा मुस्कराइए भी

जब कोहली क्रिकेट खेल रहे होते हैं तब आपको एक ऐसा शख्स नजर आता है, जो अपना जोश, अपनी खुशी, और हां, अपना दर्द भी खुल कर व्यक्त कर रहा है. वे मुस्कराते हैं, हंसते हैं, तालियां बजाते हैं और अपने खिलाड़ियों में कुछ अनूठा कर गुजरने का जोश भरते हैं. मोदी से हमें ऐसी कोई मानवीय अभिव्यक्तियां नहीं मिलतीं.

इसकी जगह सोचा-समझा खौफ मिलता है, एकरस आवाज मिलती है जिसमें विविधता के प्रति अरुचि और असहमति के प्रति नापसंदगी के संकेत मिलते हैं. जब वे भाषण के शुरू में ‘मित्रों’ बोलते हैं तो उसका असर डरावना-सा होता है. वे बेशक आपको मित्र कह रहे होते हैं लेकिन इसके साथ यह चेतावनी-सी भी होती है कि आप एक अनुचर, मातहत हैं. यह एक संन्यासी की ओर से अनुत्साही अपील जैसी लगती है – एक ऐसे व्यक्ति की ओर से, जो न कुछ देना चाहता है, न कोई अपेक्षा रखता है, न उसमें कोई कोमलता है.

टुंकू वरदराजन स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के हूवर्स इंस्टीट्यूट में वर्जीनिया हॉब्स कारपेंटर फेलो हैं

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