scorecardresearch
Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतखट्टर की नमाज़ टिप्पणी और हिन्दू गुटों के अयोध्या मामले में दिए तर्क मेल नहीं करते

खट्टर की नमाज़ टिप्पणी और हिन्दू गुटों के अयोध्या मामले में दिए तर्क मेल नहीं करते

Text Size:

अयोध्या मामले में 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय लिया था कि मुसलमान व्यावहारिक रूप से कहीं भी प्रार्थना कर सकते हैं जबकि हिन्दू एक बार जहाँ पत्थर स्थापित करते हैं उसे ही मंदिर मानते हैं। 

र्वोच्च न्यायालय के समक्ष राम जन्मभूमि/बाबरी मस्जिद विवाद में मुस्लिम मुक़दमेबाजों ने इस हफ्ते कुछ अनपेक्षित विशेषज्ञ कानूनी सलाह प्राप्त की है जो अदालत में उनकी संभावनाओं को बढ़ा सकती है।

ये अप्रत्याशित कानूनविद और कोई नहीं हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर हैं ।

क्या एक मुस्लिम को प्रार्थना करने के लिए एक मस्जिद की आवश्यकता है? खट्टर ने एक बयान में कहा कि नमाज़ केवल मस्जिद, ईदगाह या “निजी स्थानों” पर ही पढ़ी जानी चाहिए। खैर, विडम्बना यह है कि इसी को लेकर मुस्लिम समूह भी वर्षों से शीर्ष अदालतों के समक्ष बहस करते रहे हैं।

उनका कहना है कि चूंकि प्रार्थना करने के लिए एक मस्जिद आवश्यक है और ये एक “आवश्यक धार्मिक साधना” है, अयोध्या में विवादित भूमि पर एक मस्जिद, धार्मिक स्वतंत्रता के उनके मौलिक अधिकार का प्रयोग करने के लिए रक्षणीय है। उन्होंने अयोध्या मामले में तर्क दिया है कि संविधान द्वारा प्रत्याभूत उनके इस अधिकार के संरक्षण का दायित्व धर्मनिरपेक्ष भारतीय राज्य पर है।

और यहीं विरोधाभास निहित है।

खट्टर को मालूम होना चाहिए कि इस केस में हिन्दू समूह और बाबरी मस्जिद ढाँचे के विध्वंस में हिस्सेदारी रखने वाले उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने तर्क दिया है कि इस्लाम यह नहीं कहता कि नमाज़ केवल मस्जिद में ही पढ़ी जा सकती है।

सुप्रीम कोर्ट ने 1994 में इस तर्क को तवज्जो नहीं दी लेकिन अब वह फिर से इस मुद्दे पर विचार कर रही है । इस्माइल फारूकी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया  केस में अपने फैसले में अदालत ने तब कहा था कि मुसलमान व्यावहारिक रूप से कहीं भी प्रार्थना कर सकते हैं पर हिन्दू एक बार जहाँ पत्थर स्थापित करते हैं उसे ही मंदिर मानते हैं। कोर्ट ने कहा था कि प्रार्थनाएं केवल यहीं की जा सकती हैं। अदालत ने ये तक कह दिया था कि किसी भी विशिष्ट स्थान पर प्रार्थना करना धार्मिक साधना का एक अनिवार्य या अभिन्न हिस्सा नहीं है।

खैर इस प्रश्न को हल करने का आखिरी मौका होगा इस मुद्दे की सुनवाई, जिसमे अभी काफी समय बाकी है ।

तनिक भी अनेपक्षित नहीं है कि एक मुख्यमंत्री को मालूम होना चाहिए कि संविधान में कोई भौगोलिक सीमायें नहीं हैं।

भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को यथोचित प्रतिबंधों के अधीन अपनी धर्म साधना करने का अधिकार देता है। ये अधिकार सिर्फ मस्जिदों या घरों के लिए आरक्षित नहीं है।

वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन, कपिल सिब्बल और राजीव धवन ने 1994 के आदेश पर पुनर्विचार करने के लिए अदालत से अयोध्या मामले पर फैसला देने से पहले एक बड़ी पीठ के गठन के लिए कहा है। उनके अनुसार, इस्माइल फारूकी के मामले में अदालत ने गलत तरीके से फैसला दिया था, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2010 के फैसले पर भरोसा किया था जिस फैसले में दो-तिहाई भूमि हिन्दुओं को और एक-तिहाई भूमि मुस्लिमों को देने की अनुमति दी गयी थी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फैसले को अब सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है।

मामले की गंभीरता को देखते हुए यदि अदालत 1994 के फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए पहले एक बड़ी पीठ का गठन करती है तो मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के समक्ष इस मामले का फैसला नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसी साल अक्टूबर में दीपक मिश्रा रिटायर हो रहे हैं। इस मामले में हिन्दू समूहों ने इस फैसले के पुनर्विचार के अनुरोध को ‘देरी की रणनीति’ करार दिया है, लेकिन अभी तक अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं की है कि मामला सही तरह से निर्णीत हुआ था या नहीं|

कोर्ट द्वारा किसी विशेष स्थान, जैसे मस्जिद, में प्रार्थना करने के अधिकार को यदि संवैधानिक रूप से संरक्षित करवाना है तो मुसलमानों को यह साबित करना पड़ेगा की यह उनकी धर्म साधना के लिए अति आवश्यक है । संविधान द्वारा धार्मिक कार्यों के हर पहलू को संरक्षित नहीं किया जाएगा क्योंकि हर किसी को अपनी धर्म-साधना करने का अधिकार है, संविधान केवल उन्हीं चीजों की रक्षा करता है जो एक धर्म की साधना के लिए आवश्यक और मौलिक होती हैं।

इसी वजह से ट्रिपल तलाक तथा धार्मिक स्थलों के अंदर महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध इत्यादि जैसे नियम संविधान के तहत संरक्षित नहीं हैं।

इसके लिए अदालत को धर्म के सिद्धांतों में जाने की आवश्यकता होगी और यह तय करना होगा कि विवाद में फंसी ये धर्मप्रथा आवश्यक है या अमुख्य। सुनवाई में, वकील अदालत को दिखाने के लिए कुरान से उद्धरण देंगे कि मस्जिद में नमाज़ पढ़ना इस पवित्र पुस्तक द्वारा निर्धारित है।

उनका तर्क है कि मस्जिद का इस्लाम में एक अलग ही महत्व है और यदि एक बार किसी मस्जिद की स्थापना हो जाती है और उस मस्जिद में प्रार्थना कर ली जाती है, तब वह हमेशा के लिए अल्लाह की संपत्ति में बदल जाती है। यहां तक कि यदि मस्जिद की संरचना ध्वस्त भी हो जाए, जैसे अयोध्या में, फिर भी यह स्थान वही रहता है और वहां पर नमाज अदा की जा सकती है।

खट्टर का बयान वास्तव में एक बड़ी बहस का मुद्दा है जो इस 25 वर्षीय पुराने मामले का दिशा बदल सकता है। अपने राज्य में कानून और व्यवस्था की एक गंभीर स्थिति के प्रति उनकी संवेदनाहीन प्रतिक्रिया से पता चलता है कि राजनेता अक्सर वर्तमान में राजनीतिक लाभ उठाने के लिए मुद्दों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को कैसे अनदेखा करते हैं।

अल्पसंख्यक तुष्टिकर्ताओं के रूप में खट्टर के बयान की आलोचना करने वालों को खारिज करना आसान है, लेकिन आने वाले हफ्तों में अयोध्या मामले में धर्म के बारे में कुछ वास्तविक प्रश्न पूछे जाएंगे। अधिक भ्रम पैदा करने के बजाय, कानून निर्माताओं को उन पर विचार जरूर करना चाहिए।

Read this article in English: Khattar’s namaz remark contradicts what Hindutva groups have argued for in the Ayodhya case

share & View comments